मिस्टर मोदी, देश परचून की दुकान नहीं। क्या अब बिग बाजार, एयरटेल और पेटीएम से चलेगी बैंकिंग व्यवस्था?
मिस्टर मोदी, देश परचून की दुकान नहीं। क्या अब बिग बाजार, एयरटेल और पेटीएम से चलेगी बैंकिंग व्यवस्था?
मिस्टर मोदी, देश परचून की दुकान नहीं। क्या अब बिग बाजार, एयरटेल और पेटीएम से चलेगी बैंकिंग व्यवस्था?
महेंद्र मिश्र
मोदी जी देश परचून की दुकान नहीं है, जैसे चाहा उसे चला दिया।
अब समझ में आ रहा है कि आप जवाहर लाल नेहरू के धुर विरोधी क्यों हैं। नेहरू की लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में गहरी आस्था थी, इसीलिए संस्थाओं को खड़ा करना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल था। लेकिन आप मूलतः संस्था विरोधी हैं। आप उनको तोड़ने में विश्वास करते हैं।
लेकिन सच यही है कि बगैर संस्था के लोकतंत्र नहीं चलता।
संस्थाएं लोकतंत्र का हाथ-पांव होती हैं। ऐसे में किसी के संस्था विरोधी होने का मतलब ही उसका लोकतंत्र विरोधी होना है। और आपकी यह सोच कदम-कदम पर दिखती है। नहीं तो किसी दुकान को रातों-रात बैंक घोषित करने के पीछे की क्या वजह हो सकती है?
जो काम आपने बियानी के बिग बाजार को घोषित करके किया है।
बताया जा रहा है कि एयरटेल को भी बैंक का लाइसेंस दे दिया गया है।
एक तरफ माल और दुकान को बैंक बना रहे हैं दूसरी तरफ सालों साल से जनता और किसानों की सेवा करने वाले कोआपरेटिव बैंकों से उनका दर्जा छीना जा रहा है।
जिस काम को करने में रिजर्व बैंक को कितनी कवायदों से गुजरना पड़ता है, उसे आपने चुटकियों में कर दिया।
आपने एक बार भी नहीं सोचा कि इसका अर्थव्यवस्था पर क्या फर्क पड़ेगा। किस तरह से यह पूरे बैंकों के काम-काज को प्रभावित करेगा। उसका आखिरी नतीजा क्या निकलेगा। और अगर उस पर रिजर्व बैंक की पकड़ नहीं रहेगी तो वो कितना मनमानापन करेगा।
बैंकों की अपनी व्यवस्था है। वह लाला की दुकान नहीं है, जैसा चाहा फैसला ले लिया। बैंक एक नियम के तहत चलते हैं और काम करते हैं।
रिजर्व बैंक को अनायास नहीं बैंकों का बैंक कहा जाता है, क्योंकि वो सभी बैंकों को नियंत्रित करने का काम करता है। आपने इस व्यवस्था को एक झटके में हटा दिया।
तो क्या अब बिग बाजार, एयरटेल और पेटीएम से चलेगी बैंकिंग व्यवस्था?
रिजर्व बैंक पूरी तरह से एक स्वायत्त संस्था है, जिसमें सरकार भी सीधे दखल नहीं दे सकती है।
इस उथल-पुथल के दौर में जबकि रिजर्व बैंक की केंद्रीय भूमिका बनती है। न उसके गवर्नर कहीं दिख रहे हैं और न ही उसकी व्यवस्था।
अगर किसी को याद हो तो रघुराम राजन के समय चाहकर भी सरकार अपने मुताबिक फैसले नहीं ले पा रही थी। क्योंकि राजन उन फैसलों के पक्ष में नहीं थे जिनसे जनता को नुकसान हो। और अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचे। यही वजह है कि उनके काल में कोई जनविरोधी फैसला नहीं हो पाया।
अब आपने उस बैंक की कीमत दो कौड़ी की कर दी है और उसकी साख पाताल की ओर है। इसका पूरा असर न केवल अर्थव्यवस्था पर बल्कि रुपये की कीमत और उसकी साख पर भी पड़ेगा।
एकबारगी अगर रुपये की साख गिर गई तो फिर अर्थव्यवस्था को संभाल पाना किसी के लिए भी मुश्किल हो जाएगा।
इन फैसलों के पीछे आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक कारण हैं। दरअसल नोटबंदी के फैसले की सबसे ज्यादा मार छोटे कारोबारियों, व्यवसायियों और दुकानदारों पर पड़ी है। इसने उनकी कमर तोड़ दी है। और यही तबका बीजेपी का परंपरागत आधार हुआ करता था। लेकिन मोदी जी के इस फैसले ने उसको कहीं का नहीं छोड़ा है। इसने जनसंघ के बच्चे को पाला-पोसा और बीजेपी जैसा जवान कर अब सत्ता में पहुंचाया। लेकिन उसको समझ में नहीं आ रहा है कि उसका बेटा उसे क्यों वृद्धाश्रम में भेजने पर उतारू है। उसकी सालों-साल की जमा पूंजी ध्वस्त हो गई। और कारोबार चौपट हो गया। लिहाजा इस आधार का नाराज होना स्वाभाविक है।
