मधु किश्वर, खुर्शीद अनवर की मौत के दाग को अपने दामन से छुड़ा नहीं सकतीं
मधु किश्वर, खुर्शीद अनवर की मौत के दाग को अपने दामन से छुड़ा नहीं सकतीं
खुर्शीद अनवर की आत्महत्या और कुछ सवाल
मधु किश्वर को न तो योग्यता है और न अधिकार है कि वे अपने कमरे में दिए गए बयानों को तथ्य की तरह पेश करें।
अपूर्वानंद
आखिर खुर्शीद अनवर ने ज़िंदगी से बाहर छलांग लगा ली। यह असमय निधन नहीं था। यह कोई बहादुरी नहीं थी। और न बुजदिली। क्या यह एक फैसला था या फैसले का अभाव? अखबार इसे बलात्कार के आरोपी एक एनजीओ प्रमुख की आत्महत्या कह रहे हैं। क्या उन्होंने आत्महत्या इसलिए कर ली कि उनपर लगे आरोप सही थे और उनके पास कोई बचाव नहीं था? या इसलिए कि ये आरोप बिलकुल गलत थे और वे इनके निरंतर सार्वजनिक प्रचार से बेहद अपमानित महसूस कर रहे थे? आज खुर्शीद की सारी पहचानें इस एक आरोप के धब्बे के नीचे ढँक जाने को बाध्य हो गई हैं: कि वह एक संवेदनशील सामाजिक कार्यकर्ता थे,कि इंसानों से मजहब की बिना पर की जाने वाली नफरत उनके लिए नाकाबिले बर्दाश्त थी, कि वे भाषा के मुरीद थे और भाषा से वे खेल सकते थे, कि वे उर्दू के माहिर थे लेकिन उनके दफ्तर में आप हिंदी साहित्य का पूरा जखीरा खंगाल सकते थे, कि गायत्री मंत्र का उर्दू अनुवाद करने में उन्हें किसी धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं जान पड़ता था क्योंकि वह उनके लिए पाब्लो नेरुदा या नाजिम हिकमत या महमूद दरवेश की शायरी की तरह की एक बेहतरीन शायरी थी, कि भारत के लोकगीतों और लोकसाहित्य को इकट्ठा करने, उसे सुरक्षित करने में उनकी खासी दिलचस्पी थी, कि इस्लामी कट्टरपंथियों पर हमला करने में उन्हें ख़ास मज़ा आता था और यहाँ उनकी जुबान तेजाबी हो जाती थी, कि वे हाजिरजवाब और कुशाग्र बुद्धि थे, कि वे एक यारबाश शख्स थे, कि अब किसी उर्दू शब्द की खोज में या अनुवाद करते हुए उपयुक्त भाषा की तलाश में वह नंबर अब मैं डायल नहीं कर पाऊंगा जो मुझे ज़ुबानी याद था, कि यह मेरा जाती नुकसान है और एक बार बलात्कार का आरोप लग जाने के अब इन सब का कोई मतलब नहीं।
इसीलिए पिछले दो महीने से, जबसे फेसबुक की दुनिया में पहले अनाम, लेकिन स्पष्ट सकेतों के साथ और बाद में सीधे-सीधे खुर्शीद पर यह आरोप लगने लगा जिसने एक मुहिम की शक्ल ले ली कि उन्होंने अपने घर पर एक नशे में लगभग बेहोश लड़की के साथ बलात्कार किया तो उनके करीबी दोस्तों ने भी उनके साथ कोई रहम नहीं किया। उन्हें लगातार कहा कि अगर उन पर अभियोग लगा है तो उन्हें कानूनी प्रक्रिया के ज़रिए ही खुद को निरपराध साबित करना होगा।
