विनीत तिवारी
पिछले दो-तीन वर्षों से मिस्त्र में जो हालात बने और बिगड़े हैं, उनके चलते मिस्त्र अब पिरामिडों के देश के तौर पर कम और तानाशाही, बनती-मिटती फौजी सत्ताओं तथा फेसबुक क्रान्ति के लिये ज़्यादा जाना जा रहा है। हाल में वहाँ राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी को हटा दिया गया और फिर एक बार पूरा देश असंतोष की लपटों से घिरा हुआ है। दूसरे मुल्कों की उलझनों से ही अपना खाद-पानी हासिल करने वाले सी.आई.ए., पेंटागन और अमेरिकी-योरपीय साम्राज्यवादी पिट्ठू इन दिनों असंतोष से निपटने में बहुत ज़्यादा व्यस्त हैं।

मिस्त्र के हालात को समझने और भारत में इस बारे में लोगों के बीच सही राय कायम करने के मक़सद से जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ द्वारा ‘‘मिस्त्रः हालिया बदलाव और उनका दुनियावी असर’’ विषय पर पश्चिम एशिया, अरब देश व विदेश नीति के विद्वान साथी क़मर आग़ा के साथ बातचीत-संवाद का आयोजन 7 सितंबर 2013 को दिल्ली में एटक के राष्ट्रीय कार्यालय के हॉल में रखा गया था।

जब इस कार्यक्रम की योजना बनी थी तब मिस्त्र के हालात बहुत नाजुक और अस्थिर थे लेकिन तारीख़ नज़दीक आते-आते सीरिया के हालात मिस्त्र से भी ज़्यादा विस्फोटक हो गये। ज़ाहिर है कि बदले हालात में विषय और बातचीत सिर्फ़ मिस्त्र तक महदूद नहीं रह सकते थे, और न रहे। सीरिया पर भी काफ़ी बातें हुयीं। उनका ज़िक्र भी आगे आया।

क़मर आग़ा ने पश्चिम एशियाई मुल्कों की कुछ ख़ासियतों के ज़िक्र से अपनी बात शुरू की और कहा कि ट्यूनीशिया व मिस्त्र में युवा लोागों की आबादी का प्रतिशत बहुत बढ़ गया था और साथ ही बेरोज़गारी का भी। ट्यूनीशिया में तो यह नौजवान और बेरोज़गार लोग काफ़ी शिक्षित भी थे। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट और इंटरनेट के इस्तेमाल से उन्होंने देश भर में मौजूद ग़ुस्से को एक सामूहिक शक्ल देने की कोशिश की। क़मर आग़ा ने कहा कि जब वहाँ के नौजवान लोगों से हमारी मुलाकात हुयी और उन्होंने अपने मंसूबे बताये तो हमें बड़ा ताज्जुब भी लगा और यकीन तो खैर तब तक कैसे हो सकता था। लेकिन उन्होंने उसे इस्तेमाल किया।

दरअसल, पश्चिम एशिया के मुल्कों के बारे में यह समझना ज़रूरी है कि जब तक साम्राज्यवाद ने वहाँ तोड़फोड़ शुरू नहीं की थी तब तक वे मुल्क काफ़ी हद तक एक जैसे ही थे। उनकी संस्कृति, उनके रिवाज एक जैसे थे, उनके पहनावे भी काफ़ी हद तक मिलते-जुलते थे। अब जो कुछ वहाँ ज़्यादा एक जैसा है, वह है जनता की बदहाली और शासकों की तानाशाही। यह तानाशाही कभी धर्म के नाम पर होती है तो कभी धर्मनिरपेक्ष।

