सुन्दर लोहिया
कुछ लोगो के लिए आप सरकार की कारवाइयों से देश की राजनीति में अराजकता और संवैधानिक संकट के आसार नज़र आ रहे हैं तो कुछ लोग इसमें हमारे संविधान में अब तक अप्रकट अंतर्विरोध और संविधान की आत्मा यानि प्रिएम्बल की उपेक्षा दिख रही है। पहला नज़रिया उन लोगों का है जो संविधान को पवित्र गाय की तरह पूजनीय मानते हैं और जो अन्य हैं उनके अनुसार संविधान देश के प्रबुद्ध और जागरूक नागरिकों के सामूहिक चिन्तन से निसृत निर्णय का दस्तावेज़ है। यह कोई अपौरूषेय आप्तवचन का ग्रंथ नहीं है जिसकी आलोचना ईशा निन्दा के समान पापकर्म माना जाये। वास्तव में यह देश की जनता की आकांक्षाओं का दर्पण है। इसके प्रति सम्मान का मतलब है इस देश की जनता की आकांक्षाओं का सम्मान। संविधान कहीं भी अपने आपको सर्वोच्च नहीं मानता। यह उस प्रभुसत्ता का उत्पाद है जिसकी मालिक देश की जनता है। संसद जनता की आकांक्षाओं का सांझा मंच है और प्रशासन इन आकांक्षाओं के क्रियान्वयन का औज़ार है। यही कारण है कि जब कभी इस व्यवस्था के औज़ार भोथरे हो जाते हैं तो मंच पर विचार विनिमय की प्रक्रिया शुरु हो जाती है और तब संवैधानिक संशोधनों के तौर पर बदलाव लाया जाता है। यह बदलाव जनाकांक्षाओं के अनुरूप हो तभी सार्थक हो पाता है अन्यथा जनता का आक्रोश सत्ता के लिए चुनौति बन कर सामने आ जाता है। हमारा संविधान हमारी जनता द्वारा बनाया गया है इसलिए आज़ादी के साठ पैंसठ सालों में इसमें एक सौ से ज़्यादा संशोधन किये जा चुके हैं। इसलिए संविधान की आड़ लेकर बदलाव की प्रक्रिया को रोकने वालों को यह सोचना चाहिये कि उनकी कारवाई लोकहित में या है वे निजी स्वार्थ से प्रेरित होकर ऐसा कर रहे हैं ?
ये सारे सवाल आप पार्टी की दिल्ली सरकार द्वारा प्रस्तुत जनलोकपाल विधेयक को लेकर हैं। इसे पास होने से पहले ही विपक्ष के नेताअें ने असंवैधानिक करार दे दिया। इसे संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन बताते हुए 2002 में गृहमन्त्रालय के एक आदेश का हवाला दिया जिसमें केन्द्रशासित राज्योंकी विधान सभाओं में कोई विधेयक पेश करने से पूर्व गृहमन्त्रालय की अनुमति अनिवार्य कर दी गई थी। यह आदेश एनडीए के गृहमन्त्री लालकृष्ण अडवानी के कार्यकाल में जारी हुआ था अतः इसमें उनकी नीतिगत सहमति भी अनिवार्य तौर पर रही है। विडम्बना यह है कि भाजपा के राज्य सभा में विपक्ष के नेता विज्ञ वकील अरुण जेटली आप सरकार द्वारा जनलोकपाल बिल बिना गुहमन्त्रालयकी अनुमति के बिना पारित करवाने को असंवैधानिक बता रहे हैं। उसके संवैधानिक या असंवैधानिक होने के सवाल से हट कर देखें तो लालकृष्ण अडवानी का यह आदेश संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन करने वाला आदेश है। आदेश के मुताबिक दिल्ली की सरकार को कोई भी बिल अपनी विधान सभा में पेश करने से पहले गृहमन्त्रालयकी अनुमति लेना अनिवार्य है। इस स्थिति में यदि कोई बिल गृह मन्त्रालय की अनुमति के बाद विधान सभा में पारित न हो पाये तो क्या गृहमन्त्रालय की स्थिति हास्यास्पद नहीं होगी ? इसके अलावा कानून जनता की आकांक्षाओं का आईना होता है न कि किसी मन्त्रालय की मन्त्रणा का नतीजा। लोग अपनी सार्वभौम सत्ता अपने विधायक को सौम्पती है न कि किसी नौकरशाह को। विधान सभा के बिल को कानून में बदलने से पहले कई स्तरों पर रोका जा सकता है। विधान सभा से पास हो जाने के बाद उसे उपराज्यपाल की संस्तुति चाहिए फिर उसके बाद राष्ट्रपति के हस्ताक्षर ज़रुरी है। यहां से निकल जाने के बाद भी इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौति देकर इसकी संवैधानिकता की जांच करवाई जा सकती हैं। इतना सब जानते हुए भी लोग जनलोकपाल को विधानसभा में पेश ही नहीं होना देना चाहते इसमें कुछ क्या बहुत कुछ काला दिख रहा है।
