मनुस्मृति के सशक्तीकरण के तहत मनुस्मृति दहन का यह अजब वैदिकी हवन यज्ञ है जो अंततः केजरीवाल, नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी के प्रधानमंत्रित्व में ही पूर्णाहुति प्राप्त होगा।

भारत अमेरिकी राजनय युद्ध का नतीजा- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को टैक्स होलीडे
पलाश विश्वास
25 दिसंबर को देश भर में अंबेडकर अनुयायियों ने मनुस्मृति दहन दिवस मनाया जबकि जिस जाति उन्मूलन के एजेंडे के साथ बाबासाहेब मनुस्मृति को जलाकार प्रतीकात्मक तौर पर जाति व्यवस्था का ध्वँस कर रहे थे, रंग बिरंगे अंबेडकरी और बहुजन आन्दोलन उस एजेंडे को बहुत पहले तिलांजलि देकर अब अपनी-अपनी जाति का वर्चस्व कायम करने में लगे हैं और सत्ता में भागेदारी के तहत वैश्विक कॉरपोरेट जायनवादी मनुस्मृति को ही मजबूत बना रहे हैं।
मनुस्मृति दहन, भोपाल गैस त्रासदी की बरसी में तब्दील है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शिकंजे में छटपटाते भारत का सबसे बड़ा प्रतीक गैस पीड़ित भोपाल है। जबकि हर साल भोपाल गैस त्रासदी मनाते हुये हम निरन्तर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कर रहे हैं। सारा देश, देश के सारे संसाधन देश के नागरिकों के पारमाणविक, रासायनिक, जैविक, रोबोटिर बायोमेट्रिक डिजिटल विध्वँस के लिये। अंबेडकर का नाम जापते हुये हम उन्हीं के जाति उन्मूलन और मनुस्मृति दहन के विपरीत जाति अस्मिता को मजबूती देते हुये जाति के बाहर तमाम वंचितों शरणार्थियों, स्त्रियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और शूद्र किसान समाज, सर्वहारा श्रमिक वर्ग को बहुसंख्य बहुजन आन्दोलन से जोड़ने के कार्यभार को सम्बोधित कर ही नहीं रहे हैं।
हम दो दशक कॉरपोरेट राज के हो जाने के बावजूद यह समझने में अब भी असमर्थ हैं कि कॉरपोरेट राज के रहते समता और सामाजिक न्याय असम्भव है। ठीक उसी तरह जैसे गैर अंबेडकरवादी यह भूल रहे हैं कि धर्मोन्माद आखिर कॉरपोरेट राज का वाहक है। कॉरपोरेट राज के विरोध के बिना धर्मनिरपेक्षता असम्भव है। मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों, पर्यावरण आन्दोलन असम्भव है। जैसे स्त्री अस्मिता के झंडेवरदार यह समझ ही नहीं रहे हैं कि कॉरपोरेट राज में स्त्री की देहमुक्ति असम्भव तो है ही, यहाँ स्त्री देह के अलावा कुछ भी नहीं है और कॉरपोरेट राज ही पुरुष तंत्र का अद्यतन अवतार है। दोनों पक्ष एनजीओ मीडिया प्रायोजित गृहयुद्ध में यह समझने में असमर्थ हैं कि युद्ध धर्मनिरपेक्षता और स्त्री अस्मिता के बीच नहीं है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता और स्त्री अस्मिता के साझे मोर्चे की लड़ाई कॉरपोरेट राज के विरुद्ध है, जिसमें कामयाबी के लिये बहुसंख्य बहुजनों की भागेदारी समस्त सामाजिक शक्तियों और समस्त अस्पृश्य भौगो लिक इकाइयों की मोर्चेबंदी के साथ अनिवार्य है।
हम यह विमर्श शुरू ही नहीं कर पाये हैं और सारे विमर्श रंग-बिरंगे अस्मिताधर्मी खेमों के परस्परविरोधी स्वार्थ पर हो रहे हैं, जो अंततः कॉरपोरेट हित ही साधते हैं।
