भूमि सुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी, राजनीति के चँगुल में हैं किसानों की तरह
भूमि सुधार मुद्दा नहीं है और शरणार्थी, राजनीति के चँगुल में हैं किसानों की तरह
विचारधाराएं एटीएम मशीनें और उनमें भी सबसे बड़ा एटीएम अंबेडकर का
ऐसा रास्ता निकालें जिसमें वोट बैंक की आत्मघाती विरासत से निकलकर हम राज्यतंत्र में बदलाव करके समता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल कर सकें
पलाश विश्वास
उत्तराखंड की तराई में उधमसिंह नगर जिला मुख्यालय रुद्रपुर से सोलह किमी दूर दिनेशपुर में पिछले साल की तरह इस बार भी पिताजी, किसान और शरणार्थी नेता, दिवंगत पुलिन बाबू की स्मृति में आयोजित राज्यस्तरीय फुटबाल प्रतियोगिता सम्पन्न हो गयी है। कहने को तो यह उत्तराखंड राज्य स्तरीय प्रतियोगिता है, लेकिन इसमें उत्तर प्रदेश की टीमें भी शामिल रहीं। घरु टीम दिनेशपुर को हराकर चैंपियन भी बनी उत्तर प्रदेश की टीम। कादराबाद बिजनौर ने यह प्रतियोगिता जीत कर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की दूरी मिटा दी। इस बार पहाड़ से भी टीमें आयीं। उम्मीद है कि अगली दफा उत्तर प्रदेश और पहाड़ से और ज्यादा टीमें शामिल होंगी इस प्रतियोगिता में।
विचारधारा से मदद नहीं मिली तो मैं बामसेफ में चला गया और अब वहाँ भी नहीं हूँ, क्योंकि जिस मिशन के लिये वहाँ गया था,वह वहाँ है ही नहीं।
देशभर में शरणार्थी आंदोलन अब भी जारी है, लेकिन इस राष्ट्रव्यापी शरणार्थी आंदोलन में भी अब अपने को कहीं नहीं पा रहा हूँ। जो लोग इस आंदोलन में हैं अब, उनके लिये भी शायद मैं उनके मकसद और एजंडा के माफिक नहीं हूँ। मेरे कारण उनकी राजनीतिक आकाँक्षाओं में उसीतरह अंतराल आता है जैसे बामसेफ धड़ों की राजनीति के मुताबिक मैं कतई नहीं हूँ, बल्कि इन अस्मिताओं को तोड़ना ही अब मेरा मिशन है।
पिताजी अंबेडकरवादी थे। पिताजी कम्युनिस्ट भी थे। मैंने उनके जीवनकाल में अंबेडकर को कभी पढ़ा ही नहीं। हम वर्ग संघर्ष के मार्फत राज्यतंत्र को आमूल चूल बदलकर शोषणविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना का सपना जी रहे थे। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक और तमाम साम्यवादियों की तरह हम भी भारतीय यथार्थ बतौर जाति को कोई समस्या मानते ही न थे।
1958 में हुये ढिमरी ब्लाक आंदोलन से वे आमृत्यु तराई में बसे सभी समुदायों के नेता तो थे ही, वे पहाड़ और तराई के बीच सेतु भी बने हुये थे। जाति उन्मूलन की दिशा में उनकी कारगर पहल यह थी कि उन्होंने सारी किसान जातियों और शरणार्थी समूहों को दलित ही मानने की पेशकश करते रहे।
वे अर्थशास्त्र नहीं जानते थे। औपचारिक कोई शिक्षा भी नहीं थी उनकी, लेकिन उनका सूफियाना जीवन दर्शन हम उनके जीवनकाल में कभी समझ ही नहीं सकें। भारत विभाजन की वजह से जिन गांधी के बारे में तमाम शरणार्थी समूहों में विरूप प्रतिक्रिया का सिलसिला आज भी नहीं थमा, कम्युनिस्ट और शरणार्थी होते हुये उसी महात्मा गांधी की तर्ज पर 1956 में उन्होंने शरणार्थियों की सभा में ऐलान कर दिया कि जब तक इस देश में एक भी शरणार्थी या विस्थापित के पुनर्वास का काम अधूरा रहेगा, वे धोती के ऊपर कमीज नहीं पहनेंगे।
