मानवाधिकार के हनन के खिलाफ आवाज उठाना हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के लिए राष्ट्रद्रोह है
मानवाधिकार के हनन के खिलाफ आवाज उठाना हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के लिए राष्ट्रद्रोह है
आज सुबह हमारे एक पुराने मित्र, सरकारी अस्पताल के अधीक्षक पद से रिटायर शरणार्थी नेता ने फोन करके कहा कि आप हिंदुत्व के खिलाफ हैं और बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में कुछ भी नहीं लिखते।
उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि आप लोग तो रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में लिखेंगे और असम बांग्लादेश और बंगाल के मिलाकर ग्रेटर इस्लामी बांग्लादेश के एजंडा पर आप खामोश रहेंगे।
उन्होंने दावा किया की वे मरा लिखा सब-कुछ पढ़ते हैं और मेरे तमाम वीडियो भी देखते हैं।
पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों, बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न, शरणार्थी समस्या पर मैं लगातार लिखता रहा हूं जिसे वे हिंदुत्व के खिलाफ राजनीति बता रहे हैं और बंगाल के नस्ली सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ रवींद्र के दलित विमर्श को भी वे गैर प्रासंगिक मानते हैं।
गौरतलब है कि बंगाल के ज्यादातर शरणार्थी नेताओं और आम शरणार्थियों की तरह वे भी हिंदुत्व के झंडवरदार और संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के समर्थक हैं और उन्हें समझाना मुश्किल हैं।
वे सुनते नहीं हैं और न वे पढ़ते हैं बल्कि उन्हें हिंदुओं के खतरे में होने की फिक्र ज्यादा है और राष्ट्रवाद की वजह से हुए युद्ध गृहयुद्ध देश के विभाजन और विश्वव्यापी शरणार्थी समस्या और नस्ली वर्चस्व के फासीवाद नाजीवादके बारे में कुछ बी समझाना मुश्किल है।
विभाजनपीड़ितों के भारत विभाजन और शरणार्थी समस्या के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने की बात समझ में आती है लेकिन नस्ली वर्चस्व के फासीवादी विशुद्धता के हिंदुत्व एजंडे पर किसी संवाद के लिए सवर्ण विद्वतजन उसीतरह तैयार नहीं हैं जैसे वे बहुजनों के जीवन और आजीविका, उनकी नागरिकता, उनके नागरिक और मानवाधिकार और शरणार्थी समस्या पर कुछ भी कहने लिखने को तैयार नहीं हैं।
जाहिर है कि हम उन विद्वतजनों के लिए रवींद्र विमर्श पर यह संवाद नहीं चला रहे हैं। हम उन्हीं को सीधे संबोधित कर रहे हैं, जो नियति के साथ सवर्ण अभिसार के शिकार नरसंहारी संस्कृति के वध्य मानुष हैं।
बहारहाल जो मेरा लिखा पढ़ते हैं और मेरा वीडियो देखते हैं, उन्हें मालूम होगा कि पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों के बारे में, बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न, सलाम आजाद और तसलिमा नसरीन के साथ इस मुद्दे पर लिखे हर किसी के साहित्य पर, शरणार्थी समस्या, नागरिकता कानून, शरणार्थि्यों के देश निकाला अभियान और आधार के बारे में कितना लिखा और कितना कहा है।
पूर्वी बंगाल के विभाजन पीड़ितों के बारे में हमने जिलावार पूरे भारत के हर हिस्से में बसे शरणार्थियों की समस्या पर विस्तार से लगातार लिखा है। लेकिन मेरी चूंकि किताबें नहीं छपतीं और अखबारों, पत्रिकाओं में भी मैं नहीं छपता तो राष्ट्रवाद के प्रसंग में रवींद्र के दलित विमर्श पर विभाजन पीड़ित हिंदुत्व सेना में तब्दील शरणार्थियों की इससे बेहतर प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती।
दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत देश के विभाजन के साथ ही राष्ट्रवाद के नस्ली वर्चस्व आधारित राष्ट्र में राष्ट्रीयता का संकट शुरु हो गया था।
विभाजन के वक्त ही मास्टर तारासिंह ने पूछा था, हिंदुओं को हिंदुस्तान मिला और मुसलमानों को पाकिस्तान, तो सिखों को क्या मिला।
सिखों की राष्ट्रीयता के सवाल पर खालिस्तान आंदोलन और सिखों के नरसंहार के बारे में हम जानते हैं।
आदिवासी राष्ट्रीयताएं आदिवासी भूगोल के अलावा हिमालय क्षेत्र में सबसे ज्यादा हैं लेकिन उनकी राष्ट्रीयता के राष्ट्रीय प्रश्न को संबोधित किये बिना छत्तीसगढ़ और झारखंड आदिवासी राज्य बनाकर आदिवासी भूगोल में गैरआदिवासियों के नस्ली वर्चस्व को बहाल रखकर आदिवासी राष्ट्रीयता के सवाल को और उलझा दिया गया है। इसी तरह उत्तराखंड और तेलंगना अलग राज्य बने और वहां भी आम जनता अपने संसाधनों से बेदखल किये जा रहे हैं।
समस्याओं को बनाये रखकर नस्ली वर्चस्व बहाल करने की यह सत्ता राजनीति है तो निरंकुश कारपोरेट अर्थव्यवस्था का माफियातंत्र भी।
अखंड भारत में हिंदू बहुसंख्यक थे तो भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बनने के बाद इस्लामी राष्ट्रीयता वहां बड़ी राष्ट्रीयता बन गयी। जनसंख्या स्थानांतरण का कार्यक्रम भारी खून खराबे के बावजूद सिरे से फेल हो जाने से भारत में मुसलमान और पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक हो गये।
विभाजन के तुरंत बाद सीमाओं के आर पार अल्पसंख्यक उत्पीड़न शुरु हो गया। पाकिस्तानी इस्लामी राष्ट्रीयता बंगाली भाषायी राष्ट्रीयता के दमन पर आमादा हो गयी तो पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह हो गया और भारत के सैन्य हस्तक्षेप से बांग्लादेश बना।
बांग्लादेश बनते ही फिर इस्लामी बांग्लादेशी राष्ट्रवाद के तहत बांग्ला राष्ट्रवाद के विरुद्ध अभियान और भारत में अल्पसंख्यक खिलाफ हिंदुत्व की दंगाई राजनीति बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और तेज हो गया।
विभाजन पीड़ित हिंदुत्व की पैदल सेना को इस्लामी राष्ट्रवाद का यथार्थ समझ में आता है लेकिन हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद की सीमापार होने वाली भयंकर प्रतिक्रिया की कहानी समझ में नहीं आती।
तसलीमा के उपन्यास लज्जा में हिंदुओं का उत्पीड़न और बांग्लादेश से उनका पलायन से हिंदुत्व की सुनामी बनती है लेकिन बांग्लादेश और दुनियाभर में राम के नाम बाबरी विध्वंस के राष्ट्रवाद की परिणति जो लज्जा की पृष्ठभूमि है, समझ में नहीं आती। दुनियाभर में अंध राष्ट्रवाद के नतीजतन युद्ध गृहयुद्ध और आधी दुनिया के शरणार्थी बन जाने और देश के बीतर जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका रोजगार नागरिक मानवाधिकार से अनंत बेदखली का नस्ली राष्ट्रवाद और मनुस्मति विधान की निरंकुश फासीवादी सत्ता के यथार्थ उन्हें और बाकी नागरिकों को समझ में नहीं आता। वे नरसंहारों के मूक दर्शक हैं और अपनी हत्या के इंतजाम के समर्थक भी।
बंगाल और पंजाब और आदिवासी भूगोल की राष्ट्रीयताएं ही नहीं, बल्कि भारत और पाकिस्तान में कश्मीरियों की राष्ट्रीयता का संकट भी इस दास्तां का भयानक सच है। भारत में शामिल कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर सीमा के आर पार कश्मीरियत के भूगोल के दोनों हिस्सों में आजादी की मांग उठ रही है और भारत में यह मांग हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ है तो पाकिस्तान में इस्लामी राष्ट्रवाद के खिलाफ।
