मायावती ने गुजरात के दलित असंतोष को यूपी में आने ही नहीं दिया
हरे राम मिश्र
बसपा के अंदर मची भगदड़ अभी थमी नहीं है।
अब खबर है कि एक और बसपाई संघी हो गया है।
बृजेश पाठक को जब बसपा डूबता जहाज दिखने लगा तो वे बीजेपी में शामिल हो गए ।
वैसे भी, दिवालिया हो चुकी कम्पनी का शेयर कोई नहीं खरीदता।
यही नहीं, कई अख़बारों में CSDS का एक सर्वे प्रकाशित हुआ है जिसमें बताया गया है कि मौजूद हालात में यूपी के आगामी विधान सभा चुनाव में BSP तीसरे नम्बर पर रह सकती है।
भले ही यह एक छोटा सा साधारण रुझान है लेकिन BSP के हालात पुरे प्रदेश में कमोबेश ऐसे ही है।
ज्यादातर बसपा प्रत्याशी जिन्होंने विधान सभा चुनाव का टिकट कथित तौर पर ख़रीदा है, अभी भी अपने टिकट को लेकर फु्ली श्योर नहीं हैं।
उनके टिकट कभी भी बदले जा सकते हैं।

वैसे भी, बसपा के नेता कभी भी मौजूदा सरकार के खिलाफ सड़क पर नहीं उतरते।
मायावती ने कार्यकर्ताओं के सड़क पर उतरने, संघर्ष करने की संस्कृति का गला घोंट दिया।
क्योंकि यह कल्चर नेता पैदा करता है। जिसके अपने खतरे मायावती के लिए भी हैं।
इसी कारण बसपा में मायावती के बाद कोई नेता नहीं है।
इस कल्चर ने बसपा को बहुत नुकसान पहुँचाया है और खात्मे के कगार पर ला दिया है।
एक बात और, अगर मायावती चाहतीं तो गुजरात के दलित असंतोष को यूपी में भी हवा दे सकती थीं।
लेकिन इस क्रम में यूपी का सवर्ण वोट उनसे बिदक सकता था।
इसका एक फायदा भी होता कि जाटव वोट से इतर प्रदेश का अन्य दलित तबका मायावती से जुड़ सकता था।

लेकिन मायावती ने चुप्पी साध रखी और गुजरात के दलित असंतोष को यूपी में आने ही नहीं दिया।
अगर मायावती चाहतीं तो इसके सहारे बीजेपी में शिफ्ट हुए दलित वोट को काफी हद तक अपनी ओर आकर्षित कर सकती थीं।
इस तरह सवर्ण वोटों के लालच ने मायावती की बारगेनिंग पॉवर को भी कमजोर कर दिया।
मायावती यूपी में अपनी बहुमत की सरकार बनाने नहीं जा रही हैं क्योंकि सवर्ण वोट इस बार बसपा में शिफ्ट नहीं हो रहा है।
वो एक बारगेनिंग पॉवर भले ही बन सकती हैं और इसी रणनीति पर काम करना चाहिए।
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