परिवारवाद भारतीय राजनीति की बहुत बड़ी बीमारी है
महेंद्र मिश्रा
माफ कीजिएगा ये भारतीय राजनीति का पतन है। उम्मीद थी कि लालूजी पिछली गल्तियों को दुरुस्त करेंगे। लेकिन उनके दोनों बेटों की ताजपोशी के बाद उन संभावनाओं को बड़ा झटका लगा है। एकबारगी मंत्रिमंडल का हिस्सा बनना तो समझा जा सकता है। लेकिन सीधे नंबर दो की कुर्सी? एक ऐसे शख्स को? जिसे विधानसभा और विधायी कार्य का एक दिन का भी अनुभव ना हो। मंत्रालय भी ऐसे जो सूबे के भाग्य और भविष्य तय करें।
बात कत्तई समझ में नहीं आई। ऊपर से एक नहीं दो-दो बेटे। एक बेटे की जगह मीसा भारती को दी जा सकती थी। उससे मंत्रिमंडल में महिलाओं की कमी भी पूरी हो जाती और परिवार का अहम भी तुष्ट हो जाता। लेकिन बेटी के पराये होने और उसके प्रति दोयम नजरिये ने बेटे को प्राथमिकता दी। अगर यह सही है तो स्मृति ईरानी को कैसे गलत ठहराया जा सकता है? लेकिन यह शायद सामंतवाद और पूंजीवाद के बीच का वह दौर है जब जनता से मैंडेट लेकर अपने कुनबे में रियासतों का बंटवारा हो रहा है। ये लोकतंत्र का राजशाही मॉडल है।
परिवारवाद भारतीय राजनीति की बहुत बड़ी बीमारी है। इसके लक्षण स्वतंत्रता के बाद से ही देश में दिखने शुरू हो गए थे। धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और आधुनिक सोच की शख्सियत पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इससे नहीं बच सके। बेटी इंदिरा को उन्होंने अपने दौर में ही राजनीति में स्थापित कर दिया था। उनके प्रधानमंत्री रहते वह कांग्रेस की अध्यक्ष बन गई थीं। हालांकि नेहरू भी मंत्रिमंडल में इंदिरा गांधी के लिए कोई बड़ी जगह या फिर उन्हें सबके ऊपर बैठाने की हिम्मत नहीं कर सके। बावजूद इसके इंदिरा बचपन से ही आजादी की लड़ाई में शरीक थीं। और बाद में सत्ता के लिए उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ी। यह एक इतिहास है। इसके बाद राजनीति में जो गिरावट और मिलावट शुरू हुई उसने कहीं थमने का नाम ही नहीं लिया। बाद में तो कांग्रेस एक परिवार की जागीर हो गई। उसकी इस निर्भरता का ही नतीजा है कि पार्टी राहुल गांधी से इतर देख ही नहीं पा रही है। और 130 साल पुरानी खटारा कांग्रेस का भविष्य इस नौसिखिए चालक के हाथ में है। बार-बार खारिज होने के बाद भी सोनिया गांधी का पुत्रमोह जनता की चाहत पर भारी पड़ रहा है। विडंबना ये है कि कांग्रेस के परिवारवाद के खिलाफ लड़ते-लड़ते विपक्ष भी उसी छुआछूत की बीमारी का शिकार हो गया।
दक्षिण-पश्चिम में शिवसेना से लेकर टीडीपी और डीएमके से लेकर देवगौड़ा तक इसकी नजीर हैं। तो उत्तर में फेहरिस्त बड़ी लंबी है। फारुख अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद सईद, प्रकाश सिंह बादल, सिंधिया घराना, हुड्डा से लेकर भजन लाल और देवीलाल से लेकर बंसीलाल सब सामंती परिवारवादी लोकतंत्र के वाहक हैं। चौधरी चरण की विरासत उनके बेटे अजीत ने संभाली तो चेले मुलायम सिंह ने परिवार का साम्राज्य ही खड़ा कर दिया। बिहार में लालू और जगन्नाथ मिश्र इसको बढ़ा रहे हैं तो उड़ीसा में नवीन पिता बीजू पटनायक की विरासत के हिस्से बने। लेकिन अगर यही इनकी उपलब्धि थी तो सीमा भी यही थी। जो इन्हें अपने सूबे और अपने जातीय समीकरणों से बाहर नहीं निकाल सकी। और बड़ी संभावनाओं वाले ये नेता अपने क्षेत्रों और सामाजिक आधारों तक सीमित होकर रह गए। और इनमें से कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं पनप सका।
इस भ्रष्ट राजनीति और उसके परिवारवाद के खिलाफ जनता ने एक बार फिर कमर कसी थी। और उसने वैकल्पिक राजनीति के नारे के साथ अन्ना आंदोलन का साथ दिया, लेकिन दूरदृष्टि का अभाव और नेतृत्व की बौनी सोच ने उसे महज दिल्ली की सत्ता तक सीमित कर दिया। शायद इसी का नतीजा है कि जनता को मोदी जैसे एक शख्स में भरोसा दिखा, जो विकास की संभावनाओं के साथ कम से कम इस बीमारी से दूर था। उसने अपने घर को छोड़ा था। अपनी पत्नी तक से कोई समझौता नहीं किया (हालांकि उनके प्रति जिम्मेदारी का मसला जरूर एक सवाल है)। मां तक को अपने सरकारी आवास में जगह नहीं दी। जनता के एक बड़े हिस्से में उसके प्रति आकर्षण का यह एक बड़ा कारण रहा। सामाजिक मामले में भी शायद जनता ने जाति के मुकाबले धर्म को बड़ा दायरा माना। इन्हीं चीजों के सहारे देश की राजनीति के शीर्ष पर एक नये किस्म का बौना नेतृत्व पहुंच गया। एक ऐसा नेतृत्व जो गर्भस्थ शिशु को तलवार से काटने वाले बाबू बजरंगी को सरकारी आवास में पनाह देता है। गुजरात दंगे की निंदा की बात तो दूर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर उसका हिस्सा रहा है। जो दादरी जैसी हैवानियत पर चुप बैठ जाता है तथा देश और समाज में साहित्यकारों का मजाक उड़वाना पसंद करता है। पीएम की कुर्सी पर रहते चुनावी राजनीति को किसी भी निचले स्तर पर ले जाने से परहेज नहीं करता है। परिवारवाद के दाग से मोदी को भले बख्श दिया जाए लेकिन उनकी पार्टी इससे दूर नहीं है। बीजेपी में नेता पुत्रों का बोलबाला किसी और के मुकाबले कम नहीं है।
इस मामले में वाम की साख पुख्ता है। शायद ही कोई इस तरह की नजीर मिले। लेकिन वह दूसरे ही अति का शिकार है। जाति के सामाजिक जंगल में वर्ग की सुई ढूंढने और उनके बीच तालमेल बैठाने की कला अभी उनमें आनी बाकी है। जिस हद तक वो इसे कर पा रहे हैं उतनी उन्हें सफलता मिल रही है।
महेंद्र मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार हैं।