सच्चाई शायद यह है कि जनलोकपाल बिल कांग्रेस और भाजपा दोनों के गले की फांस बन चुका है। ये न तो इस बिल का विरोध कर सकते हैं न समर्थन। विरोध इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि भ्रष्टाचार जनता का मुद्दा बन चुका है और आप की सरकार ने एक छोटे से राज्य में ही सत्ताधारियों की धांधलियों से पर्दा उठाना शुरु कर दिया है। बडे़ राज्यों की बड़ी गड़बडियां तो सोलहवीं लोकसभा के एजेण्डे में शामिल हो जायेंगी इसलिए सत्ता की राजनीति करने वाली पार्टियों में हड़कम्प मच गया है। इस हड़कम्प में वे कभी संविधान की दुहाई देते हैं तो कभी राजनीतिक मर्यादाओं की लेकिन जनता कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। इधर वे रोकने में समर्थ होते हुए भी चुनाव में हार का जोखिम नहीं उठाना चाहते। आखिर आप पार्टी का जनलोकपाल तभी कानून बन सकता है जब उसे विधान सभा पास कर पाये। विधान सभा में आप के पास बहुमत नहीं है यह बात किसी से छिपी हुई तो नहीं है तो फिर वे विधान सभा में बिल के विरोध में मत देने से क्यों कतरा रहे हैं? कभी उपराज्यपाल का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं तो कभी राष्ट्रपति के पास दौड़ रहे हैं। यह भागदौड़ इन पार्टियों के अंतरतम में मची हुई बेचैनी की आंगिक अभिव्यक्ति भी तो हो सकती है। अगर अब ये लोग जनलोकपाल का विरोध करते हैं तो जनता इन्हें भ्रष्टाचार का समर्थक मान लेगी और अगर बिल पास हो गया तो राष्ट्रपति पर भी जनता का यह दबाव आ सकता है कि इस विधेयक को रोकने का मतलब भ्रष्टाचार को सरकार की अनुमति प्रदान करना है।
इस अद्भुत चक्रव्यूह की रचना किसी विचारधारा के अनुकरण से नहीं हुई है क्योंकि आप पार्टी के पास किसी प्रकार की स्पष्ट विचारसारणी नहीं है। इसकी ताकत जो अब प्रकट हो रही है वह इस बात में है कि यह सत्ता की राजनीति नहीं कर रही है और न ही इसके पास जनसेवा का कोई दीर्घकालीन फलसफा है। यह सिर्फ एक मुद्दे पर लड़ रही है जिससे जनता का जीवन नरक बना रहा है और जो गरीब और अमीर दोनों को उनकी हैसीयत के मुताबिक पीडि़त कर रहा है। केजरीवाल का यह बयान समझ लेना चाहिये जिसमें वह कहते हैं कि यदि जन लोकपाल पास नहीं होगा तो वे मुख्यमन्त्रीपद से इस्तीफा दे देंगे। उसे मालूम है कि विधानसभा में आप पार्टी के पास बहुमत नहीं है। यह बात भी वह ठोक बजाकर कहते हैं कि उसने किसी से समर्थन न मांगा है न किसी को समर्थन दिया है। इससे उसकी स्थिति इस मामले में साफ है। इस तरह भ्रष्टाचार के खि़लाफ अपनी लड़ाई में असफल हो जाने का दोष भी वे विपक्ष पर डाल रहे हैं। इस तरह विपक्ष पूरी तरह घिर चुका है। यह वह मौका है जब जनता को अपना ब्रह्मास्त्र यानि मताधिकार बहुत सोच समझ कर इस्तेमाल करना होगा। इसलिए मत चूकियो चैहान।
सुन्दर लोहिया, लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। आपने वर्ष 2013 में अपने जीवन के 80 वर्ष पूर्ण किए हैं। इनका न केवल साहित्य और संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है बल्कि वे सामाजिक जीवन में भी इस उम्र में सक्रिय रहते हुए समाज सेवा के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। अपने जीवन के 80 वर्ष पार करने के उपरान्त भी साहित्य और संस्कृति के साथ सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। हस्तक्षेप.कॉम के सम्मानित स्तंभकार हैं।