मधु यह जानती होंगी कि बलात्कार या यौन-हिंसा के खिलाफ नए कानून में ऐसी घटना की शिकायत करने के लिए ‘पीड़ित’ को पुलिस में जाने की ज़रूरत नहीं है। यह सही है कि पारिवारिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से ‘पीड़ित’ इसे आगे न ले जाना चाहे, लेकिन किसी ‘जुर्म’ की खबर को न्याय प्रक्रिया से छिपा कर रखना कितना न्यायसंगत है, इस पर कम से कम मधु किश्वर को विचार करना होगा। यह माना जा सकता है कि लड़की के मित्र इस कानूनी पहलू से अनजान हों और अपनी समझ में इस सीडी के जरिए जन समर्थन एकत्र करके उस लड़की की मदद कर रहे हों। यह भी ठीक है कि ऐसी स्थिति में ‘पीड़ित’ को हर तरह का सहारा दिए जाने की आवश्यकता है और उसे रपट दर्ज करने की हिम्मत बंधाना ज़रूरी है। लेकिन ऐसा करते समय वे भूल गए कि न्याय का तकाजा यह है कि वे लड़की की पहचान ही नहीं अभियुक्त की पहचान भी उजागर न होने दें। इसलिए भी कि इसके दो पक्ष हैं ( हालाँकि मैं जानता हूँ कि अब किसी भी मामले का सिर्फ एक ही पक्ष होता है और ने को उसे मानना होता है वरना वह भी अभियुक्त की श्रेणी में डाल दिया जा सकता है) और वे दूसरे पक्ष के बारे में कुछ नहीं जानते। तीसरे, क्या वे यह सोच रहे थे कि खुर्शीद इतने ताकतवर थे कि बिना अभियान के उन्हें कठघरे में खड़ा करना मुमकिन न था? क्या फेसबुक पर और सीडी के जरिए अभियान चलाना एक विवेकपूर्ण निर्णय था और क्या खुर्शीद का खुद उस बहस में उलझ जाना एक विवेकपूर्ण निर्णय था ? सावधानी और सतर्कता के साथ लड़की में विश्वास पैदा करने की कोशिश की जानी चाहिए थी ।
ऐसा जान पड़ता है कि मधु ने इसे लेकर कोई अभियान नहीं चलाया, लेकिन जब उन्हें टीवीचैनल पर बुलाया गया तो सीडी में दिए गए बयान को उन्होंने बार-बार तथ्य की तरह पेश किया।उन्होंने बार-बार कहा कि इस प्रसंग में तथ्य सिर्फ उनके पास हैं। फिर वे कई बार झूठ भी बोलीं। सीडी में किया गया वर्णन तथ्य है कि नहीं, इसकी अभी जांच होनी है। घटना की रात और सुबह के और भी गवाह हो सकते हैं अगर अभियुक्त को आप छोड़ भी दें। मधु किश्वर को न तो योग्यता है और न अधिकार है कि वे अपने कमरे में दिए गए बयानों को तथ्य की तरह पेश करें।
नए बलात्कार और यौन हिंसा क़ानून पर लिखते हुए अभियुक्त के जिन अधिकारों की उन्होंने वकालत की थी, इस प्रसंग में वे स्वयं उन्हें भूल गईं। फिर बयान की रिकॉर्डिंग कराने में भी उन्होंने असावधानी बरती। लड़की अकेले बयान नहीं दे रही है। उसके साथ सात-आठ अन्य लोग भी हैं जिनमें से कुछ घटना स्थल पर नहीं थे। इसे बयान दर्ज करने का सही तरीका किसी तरह नहीं माना जा सकता। खुद मधु किश्वर भी बीच-बीच में कई इशारे कर रही हैं। अगर बयान लेना ही था तो हर किसी के बयान को किसी दूसरे प्रभाव से बचाए जाने की सख्त ज़रूरत थी। खुद मधु को बयान के बीच-बीच में बोलने और घटना को परिभाषित करने की आवश्यकता भी नहीं थी। मेरे ख्याल से अन्य सब के बयान अलग-अलग लिए जाने चाहिए थे। यदि मधु के पास इतना वक्त न था तो उन्हें किसी और धैर्यवान और जिम्मेदार व्यक्ति के पास ‘पीड़ित’ और उसके मित्रों को भेजना चाहिए था। मेरे पास यह मानने का कारण नहीं है कि मधु ने खुर्शीद के खिलाफ कोई साजिश रची। लेकिन यह साफ़ है कि उन्होंने अनधिकार और गलत तरीके से रिकॉर्डिंग की, वक्तव्य को प्रभावित किया और सी.