अमलेन्दु उपाध्याय

लगता है ट्यूनीशिया और मिस्र में चली तानाशाही विरोधी जनलहर ने एशिया के अन्य देशों को भी अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। टयूनीशिया तथा मिस्र जैसी आग अब यमन भी पहुंच गई है। मिस्त्र के जनांदोलन ने मध्य एशिया के देशों में नई आशा और विश्वास का संचार किया है और हो सकता है कि आने वाले दिनों में सूडान, सीरिया, टर्की सहित अमेरिकी साम्राज्यवाद के पिट्ठू प्रतिनिधियों को जनता उखाड़ फेंके। ऐसे हालात का सामना अभी कई ऐसे देशों को करना पड़ सकता है जो जनता की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं।
मुबारक की विदाई के बाद पूरी दुनिया में जश्न का माहौल है और इस जन आंदोलन के प्रति समर्थन का वातावरण देखा जा रहा है। भारत में भी उसे देखकर यह समझा जा रहा है कि यहां भी लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं तथा जनता अब भ्रष्ट राजनेताओं की लूट-खसोट को और अधिक सहन करने के लिए तैयार नहीं हैं। अपने देश के युवाओं में भी मुबारक के पतन से नई आशा व विश्वास का जन्म होता हुआ दिखाई दे रहा है और आशा की जा रही है कि यह आक्रोश आने वाले दिनों में भ्रष्टाचारी राजनेताओं के पतन का कारण बनेगा। ठीक इसी समय चल रहे राजा प्रकरण और कलमाडी प्रकरण में कुछ लोग बहुत हसरत भरी निगाहों से मिस्र के धटनाक्रम को देख रहे हैं और कयास लगा रहे हैं कि शायद ऐसी आंधी अब भारत में भी चलेगी और यहां से भी भ्रष्टाचारी नेताओं के तख्त औ ताज गिराने का वक्त आ गया है। मिस्र में भी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक आंदोनकारियों का एक बड़ा हथियार साबित हुई और अब हमारे यहां भी इन्टरनेट को एक बड़े क्रांतिकारी हथियार के रूप में देख जा रहा है। सपना अच्छा है और ऐसे सपने देखने में कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि जब सपने होंगे तभी उन्हें साकार करने के लिए कोई जन उभार खड़ा होगा।
हालांकि न तो मिस्र का जनविद्रोह पूर्णरूपेण मुकम्मल कहा जा सकता है और न उसे भारत के संदर्भ में कोई रोल मॉडल माना जा सकता है। लेकिन इस घटनाक्रम ने एक आशा की किरण तो पैदा की ही है कि शायद भारत में भी ऐसा विद्रोह होगा और ए राजा, मधु कोड़ा, सुरेश कलमाड़ी और बंगारू लक्ष्मण, येदियुरुप्पा सरीखे नेताओं को भागना पड़ेगा। इस आशा में ही इन्टरनेट पर एक नारा लगा ” मनमोहन मुबारक हो“। इस नारे का निहितार्थ समझा जा सकता है। यानी इशारा किया जा रहा है कि मनमोहन सिंह का हश्र भी हुस्नी मुबारक जैसा हो सकता है। लेकिन इस मामले में अभी थोड़ी निराशा ही हाथ लगती है और इसका कारण बहुत साफ है।
ऐसा नहीं है कि भारत की जनता में ऐसी एकता नहीं आ सकती या फिर यहां ऐसे मुद्दों का अभाव है। बल्कि उसका कारण साफ है कि भारत में लोकतंत्र की आड़ में सामूहिक लूट का जो तंत्र विकसित किया गया है वह इतना अधिक मजबूत हो चुका है और जनता इस तंत्र में ऐसे फंस चुकी है कि कम से कम वर्तमान हालात में तो किसी ऐसी चिंगारी या विद्रेाह की आशा करना बेमानी है।