भारत और पाकिस्तान में कश्मीरी राष्ट्रीयता की इस समस्या को सिरे से नजरअंदाज किये जाने के नतीजतन किसी को समझ में नहीं आता कि कश्मीर समस्या हिंदू मुस्लिम राष्ट्रीयताओं का सवाल नहीं है और यह कश्मीरी राष्ट्रीयता की समस्या है, जिसे सीमायुद्ध में तब्दील करने वाले नस्ली राष्ट्रवाद की सत्ता पाकिस्तान और भारत में सिरे से मानने से इंकार करता है और कश्मीर की समस्या का समाधान आज तक नहीं हो सका। यह निषिद्ध विषय है।
मानवाधिकार के हनन का विरोध के खिलाफ आवाज उठाना हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के लिए राष्ट्रद्रोह है उसी तरह जैसे बौद्ध अनुयायी नम्यांमार में बहुसंख्यक बौद्धों की ओर से रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार के खिलाफ खामोश हैं तो हिंदुत्ववादी इस मुद्दे पर चुप्पी के साथ बंगालादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न पर मुखर हैं।
जनसंख्या की इस राजनीति पर हमने पहले चर्चा की है। आगे भी करेंगे।
बंगाल में ही गोरखालैंड आंदोलन गोरखा राष्ट्रीयता बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता अस्सी के दशक से चल रहा है।
अस्सी के दशक में अलग गोरखालैंड राष्ट्र के आंदोलन में हजारों लोग मारे गये। दार्जिलिंग के पहाड़ों को राजनीतिक स्वायत्तता देकर इस समस्या का तदर्थ हल निकाला गया लेकिन नस्ली वर्चस्व की राजनीति के तहत दार्जिलिंग के पहाड़ फिर ज्वालामुखी है और फिर गोरखालैंड का आंदोलन जारी है जो सिर्फ दार्जिलिंग के पहाडो़ं तक सीमाबद्ध नहीं है।
गोराखा राष्ट्रीयता के भूगोल और इतिहास में समूचा नेपाल, उत्तराखंड के गोरखा शासित हिस्से.सिक्किम और भूटान भी शामिल है और महागोरखालैंड का एजंडा भी पुराना है। सत्ता के नस्ली वर्चस्व की राजनीति से यह आग बूझेगी नहीं।
आदिवासी राष्ट्रीयताओं की समस्या को संबोधित किये बिना असम को कई टुकड़ों में विभाजित किया जाता रहा है। लेकिन पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताओं का आपसी विवाद थमा नहीं है।
मणिपुर में नगा और मैती संघर्ष लगातार जारी है तो असम में ही बोरोलैंड को स्वशासी इलाका बनाने के बाद भी अल्फाई अहमिया राष्ट्रवाद, इस्लामी ग्रेटर बांग्लादेश और आदिवासी राष्ट्रीयताओं का गृहयुद्ध जारी है।
इसी तरह त्रिपुरा में आदिवासी राष्ट्रीयता उग्रवाद में तब्दील है।
सत्ता की राजनीति राष्ट्रीयता आंदोलन के उग्रवादी धड़ों का का शुरु से इ्स्तेमाल उसीतरह करती रही है जैसे मेघालय में हाल में भाजपाई राजकाज है और असम में अल्फाई राजकाज है तो त्रिपुरा में फिर वामसत्ता को उखाड़ फेंकने का हिंदुत्व एजंडा है।
कश्मीर में सत्ता हड़पने की राजनीति का किस्सा बंगाल में भी दोहराने की तैयारी के तहत गोरखालैंड बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता के गृहयुद्ध के पीछे भी नस्ली वर्चस्ववाद के हिंदुत्व एजंडे का हाथ है। यह हिंदुत्ववादियों को समझाना मुश्किल है तो सवर्ण धर्मनिरपेक्षता के झंडेवरदार बी राष्ट्रीयताओं की समस्या पर उसी नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के तहत किसी भी संवाद से पिछले सात दशकों से इंकार करते रहे हैं, जिनमें वामपंथी भी शामिल है।
ऐसा तब है जबकि लेनिन, स्टालिन और माओ ने भी राष्ट्रीयता की समस्या को संबोधित करने के गंभीर प्रयास किये हैं।