डी. या डीवीडी को सार्वजनिक कर दिया। यह मुजरिमाना लापरवाही थी और इस सीडी ने पूरे भारत में एक विषाक्त माहौल तैयार किया और अभियुक्त ही नहीं स्वयं लड़की के बारे में भी घातक पूर्वग्रह गहरे होने दिए। इसके सहारे खुर्शीद और ‘पीड़ित’ का जो चरित्र हनन किया गया उसका प्रतिकार करने का कोई उपाय उनके पास नहीं था। एक्टिविस्ट दंभ के कारण मधु ने इस संवेदनशील मसले में जो भयंकर लापरवाही बरती और फिर टीवी पर वे जो झूठ बोलीं उसके आधार पर वे खुर्शीद की आत्महत्या के लिए वातावरण बनाने की गुनहगार ज़रूर हैं। वे एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान( सीएसडीएस) में प्रोफ़ेसर हैं। अपनी इस हैसियत और दफ्तर का जो दुरुपयोग उन्होंने किया उसके लिए उनका संस्थान उनसे जवाब-तलब करेगा या नहीं, कानून उनके इस कृत्य को किस निगाह से देखेगा यह दीगर बात है। वे खुद अपनी आत्मा में झाँक कर देखें कि परवर्ती घटना क्रम के लिए वे कितनी जवाबदेह हैं। इस मौत के दाग को अपने दामन से वे छुड़ा नहीं सकतीं।
बाद में खुर्शीद ने पुलिस और फिर अदालत में इस सम्बन्ध में सोशल मीडिया के प्रमाणों के आधार पर मानहानि का मुकदमा दर्ज भी किया जिसकी पहली सुनवाई के पहले ही टीवी चैनलों( खासकर इंडिया टीवी) और फेसबुक योद्धाओं ने इस सी.डी. के आधार पर पहले ही खुर्शीद को अपराधी घोषित कर दिया। खुर्शीद इस सार्वजनिक संगसारी को बर्दाश्त न कर सके और मारे गए।
इस तरह मधु के साथ ये चैनल और सारे फेसबुकयोद्धा इस आत्महत्या के लिए परिस्थिति तैयार करने के दोषी ठहरते हैं।
कहना होगा कि सब कुछ अभी तक आरोप था और न्याय का तकाजा था कि अभियोक्ता और अभियुक्त दोनों के दावों का सख्ती से इम्तहान करके ही इस नतीजे पर पहुंचा जाए कि अपराध हुआ या नहीं। खुर्शीद को इस प्रक्रिया के पहले आरोप से जैसे बरी नहीं किया जा सकता वैसे ही अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता। वैसे ही जैसे उनकी खुदकुशी न उनको निर्दोष साबित करती है और न मुजरिम। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपराध के अनुपात में ही दंड का निर्धारण होता है और दंड का उद्देश्य अभियुक्त को नष्ट करना नहीं होता।
बलात्कार जैसे आरोप के प्रसंग में सामाजिक और सांस्कृतिक कुंठाओं को ध्यान में रखते हुए अत्यंत संवेदनशीलता और सतर्कता के साथ काम करने ज़रूरत है। ऐसा हर प्रसंग लोगों में अश्लील दिलचस्पी पैदा करता है, जिसमें वे ‘घटना’ के एक-एक ब्योरे में चटखारा लेना चाहते हैं और इसमें न्याय की आकांक्षा कहीं नहीं होती। यह भी कि अपराध का अन्वेषण करने की योग्यता हममें से हर किसी के पास नहीं। कितनी भी गई-गुजरी हो, जाँच की योग्यता और अधिकार पुलिस के पास ही है और हमारा काम उसकी मदद करना है और उसे हर साक्ष्य मुहैया कराना है। हम जानते हैं कि ताकतवर अभियुक्त के आगे साक्ष्य की रक्षा कठिन काम है और वह हमें करना चाहिए। लेकिन इससे अलग किसी भी सार्वजनिक माध्यम से इस प्रसंग पर फैसलाकुन तरीके से चर्चा करते रहना कहीं से जिम्मेदाराना काम नहीं है और इससे जांच और न्याय की प्रक्रिया दूषित हो जाती है। यानी हर इन्साफपसंद की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे हर मामले में उत्तेजना पैदा करने से परहेज करे और अंतिम मंतव्य देने से बचे।