वे तराई की कड़ाके की सर्दी और पहाड़ों में हिमपात के मध्य चादर या हद से हद कंबल ओढ़कर जीते रहे। देश भर में यहाँ तक कि अपने छोड़े हुये देस पूर्वी बंगाल से भी जब भी किसीने पुकारा वे बिना पीछे मुड़े दौड़ते हुये चले गये। भाषा आंदोलन के दौरान वे ढाका के राजपथ पर गिरफ्तार हुये तो बंगाल के प्रख्यात पत्रकार और अमृत बाजार पत्रिका के संपादक तुषारकांति घोष उन्हें छुड़ाकर लाये। तुषारकांति से उनके आजीवन सम्बंध बने रहे। यही नहीं, भारत के तमाम राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों,राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और तमाम राजनीतिक दलों से उनका आजीवन सम्बंध था।
उनका संवाद अविराम था।
वे इंदिरा गांधी के कार्यालय में बेहिचक पहुंच जाते थे तो सीमापार जाने के लिये भी उन्हें न पासपोर्ट और न वीसा की जरुरत होती थी। वे यथार्थ के मुकाबले विचारधारा और राजनीतिक रंग को गैरप्रासंगिक मानते थे। यह हमारे लिये भारी उलझन थी। लेकिन कक्षा दो में दाखिले के बाद से लगातार नैनीताल छोड़ने से पहले मैं उनके तमाम पत्रों, ज्ञापनों और वक्तव्यों को लिखता रहा। इसमें अंतराल मेरे पहाड़ छोड़ने के बाद ही आया। वे शरणार्थी ही नहीं, दलित ही नहीं, किसी भी समुदाय को संबोधित कर सकते थे और तमाम जातियों को वर्ग में बदलने की लड़ाई लड़ रहे थे दरअसल। वे चौधरी चरणसिंह के किसान समाज की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी थे, जिनसे उनके बहुत तीखे मतभेद थे।
बंगालियों में उन्हें लेकर विवाद इसलिये भी था कि वे बंगाली, पहाड़ी, सिखों, आदिवासियों, मैदानी और अल्पसंख्यक समुदायों में कोई भेदभाव नहीं करते थे और कभी भी वे उनके साथ खड़े हो सकते थे। जैसे बाबरी विध्वंस के बाद वे उत्तरप्रदेश के तमाम दंगा पीड़ित मुसलमानों के इलाकों में गये। वे दूसरे शरणार्थियों की तरह या बंगाल के बहुजन बुद्धिजीवियों की तरह भारत विभाजन के लिये मुसलमानों या मुस्लिम लीग को जिम्मेवार नहीं मानते थे। वे ज्योति बसु के साथ काम कर चुके थे तो जोगेंद्र नाथ मंडल के भी सहयोगी थे। वे नारायण दत्त तिवारी और कृष्णचंद्र पंत के राजनीतिक जीवन के लिये अनिवार्य वोट बैंक साधते थे, जो हमसे उनके मतभेद की सबसे बड़ी वजह भी थी, लेकिन इसके साथ ही वे अटलबिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर के साथ भी आमने-सामने संवाद कर सकते थे। अकबर अहमद डंपी, देवबहादुर सिंह, हरिशंकर तिवारी, राजमंगल पांडेय, डूंगर सिंह बिष्ट, श्याम लाल वर्मा, सीबी गुप्ता, नंदन सिंह बिष्ट, प्रतापभैय्या, रामदत्त जोशी, कामरेड हरदासी लाल, चौधरी नेपाल सिंह, सरदार भगत सिंह तक तमाम लोगों से उनके सम्बंध कभी नहीं बिगड़े। जबकि उन्होंने पद या चुनाव के लिये राजनीति नहीं की और न निजी फायदे के लिये कभी राजनीतिक लाभ उठाया। उनके लिये सबसे अहम थीं जनसमस्याएं जो तराई के अलावा असम, महाराष्ट्र, कश्मीर, दंडकारण्य या बंगाल के अलावा देश भर में कहीं की भी स्थानीय या क्षेत्रीय समस्या हो सकती थी। वे साठ के दशक में असम के तमाम दंगा पीड़ित जिलों में न सिर्फ काम करते रहे, बल्कि उन्होंने प्रभावित इलाकों में दंगापीड़ितों की चिकित्सा के लिये साल भर के लिये अपने चिकित्सक भाई डा. सुधीर विश्वास को भी वहीं भेज दिया था उन्होंने।
