हम उन तमाम लोगों की समझ पर भी शर्मिन्दा है, जो मालदा की घटना से गौरवान्वित हो रहे हैं। और उन लोगों की बुद्धि पर भी, जो इस अल्पसंख्यक कट्टरता में बहुसंख्यक कट्टरता के लिए जगह तलाश रहे हैं
रामजी तिवारी
‘ मालदा ’ की घटना के बाद वास्तविक और आभासी दोनों दुनिया से इस तरह की उलाहनाएं सुनने को मिल रही हैं कि इस देश के सेक्युलरों ने अब चुप्पी साध ली है। सोशल मीडिया पर सेक्युलर लोगों को लेकर चलने वाले ताने और तीर मेरे पास भी पहुँच रहे हैं। उनका सवाल सीधा है कि मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ हम जैसे (कथित) सेक्युलर लोग अकसर चुप्पी क्यों साध लेते हैं ...? क्यों नहीं वे उसी तरह का आक्रामक विरोध करते, जैसे कि वे हिन्दू कट्टरपंथियों के मामले में करते हैं ...? उनकी तुष्टिकरण की नीति ने हमेशा से हिन्दू समाज का नुकसान किया है, उसे नीचा दिखाया है। और यह भी कि इसी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के कारण भारतीय समाज में कट्टरता बढती जा रही है।

बेशक कि मेरे जैसा मेल-मिलाप (आप चाहें तो कथित सेक्युलर भी पढ़ सकते हैं ) चाहने वाला आदमी उस तरह से मुस्लिम कट्टरपंथ पर नहीं बोलता, जैसे कि वह हिन्दू कट्टरपंथ पर बोलता है। कारण यह नहीं है कि मैं मुस्लिम कट्टरपंथ से प्यार करता हूँ और हिन्दू कट्टरपंथ से नफरत। कारण यह भी नहीं कि यह मेरी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है, जो मुझे सिर्फ हिन्दू कट्टरपंथ की ही आलोचना के लिए प्रेरित करती है। और कारण यह भी नहीं है कि इससे मुझे सेक्युलर होने का तमगा मिलता है, जैसा कि मेरे साथी लोग अक्सर मुझ पर आरोप लगाया करते हैं।
हकीकत तो यह है कि हमारे जैसे लोग हर तरह के कट्टरपंथ को नापसंद करते हैं, और उसे होते हुए देखना उन्हें भीतर तक सालता है। वे जानते हैं कि भारत जैसे देश में अल्पसंख्यक कट्टरता समाज के ताने-बाने को नष्ट कर रही है। वह इस देश की सामासिक संस्कृति के लिए एक गंभीर खतरे की घंटी है। जानने को तो वे यह भी जानते हैं कि अल्पसंख्यक कट्टरता उस बहुसंख्यक कट्टरता को खाद और पानी मुहैया कराती है, जिसके परिणाम स्वरूप किसी भी देश और समाज में फासीवादी प्रवृत्तियां पनपती हैं। इसलिए वे हर तरह की कट्टरता से नफरत करते हैं, डरते हैं और लड़ते हैं।
उनका साफ़ मानना है कि कट्टरता के खिलाफ लड़ाई में समाज के हर तबके को आगे आना चाहिए। बिना सबके सहयोग के शायद हम इस मुहीम में सफल भी नहीं हो सकेंगे। लेकिन उनका यह मानना भी उतना ही साफ़ और स्पष्ट है कि कट्टरता की लड़ाई से लड़ने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उस समाज के अपने कन्धों पर ही आयद होती है। उस समाज के भीतर से पैदा होने वाली लड़ाई ही, वहां पनपने वाली कट्टरता को सबसे बेहतर ढंग से पराजित कर सकती है।
मसलन दादरी की घटना के बाद जिस तरह से हिन्दुओं के बीच से उसके निंदा के स्वर फूटे, वह इस बात की ताईद थी कि उस समाज में कट्टरता के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों की कमी नहीं है। हम यही चाहते हैं कि मालदा की घटना के खिलाफ भी मुस्लिम समाज के भीतर से ही प्रतिरोध और गुस्से का स्वर सुनाई दे। ख़ुशी की बात है कि ऎसी कुछ आवाजें दिखाई दे भी रही हैं। मगर अफ़सोस ....... ! कि उस समाज के भीतर से कट्टरता के खिलाफ उठने वाली आवाजें उस भारी संख्या में सामने नहीं आ रही हैं, जिसकी मांग यह समय कर रहा है। कारण साफ़ है। एक तो उस समाज के भीतर कट्टरता के खिलाफ उठने वाली आवाजों के लिए जगह बहुत कम बची है। दूसरे यह भी कि वहां पर अपने भीतर झाँकने की प्रवृति भी कम से कमतर होती चली गयी है।
इसीलिए जब हम अपने समाज के भीतर उभरने वाले कट्टरपंथी तत्वों की आलोचना करते हैं, तो हम सिर्फ उस घटना की आलोचना ही नहीं कर रहे होते। वरन उसके साथ-साथ हम अपने समाज में कट्टरता के खिलाफ उठने वाली आवाजों के लिए जगह भी बचाए रखना चाहते हैं। और अपने समाज के भीतर झाँकने की प्रवृति भी।
यकीन जानिये कि मालदा की घटना निंदनीय है, शर्मनाक है, और हम उस पर दुखी हैं। और भी यकीन जानिये कि हम उन तमाम लोगों की समझ पर भी शर्मिन्दा है, जो मालदा की घटना से गौरवान्वित हो रहे हैं। और उन लोगों की बुद्धि पर भी, जो इस अल्पसंख्यक कट्टरता में बहुसंख्यक कट्टरता के लिए जगह तलाश रहे हैं।