पिछले दो सालों में नाम लेने और शर्मिंदा करने की जो राजनीति और प्रवृत्ति विकसित हुई है वह बस इससे संतुष्ट हो जाती है कि किसी ‘ताकतवर’ को सार्वजनिक रूप से बेइज्जत कर दिया गया है। उसकी रुचि इंसाफ में है, ऐसा नहीं दिखाई देता। उसी तरह मीडिया इसी सामाजिक प्रवृत्ति का शिकार है। खुर्शीद अनवर इस शर्मिंदगी की मुहिम के शिकार हो गए।
लेकिन खुर्शीद अनवर की आत्महत्या पर कुछ और कहना ज़रूरी है। खुर्शीद की आत्महत्या के फौरी कारण कुछ रहे हों, वे उस जीवन पद्धति के शिकार हुए जो उनकी थी। क्यों खुर्शीद ने अनर्गल फेसबुक को अपना अनिवार्य संसार बना लेना पसंद किया? क्यों महफ़िलों और नई-नई दोस्तियों में खुद को डुबो कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की कोशिश की? एक ऐसा व्यक्ति जो सिर्फ सार्वजनिक काम ही करता है क्यों एक स्तर पर इतना अकेला और अरक्षित महसूस करने लगता है? क्यों खुर्शीद को इस घटना के प्रकाशित होते ही अपनी नारीवादी मित्रों के पास जाने और उनसे साझा करने का भरोसा नहीं रहा? क्या वे यह मान बैठे थे कि वे अपनी राजनीति के आगे एक पुरुष मित्र की सुनवाई ही नहीं करेंगी? राजनीतिक शुभ्रता और मानवीयता में क्या न पाटने वाली खाई पैदा हो गई है? क्यों हम सब जो सार्वजानिक मसलों पर साथ काम करते हैं एक दूसरे की जाती ज़िंदगी में कोई इंसानी दिलचस्पी नहीं रखते? क्यों हमारा साथी अवसाद में डूबता रहता है और हम हाथ नहीं बढ़ा पाते? क्यों हम सब जो खुद को सामाजिक प्राणी कहते हैं, दरअसल अलग-अलग द्वीप हैं? घनघोर सार्वजनिकता और निविड़ एकाकीपन के बीच क्या रिश्ता है? क्यों हम सिर्फ अपने साथ रहने का साहस नहीं जुटा पाते? क्यों हमें लगातार बोलते रहने की मजबूरी मालूम पड़ती है? क्यों और कैसे हम खुद को हर मसले पर बात करने और राय देने के लायक मानते हैं? क्यों कटुता, आक्रामकता, मखौलबाजी, घृणा और सामान्य तिरस्कार हमारी सामाजिक भाषा को परिभाषित करते हैं?
यही सवाल मैं खुर्शीद अनवर से, जो फेसबुक-संसार के अन्यतम सदस्य थे और खुद जिन पर अक्सर कड़वाहट और आक्रामकता हावी हो जाती थी, पूछता था।
क्यों हम सब इतने क्रूर हो गए हैं कि किसी व्यक्ति को घेर लेने में हमें उपलब्धि का कुत्सित आनंद मिलने लगता है? क्यों हम न्याय के साधारण सिद्धांत को भूल जाते हैं जो कसूर साबित होने तक किसी को मुजरिम नहीं मानता? यह सवाल सिर्फ इस प्रसंग में नहीं, गलत समझे जाने का खतरा उठा कर भी तरुण तेजपाल या न्यायमूर्ति गांगुली के मामले में हमें खुद से पूछना चाहिए। जो शोमा चौधरी की लगभग ह्त्या ही कर बैठे थे, उन्हें भी।
खुर्शीद अनवर एक खूनी पवित्रतावादी धर्म-युद्ध की मानसिकता का सामना नहीं कर पाए। यह मौत किसी साजिश का नतीजा नहीं थी। यह घटना अविवेकपूर्ण, चिर-उत्तेजना में जीने वाले समाज के किसी भी सदस्य के स