हम बच्चों को कैरियर बनाने की सीख उन्होंने कभी नहीं दी बल्कि हर तरह से वे चाहते थे कि हम आम जनता के हक हकूक की लड़ाई में शामिल हों। अपनी जायदाद उन्होंने आंदोलन में लगा दिया और अपनी सेहत की परवाह तक नहीं की। सतत्तर साल की उम्र में अपनी रीढ़ में कैंसर लिये वे देश भर में दीवानगी की हद तक उसी तरह दौड़ते रहे जैसे इकहत्तर में मुक्तियुद्ध के दौरान बांग्लादेश। बांग्लादेश मुक्त हुआ तो दोनों बंगाल के एकीकरण के जरिये शरणार्थी और सीमा समस्या का समाधान की माँग लेकर वे स्वतंत्र बांग्लादेश में भी करीब सालभर तक भारतीय जासूस करार दिये जाने के कारण जेल में रहे।
उनमें अजब सांगठनिक क्षमता थी। 1958 में ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृ्त्व करने से पहले वे 1956 में तराई में शरमार्थियों के पुनर्वास सम्बंधी माँगों के लिये भी कामयाब आंदोलन कर चुके थे, जिस आंदोलन की वह से आज के दिनेशपुर इलाके का वजूद है। फिर 1964 में जब पूर्वी बंगाल में दंगों की वजह से शरणार्थियों का सैलाब भारत में घुस आया और जब सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं, एकदम अजनबी शरणार्थियों को लेकर उन्होंने लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर लगातार तीन दिन ट्रेनें रोक दीं। इसी नजारे के बाद समाजवादी नेता चंद्रशेखर से उनका परिचय हुआ और इसी आंदोलन की वजह से सुचेता जी को मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा।
36 गाँवों में से कहीं भी वे बस सकते थे लेकिन अपनी बिरादरी से बाहर के लोग, अपने देश से बाहर के जिले के लोग जो तेभागा से लेकर बंगाल और ओड़ीशा के शरणार्थी आंदोलनों के साथियों के साथ गाँव बसाया और उनके ही साथियों ने इस गाँव का नामकरण मेरी मां के नाम पर कर दिया, जो इस गाँव से फिर अपने मायके तक नहीं गयी और न पिता को अपने ससुराल जाने की फुरसत थी।
हमने आज तक ननिहाल नहीं देखा, हालाँकि मेरी ताई और मेरी माँ किसी भी गाँव के किसी भी घर को अत्यंत दक्षता से अपना मायका बना लेती थीं, इसलिये अपने बचपन में हमें ननिहाल का अभाव कभी महसूस भी नहीं हुआ। माँ का मायका ओड़ीशा के बारीपदा में है, जहाँ हम कभी नहीं गये। कोलकाता में आ जाने के बाद करीब करीब पूरा ओड़ीशा घूम लेने के बावजूद हम बारीपदा कभी इसलिये जा नहीं सके कि वहाँ हम किसी को नहीं जानते। हमारी ताई का मायका पूर्वी बंगाल में ही छूट गया था ओड़ाकांदि ठाकुर बाड़ी में। कायदे से मतुआ मुख्यालय ठाकुर नगर भी उनका मायका है। हालाँकि ठाकुर नगर से वीणापाणि माता और मतुआ महासंघ के कुलाधिपति कपिल कृष्ण ठाकुर बचपन में बसंतीपरु हमारे घर पधार चुके हैं। 1973 में हमने पिताजी के साथ पीआर ठाकुर का भी दर्शन मतुआ मुख्यालय ठाकुरनगर में कर चुके हैं और उनसे कभी कभार अब भी मुलाकातें होती रहती हैं। लेकिन हमारी ताई तो हमारे पिता के निधन से पहले 1992 में ही हमें छोड़कर चली गयीं। चाचा जी का निधन भी 1994 में हो गया। पिताजी के अवसान से काफी पहले।
