मनुष्यविरोधी असभ्य बर्बर लोग राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते
मनुष्यविरोधी असभ्य बर्बर लोग राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते
मनुष्यविरोधी असभ्य बर्बर लोग राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते।
राष्ट्र मनुष्यता का भूगोल है अंततः, मनुष्यविरोधी असभ्य बर्बर लोग राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते।
मनुष्यता और प्रकृति के हित में मनुष्यता का राष्ट्र बचाने के लिए बेहद जरूरी है कि जो अब भी स्वयं को तमाम अस्मिताओं और पाखंड से ऊपर मनुष्य पहले मानते हों और मनुष्यता के लिए लोकतंत्र के पक्ष में हों, नागरिक और मानवाधिकार के हक में हों, समता और न्याय, सत्य और अहिंसा, सहिष्णुता और बहुलता के साथ प्रेम के भाषाबंधन से भारत तीर्थ को बनाये रखना चाहते हों, वे तमाम लोग गोलबंद हों। जरूरत हो तो नई भाषा, नई विधा, नया व्याकरण रच डालें लेकिन कयामतों के मुकाबले कायनात की बरकतों, नियामतों और रहमतों को बहाल रखने के लिए हर दीवार तोड़कर साथ जरूर खड़े हों।
ऐसे तमाम लोगों के लिए हस्तक्षेप का सिलसिला जारी रखना अनिवार्य है।
अभिव्यक्ति के लिए हम किसी भी तरह का जोखिम उठाने से हिचकेंगे नहीं, लेकिन माध्यम ही फेल हो जाये और झूठ का कारोबार बन जाये तो माध्यम नया बनाने की जरूरत है और आगे बची खुची जिंदगी में अब तक जो दोस्ती जितनी भी कमायी है, उसी का भरोसा है कि कमसकम कुछ दोस्त तो हाथ में हाथ रखेंगे और कुछ मील और साथ चलेंगे, हो सकता है तबतक कयामत का यह मंजर बदल जाये।
संपादकों, प्रकाशकों और आलोचकों की कृपा का मैं मोहताज कभी नहीं रहा क्योंकि हम आम लोगों की बात कहना चाहते थे और सच कहना चाहते थे। हमने दरअसल रचा कुछ भी नहीं है। अखबारों में तब तक लिखा जब तक सच कहने लिखने की इजाजत थी। सिर्फ विज्ञापनों के बीच फिलर बनने के लिए या स्थापित, पुरस्कृत होने के लिए मैंने एक पंक्ति भी नहीं लिखी।
आज फिर जब नेट पर, सोशल मीडिया पर वही पहरा है और अभिव्यक्ति की मनाही है तो बेहतर होगा कि झूठ के कारोबार में शामिल हो जाने के बजाय यहां से भी आहिस्ते-आहिस्ते हट जाऊँ। जब तक हूँ सच के सिवाय कुछ नहीं कहना है।
शायद 20 अप्रैल, 1980 को बिहार के धनबाद से जो अब झारखंड में है, मैंने अखबारों की नौकरी शुरू की थी। 18 मई, 2016 को जब मैं रिटायर करुँगा, तो लगातार 36 साल अखबारों में मेरी नौकरी का सिलसिला खत्म हो जायेगा।
इस पूरी अवधि में मैंने विशुद्ध पत्रकारिता की है। किसी किस्म की दलाली नहीं की और न मैनेजरी। जो सरकार और तेवर मेरे पहली दफा कलम पकड़ते वक्त स्कूली दिनों में थे, उन्हीं के लिए आगे भी आपका सहयोग मिलेगा तो जनसुनवाई का सिलसिला बनाये रखने की हर कोशिश में बने रहने का इरादा है। भले ही मेरी कोई हैसियत नहीं है, लेकिन अपने दिलो दिमाग में जल रही मुहब्बत की लौ जिंदा रखने की भरपूर कोशिश रही है हमारी।
हमें मैनेजर या दलाल न बन सकने का कोई अफसोस नहीं है।
पहरा जुबान पर लगा दें, बंदिशें आजमा कर देख लें, हम खामोश नहीं रहेंगे। हमारी चीखें खामोश नहीं होंगी और हम अभिव्यक्ति का कोई न कोई दरवाजा तोड़कर फोड़कर बनाते रहेंगे उनके अभिव्यक्ति पर हम कुठाराघात के जवाब में, उनके सेंसरशिप के जबाव में, उनके आधिकारिक सूचना की मिथ्या के मुकाबले हम सत्यमेव जयते का अलख जलाते रहेंगे। दुनिया की कोई सत्ता किसी रचना से बड़ी कोई चीज नहीं होती।
सत्ता की इस तानाशाही पर, सूचना पर अंकुश और सच को कैद करने, फांसी पर चढ़ाते जाने के इस महातिलिस्म पर मैं थूकता हूँ।
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