अंबेडकर के दो मूल मंत्रों को भूलकर अंबेडकरी रंग-बिरंगे नीले झंडे के दावेदार अब सत्ता की चाबी की खोज में आपस में ही मारकाट कर रहे हैं। बहुजन बहुमंजिली शॉपिंग मालों में बहुत भीड़ उमड़ रही है और दुकानों में खूब धंधा हो रहा है। मसीहा और दूल्हों के पीछे लामबन्द बहुजन भारत आज भी मूक है और फतवों के लाउडस्पीकर की भूमिका ही निभा रहे हैं। मनुस्मृति दहन उत्सव के मध्य बामसेफ के तीन-तीन राष्ट्रीय सम्मेलन लखनऊ,पटना और नागपुर में हो रहे हैं। देश भर में दो प्रमुख बहुजन पार्टियों और दूसरी अनेक बहुजन, समता, शोषित, रिपब्लिकन पार्टियों के झंडे के नीचे बहुजनों की भगदड़ मची है। लेकिन न तो जाति उन्मूलन पर कोई चर्चा हो रही है और न अवसरों और संसाधनों के समान बँटवारे पर। बहुजन ही कॉरपोरेट राज के मार्फत जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखल हो रहे हैं और मानवाधिकार, नागरिक अधिकार, कानून के राज और न्याय से वंचित वे ही बहुसंख्य लोग कॉरपोरेट राज के शिकार हैं। लेकिन बहुजन मेधा इसी कॉरपोरेट राज को स्वर्णयुग कहने से अघा नहीं रहा। विनिवेश और निजीकरण से आरक्षण बेमतलब हो गया है लेकिन बाबासाहेब के बनाये संविधान की रोज-रोज हत्या के कॉरपोरेट उपक्रम से बेपरवाह बुजन समाज जो दरअसल जाति व्यवस्था में खंडित विखंडित भारतीय कृषि समाज है, कॉरपोरेट राज के खिलाफ किसी हलचल में है ही नहीं। उलट बहुजन राजनीति आर्थिक सुधारों की जनसंहार नीतियों पर अल्पमत सरकारों को बना शर्त समर्थन देते हुये पिछले दो दशकों से कॉरपोरेट राज को अपराजेय बनाते रहे हैं। अस्पृश्य भूगोल, संविधान जहाँ अभी लागू ही नहीं हुये, ऐसे तमाम आदिवासी इलाकों, अल्पसंख्यकों और मनुस्मृति से सबसे ज्यादा उत्पीड़ित स्त्रियों समेत सामाजिक शक्तियों को गोलबंद करने की कोई सोच ही नहीं है अंबेडकर अनुयायियों में।
ब्राह्मणवाद के विरोध के तहत ब्राह्मणों को और असहमत बहुजनों को ब्राह्मण दलाल करार देने वाले बहुजन वैदिकी कर्मकांड में सबसे ज्यादा निष्णात हैं। धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के सबसे बड़ी पैदल सेनाएं उन्ही की हैं और उत्तर आधुनिक कॉरपोरेट मनुस्मृति राज के तमाम क्षत्रप और संघ परिवार के प्रधानमंत्रित्व के दावेदार भी उन्हीं के क्षत्रप हैं।
बहुजनों के लिये अंबेडकरी विचारधारा, अंबेडकरी संविधान और अंबेडकरी आन्दोलन विमर्श का विषय है ही नहीं और न बहुजन समाज में सत्ता में भागेदारी और अपनी-अपनी जाति, अपने-अपने मसीहा और दूल्हे के प्रवचन के अलावा कोई विमर्श विषय है और न तृणमूल स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक किन्ही दो अंबेडकरी कार्यकर्ता, नेता या संगठन के बीच कोई संवाद की स्थिति है। हर कहीं तानाशाही और फंडिंग का बोलबाला, भेड़धँसान, अंधभक्ति, मूर्ति पूजा के कायदे कानून हैं।
मनुस्मृति के सशक्तीकरण के तहत मनुस्मृति दहन का यह अजब वैदिकी हवन यज्ञ है जो अंततः केजरीवाल, नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी के प्रधानमंत्रित्व में ही पूर्णाहुति प्राप्त होगा।
देवयानी खोपड़ागड़े के मुद्दे पर बहुजनों का जो अमेरिका विरोध का छद्म है, विडंबना यह है कि वह बहुजनों के सामूहिक वध और विध्वँस का सबसे बड़े मंच में तब्दील हो रहा है।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।