माँ का बनाये मायकों में से मसलन ऐसे ही एक ननिहाल के रिश्ते से आउटलुक के एक बड़े ले आउट आर्टिस्ट मेरे मामा लगते हैं। तो ताई का एक मायका रायसिख गाँव अमरपुर में रहा है, जहाँ फलों का एक स्वादिष्ट बगीची था महमहाता। बचपन में उन फलों, लस्सी, मट्ठा, रायता का जो जायका मिला, वह कैसे भूल सकता हूँ। तराई के गाँवों में हमारे ऐसे ननिहाल असंख्य हैं।
दरअसल सच तो यह है कि तराई और पहाड़ के किसी गाँव में किसी घर में हमें ननिहाल से छँटाक भर कम प्यार कभी नहीं मिला। पिता के जो लोग कट्टर विरोधी थे, हमें उनका भी बहुत प्यार मिला है।
वे किसान सभा के नेता थे। ढिमरी ब्लाक आंदोलन की वजह से हमारे घर तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुयी, वे जेल गये, पुलिस ने मारकर उनका हाथ तोड़ दिया। उन पर और उनके साथियों पर दस साल तक विभिन्न अदालतों में मुकदमा चला। इसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान जब मैं दूसरी पासकर तीसरी में दाखिल हुआ तो अपने साथ मेरा नैनीताल में पहाड़ के आंदोलनकारियों से मिलाने नैनीताल ले गये। तब उन्हें सजा हो गयी थी लोकिन हरीश ढोंढियाल जो स्वयं आंदोलनकारी बतौर अभियुक्त थे और पार्टी की मदद के बगैर वकील बतौर मुकदमा भी लड़ रहे थे, उनकी तत्परता से उन्हें जमानत भी फौरन हो गयी। मुकदमा की सुनवाई के बाद वे मुझे सबसे पहले डीएसबी कालेज परिसर ले गये और बोले तुम्हें यही पढ़ना है।
1958 में तेलंगना के किसान विद्रोह से प्रेरणा लेकर जिला कम्युनिस्ट पार्टी और किसान सभा नैनीताल की ओर से गूलरभोज और लालकुआं स्टेशनों के बीच ढिमरी ब्लाक के जंगल को आबाद करके भूमिहीन किसानों ने चालीस गाँव बसा दिये। हर गाँव में चैंतालीस परिवार। हर परिवार को खेती के लिये दस दस एकड़ जमीन बाँट दी गयी। इस आंदोलन में थारु बुक्सा आदिवासी, पूरबिया, देसी, मुसलमान सिख, पहाड़ी मसलन हर समुदाय के किसानों की भागेदारी थी। किसान पूरी तरह निःशस्त्र थे।
ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह तराई में साठ सत्तर के दशक तक चले भूमि सुधार के मुद्दे को लेकर, महाजनी के खिलाफ, बड़े फार्मों की बेहिसाब जमीन की बँटवारे की माँग को लेकर सिलसिलेवार जारी तमाम आंदोलनों का प्रस्थानबिंदु है, जिनका पटाक्षेप श्रमविरोधी पूंजीपरस्त सिडकुल और शहरीकरण औद्योगीकरण परिदृश्य में हो गया।
ढिमरी ब्लाक आंदोलन में पुलिनबाबू के साथी नेता थे कामरेड हरीश ढौंडियाल जो बाद में नैनीताल जीआईसी में मेरे प्रवेश के वक्त मेरे स्थानीय अभिभावक थे। चौधरी नेपाल सिंह जिनका बेटा जीत मेरा दोस्त था, जिसका असमय निधन हो गया। कामरेड स्तप्रकाश जिनका बेटा वकील हैं। गाँव बसंतीपुर के पड़ोसी गाँव अर्जुनपुर के बाबा गणेशासिंह, जिनकी जेल में ही मृत्यु हो गयी।
आंधी पानी में भी, मैराथन पंचायतों में भी मुझे साथ लेकर चलते थे पिताजी। इसी तरह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर में आंधी पानी के बीच बाघ का आतंक जीतकर उपराष्ट्रपति डा.जाकिर हुसैन का दर्शन करके आधी रात जंगल का सफर त करके उनकी साईकिल के पीछे बैठकर घर लौटा था मैं।


