भूमि अधिग्रहण पर विश्व बैंक का किसान विरोधी सुझाव
भूमि अधिग्रहण पर विश्व बैंक का किसान विरोधी सुझाव
दैनिक जागरण एक जून के अंक में "खेती की खतरनाक खरीद” के नाम से प्रकाशित लेख में कृषि नीतियों के विशेषज्ञ लेखक देवेद्र शर्मा ने एक महत्त्वपूर्ण सूचना यह दी है कि, 2008 में विश्व बैंक ने अपनी विश्व विकास रिपोर्ट में यह कहा है कि - "भूमि बहुत महत्त्वपूर्ण संसाधन है, किन्तु वह ऐसे लोगों के ( यानी किसानों ) के हाथों में संकेंद्रित है, जो उनका कुशलता से उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भूमि को बड़े संसाधन को उन लोगों के दे दिया जाना चाहिए जो उसका कुशलता से उपयोग कर सके।
लेखक ने इसका मतलब स्पष्ट करते हुए कहा है कि विश्व बैंक के सुझावों के अनुसार भूमि संसाधन का कुशलतापूर्वक उपयोग करने कि क्षमता पूंजीविहीन, अभावग्रस्त, किसानों के पास नहीं बल्कि आधुनिक संसाधनों से सम्पन्न धनाढ्य लोगों के ही पास है। इसलिए किसानों की खेती अर्थात् विशालकाय कम्पनियों द्वारा संचालित नियंत्रित खेती में बदल दिया जाना चाहिए।
लेखक ने आगे बताया है कि इन्ही सुझावों के अनुसार काम भी किया जा रहा है। किसानों को जमीन से बेदखल करने और उसे धनाढ्य हिस्सों को सौंपने की प्रक्रिया लम्बे समय से चलाई जा रही है। इस देश में ही नहीं बल्कि अन्य पिछड़े देशों में भी यही प्रक्रिया चलाई जा रही है।
पड़ोसी देश चीन में भी वहां की सरकार द्वारा भूमि - अधिग्रहण के जरिये भारी संख्या में किसानों की कृषि भूमि से बेदखली किया है। यह सब देश की जनतांत्रिक कही जाने वाली सत्ता - सरकार द्वारा धनाढ्य एवं उच्च तबकों के हितों, स्वार्थों की अन्धाधुंध पूर्ति के लिए एकदम नग्न रूप में किसानविरोधी, जनविरोधी चरित्र अपना लेने का सबूत है कि विश्व बैंक के सुझावों के अनुरूप ही सत्ता - सरकारें कृषि भूमि को किसानों से छीनकर उसका अधिकाधिक कुशलता से उपयोग करने वाली धनाढ्य कम्पनियों को सौंपने को तैयार हैं।
हमारे देश के कई विद्वान एवं उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री भी यही बात कर रहे हैं। जाहिर सी बात है कि विद्वान अर्थशास्त्री की यह बात उनकी अपनी सोच नहीं है। बल्कि वह धनाढ्य कम्पनियों की वकालत मात्र ही है। यह वकालत प्रचार माध्यमी जगत में भी इस रूप में चलती रही है कि, "विकास के लिए जमीन की आश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता।"
उद्योग, वाणिज्य, व्यापार, यातायात, संचार आदि के विकास विस्तार के लिए जमीनों की आश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। तीव्र विकास के वर्तमान दौर में भूमि और कृषि भूमि के अधिकाधिक अधिग्रहण की आश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। इन पाठों, प्रचारों के साथ किसानों से जमीनें छीनकर उन्हें धनाढ्य कम्पनियों के देने में विश्व बैंक, देश व विदेश के उच्च कोटि के अर्थशास्त्रीगण देश की केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारें तथा प्रचार माध्यम जगत के बहुसंख्यक हिस्से एकजुट हैं। इनके पीछे देश- दुनिया की धनाढ्य कम्पनियां खड़ी हैं और उनका वरदहस्त इनके ऊपर है। आधुनिक विकास के लिए किसानों और गावों का विनाश करना इनका प्रमुख लक्ष्य बन गया है।
अत: किसानों द्वारा भूमि अधिग्रहण के विरोध में जगह - जगह चलाया जा रहा आन्दोलन केवल 'अपनी जमीन बचाओ, अपना गांव बचाओ' आन्दोलन के रूप में खत्म नहीं हो जाना चाहिए। बल्कि यह देश - प्रदेश के गांव बचाओ किसान बचाओ के रूप में आगे बढ़ जाना चाहिए। प्रदेशव्यापी, देशव्यापी हो जाना चाहिए अधिकाधिक संगठित एवं एकताबद्ध हो जाना चाहिए। फिर इस विरोध को भूमि अधिग्रहण के विरोध तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि सरकार के जरिये भूमि का मालिकाना पा रही कम्पनियों के विरोध के रूप में भी आगे बढना चाहिए।
चूँकि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया वैश्वीकरणवादी व निजीकरणवादी नीतियों का अहम हिस्सा है, इसलिए इन नीतियों के तहत निजी लाभ व मालिकाना बढ़ाने की छूट पाते रहे धनाढ्य एवं उच्च तबकों के कृषि भूमि पर मालिकाने का बढ़ाव व विस्तार है। इसलिए किसानों एवं ग्रामवासियों को इस बात को जरूर जानना व समझना चाहिए कि भूमि अधिग्रहण के विरोध के लिए वैश्वीकरणवादी तथा निजीकरणवादी नीतियों का विरोध अत्यंत आवश्यक है। अपरिहार्य है।
खाद्यानों की बढ़ती महंगाई की मार सहते जा रहे गैरकृषक जन साधारण हिस्से को भी इस विरोध इस विरोध में किसानों के साथ होना चाहिए ............... जागो-जागो कब तक सोते रहोगे लोगों .........
'थका पिसा मजदूर वही दहकान वही है।
कहने को भारत, पर हिन्दुस्तान वही है।।
सुनील दत्ता
लेखक स्वतंत्र पत्रकार व टिप्पणीकार हैं।
World Bank's anti-farmer advice on land acquisition