ऐसे में बीजेपी को इसके एक विकल्प की जरूरत है और वो कारपोरेट है। उस पर निर्भरता के अलावा उसके पास कोई दूसरा चारा नहीं है। इसीलिए उसने अपनी पूरी ताकत उसके पीछे झोंक दी है।
अनायास नहीं परोक्ष रूप से इस पूरे अभियान का लाभ उसे ही मिल रहा है। और हर संभव जायज-नाजायज प्रत्यक्ष लाभ भी उसे ही देने की कोशिश की जा रही है। वो चाहे जियो के ब्रांड अंबेसडर बनने की बात हो या पेटीएम के विज्ञापन में पीएम की फोटो का इस्तेमाल। या फिर बिग बाजार और एयरटेल को बैंक का दर्जा दिये जाने का मामला।
हर तरीके से मोदी कारपोरेट पर मेहरबान हैं।
अब सरकार बहादुर का नहीं बल्कि अडानी-अंबानी और बियानी का राज है।
लेकिन मोदी सरकार की नोटबंदी का फैसला औंधेमुंह गिर गया है। न कोई तैयारी थी और न ही उसे लागू करने की कोई व्यवस्था। नतीजा सिफर है।
सरकार ने पहले जूता खाया अब प्याज खाने के लिए तैयार है।
पहले नोटबंदी किया अब उसमें ढील दे रही है। कल ही उसने पांच सौ के नोटों को फिर से 15 दिसंबर तक चलाने की छूट दे दी। इस बीच इतनी बार उसे अपने नियमों में बदलाव करने पड़े कि फैसले की चिंदी-चिंदी उड़ गई।
नोटों को बदलने के काम को एकाएक रोक कर सरकार ने गैर खाताधारियों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। इस फैसले से सरकार ने जनता के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार को भी छीन लिया है।
यह हमारी मर्जी है कि हम बैंक में खाता रखें या न रखें। इसको डिक्टेट करने वाली भला सरकार कौन होती है?
तुगलकशाही का नतीजा यह है कि पांच सौ के पुराने नोट से डाटा तो ले सकते हैं लेकिन आटा नहीं। लेकिन कहते हैं कि जब तानाशाही आती है तो उसके पदचांप सुनाई पड़ने लगते हैं। ये सब पाबंदियां उसी की निशानी हैं।
दरअसल मोदी जी के सामने अपने गुजरात का माडल है। हालांकि उसकी कलई मोदी जी के वहां से हटने के दो साल बाद ही खुल गई है।
अगर सचमुच में कोई अर्थव्यवस्था व्यवस्थित तरीके से बढ़ती है तो उसके गिरने में भी सालों लग जाते हैं।
ब्रिटेन का साम्राज्य एक दिन में नहीं गिरा। या फिर अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी गिरावट और मंदी के बावजूद अभी भी सबसे बड़ी और ताकतवर बनी हुई है। और अगले कई सालों तक बनी रहेगी।
लेकिन क्या कारण है कि गुजरात दो सालों में ही धराशायी हो गया। दरअसल उसका विकास संतुलित नहीं था। ऊपरी हिस्से का विकास निचले हिस्से की कीमत पर हुई थी। और जनता को गोलबंद किसी दूसरे गैरजरूरी मुद्दे पर किया गया था। ऐसे में जैसे ही जनता का नशा उतरा और उसको अपनी हकीकत का अहसास हुआ। वो बेकाबू हो गई है। अनायास नहीं पटेल से लेकर दलित और मुस्लिम से लेकर किसान तक सब नाराज हैं।
देश के स्तर पर भी उसी माडल को दोहराने की कोशिश की जा रही है।
लेकिन मोदी जी को एक बुनियादी चीज समझनी चाहिए कि अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक शांतिपूर्ण माहौल का होना जरूरी होता है। मारपीट, दंगा-फसाद, युद्ध और हाहाकार के बीच व्यवसायी निवेश नहीं करना चाहते हैं।
अनिश्चितता तो अर्थव्यवस्था के लिए काल है। और मोदी जी की छवि ऐसी बन रही है कि वो कब और क्या कर दें। किसी के लिए उसके बारे में कुछ भी कह पाना मुश्किल है। राज्य सभा में जाएं और अगले ही पल गायब हो जाएं। इससे राजनीति तो चल जाती है लेकिन अर्थव्यवस्था नहीं। क्योंकि द्रव्य को बहने के लिए जगह चाहिए होती है। राजनीति तो हवा में भी काम करती है।