यहां यह समझना होगा कि मिस्र और मध्य एशिया में जो जनआंदोलन हुए वह राजसत्ता की तानाशाही के खिलाफ हुए। ऐसे आंदोलन तो हमारे देश में भी हो ही चुके हैं। देश में आपातकाल के जरिए स्व. इंदिरा गांधी ने देश पर तानाशाही लादी थी लेकिन उन्हें थोड़े ही समय में वापस लोकतंत्र की ओर लौटना पड़ा। इस आपातकाल से सबक लेकर ही हमारे शासनतंत्र ने लूट की एक नई विधा विकसित की और इसे लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान किया। आज लोगों में राजा के खिलाफ गुस्सा है, कलमाडी के खिलाफ गुस्सा है, लेकिन क्या यह गुस्सा किसी जनआंदोलन में बदलेगा? कम से कम आज तो इसका उत्तर न में ही होगा भले ही कल कुछ हो जाए। उसका कारण साफ है। राजा और कलमाडी के खिलाफ जिस गुस्से को उकसाया जा रहा है उसे उकसाने वाले कोई दूध के धुले नहीं हैं बल्कि इस खेल में राजा और कलमाडी से बड़े खिलाड़ी हैं। क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि कारगिल के शहीदों के कफन बेचने वाले, दस हजार रूपए लेकर संसद में सवाल पूछने वाले भ्रष्टाचार या महंगाई के मसले पर किसी जनआंदोलन को हवा देंगे? बिल्कुल नहीं क्योंकि उनका विरोध भ्रष्टाचार को लेकर नहीं है बल्कि हिस्सा न मिलने का विरोध है।
हर जनआंदोलन को किसी नेता की भी जरूरत होती है। अहम सवाल यह है कि क्या भारत में ऐसा नेतृत्व है जो किसी ऐसे आंदोलन की अगुवाई करे? अगर भ्रष्टाचार की आग के शोले उठेंगे तो उसकी आंच तो कांग्रेस और भाजपा दोनों का घर जलाएगी। क्या ऐसा होगा कि इस आग में कलमाडी, राजा, और अशोक चव्हाण तो जलें लेकिन बंगारू लक्ष्मण और येदियुरूप्पा बचे रहें? अगर ऐसा नहीं होगा तो मिस्र को भारत के प्रकाश में देखना बन्द कर देना चाहिए। क्योंकि अब लूट की गंगा में सब डुबकी लगा रहे हैं तो विद्रोह की उम्मीद किससे? क्योकि लूट के इस तंत्र के पोषक दोनों बड़े दल भाजपा और कांग्रेस इस मसले पर एकराय हैं भले ही उनकी लड़ाई दुनिया को दिखती हो लेकिन लूट की इस विधा को बचाए रखने और पोषित पल्लवित करने के लिए दोनों ही एकजुट हैं। फिर कौन किसका विरोध करे?
दूसरे इस नाउम्मीदी के लिए सिर्फ सियासतदानों को कोसने से काम नहीं चलेगा बल्कि हमें अपने गिरेबान में भी झांककर देखना होगा। प्याज 100 रुपए किलो बिक जाता है, अरहर की दाल 100 रुपए किलो बिक जाती है, चीनी 60 रुपए किलो बिक जाती है लेकिन हम खामोश रहते हैं। देश के किस कोने से लोग इस महंगाई के खिलाफ निकले?
ऐसी कोई क्रांति फिलहाल न हो सकने का एक और कारण है। पिछले दो दशक में जो पिज्जा-बर्गर संस्कृति इस देश में पैदा हुई है उसने बहुत बड़ी संख्या में एक नवमध्य वर्ग पैदा किया है जो गरीबों और वंचितों का जबर्दस्त विरोधी है। यह वही वर्ग है जो परमाणु करार के मसले पर मनमोहन और सोनिया के साथ खड़ा था और जहां लोग महंगाई, शोषण और अत्याचार के विरोध में उठते हैं उनके खिलाफ हमारा यही नवमध्य वर्ग लाठी लेकर उनके पीछे पड़ जाता है। विनायक सेन को राजद्रोह में सजा हो जाती है, उस सजा को जस्टिफाई करने वाला तबका कौन सा है? वही न, जो मनमोहन और सोनिया जाओ का नारा देता है लेकिन गरीबों और मजलूमों के पक्ष में उठने वाली हर आवाज का गला घोंटने के लिए उनके साथ खड़ा होता है! फिर जनआंदोलन कहां से खड़ा होगा? और इस व्यवस्था के खिलाफ जो आंदोलन होना चाहिए वह तो चल ही रहा है। उस आन्दोलन के रास्ते से असहमति हो सकती है, उसके हिंसा के रास्ते से असहमति हो सकती है लेकिन उसके कॉज़ के प्रति असहमति सिर्फ और सिर्फ उस व्यक्ति को हो सकती है जो इस लूटतंत्र का समर्थक है।
इसलिए भारत में मिस्र जैसी क्रांति की बात करना फिलहाल बेमानी है और ” मनमोहन मुबारक हो“ का नारा अधूरा है जब तक कि इसमें अडवाणी और येदियुरुप्पा की भी मुबारक बाद न जुड़े।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं। फिलहाल हस्तक्षेप डॉट कॉम के संपादक)