प्रथम विश्वयुद्ध के भी पहले से तेल की वजह से अरब देश दुनिया के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनमें भी मिस्त्र ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के बीच पुल की तरह मौजूद है। गमाल अब्देल नासेर के बाद से लम्बे समय से जो सत्ताएँ मिस्त्र में आयीं, उन्होंने विश्व के दादा देशों के साथ एक तरह की यह नीति ही अपना ली कि उनकी सत्ताएँ लोगों के दिलों से नहीं, बल्कि ख़ौफ़ से चलेंगी। ख़ौफ़ को कायम रखने के लिये उन्हें हथियारों की ज़रूरत होती थी जो अमेरिका और यूरोप के देश देने के लिये हमेशा तैयार रहे, क्योंकि उन्हें बदले में मिस्त्र के तेल पर अपना हक़ चाहिये होता था। यह हाल पश्चिम एशिया और अफ्रीका के उन सभी देशों में लगभग एक से ही रहे जहाँ तेल था। इन देशों ने अपनी कोई तकनीक भी विकसित करने की कोई ज़्यादा कोशिशें नहीं कीं क्योंकि विदेशी कंपनियाँ आकर अपनी तकनीक के सहारे तेल निकाल लेती हैं।

क़मर आग़ा ने कहा कि पिछले तीन-चार दशकों तक लोग दमनकारी और अन्यायपूर्ण नीतियाँ झेलते रहे लेकिन फिर उनका ग़ुस्सा फट पड़ा। लोगों के इस ग़ुस्से को आगे कोई सही दिशा देने वाली ताक़तें मिस्त्र में मजबूत हालत में न होने की वजह से उसका फ़ायदा अपने आप ही मुस्लिम ब्रदरहुड को मिल गया। मुस्लिम ब्रदरहुड 1928 में मिस्त्र में ही पैदा हुआ और इस्लाम का सहारा लेकर आसपास के सभी देशों में पनपता गया। क़मर आग़ा ने इसका अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया कि ऐसा क्यों हुआ कि जहाँ मिस्त्र के गमाल अब्देल नासेर को दुनिया में तरक्कीपसंद और सरमायादारी के विरोध की ताकत माना जाता था, वहाँ जब जनविद्रोह फूटा तो प्रगतिशील ताक़तें गैरमौजूद दिखीं और कट्टरपंथ को बढ़ावा और शह देने वाले ब्रदरहुड संगठन आगे बढ़े। उन्होंने कहा मिस्त्र व उस तरफ़ के बाकी मुल्कों में प्रगतिशील राष्ट्रवाद और इस्लाम की दोनों धाराएँ साथ-साथ चली हैं। इसीलिये मिस्त्र के शिक्षक तालीम देने के लिये अनेक दूसरे देशों में भी गये। लेकिन शीत युद्ध के ख़त्म होने के बाद से तानाशाह हुकूमतों के असर में ये तरक़्क़ीपसंद ताक़तें कमज़ोर पड़ती गयीं और मज़हबी और दक्षिणपंथी ताक़तें या तो हुकूमत की शह पाकर पनपीं या फिर वे अंडरग्राउण्ड हो गयीं। मज़हब का साथ होने की वजह से उनका दान-धर्म का और मज़हबी तालीम के मदरसों का एक संस्थागत ढाँचा मौजूद रहने की वजह से वे भीतर ही भीतर काम करती रह सकीं। यही वजह है कि मिस्त्र में ट्रेड यूनियन का पुराना काम मौजूद होने के बावजूद हम वहाँ से नेतृत्व निकलता नहीं देख पाते। क़मर ने ये भी कहा कि जिन लोगों ने तहरीर चौक के आंदोलन की भूमिका सोची थी, वे विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फ़ोरम) के असर में थे और वे 21वीं सदी में अरब दुनिया में गाँधी को नये सिरे से परिभाषित करने जैसी परिकल्पना के साथ आगे बढ़ रहे थे। उसकी एक वजह यह भी थी कि हुस्नी मुबारक की बेतहाशा मज़बूत और तानाशाह निजाम वाली फौज से हथियारबंद जंग का नतीजा जनता के खून के सैलाब में निकलेगा, इसका उन्हें अंदाजा था। इसलिये उन्होंने सोचा कि नाराज़ लोगों का पूरा हुजूम ही हुक्मरान के खि़लाफ़ हो जाये। मुबारक़ के चालीस बरस के शासन को ख़त्म करके मुहम्मद मोर्सी को सत्ता सौंपी गयी जिसे मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन प्राप्त था। और कोई सामने था ही नहीं। और जनता फिर से फौज को सत्ता नहीं सौंपना चाहती थी। फौज के भीतर के भ्रष्टाचार और फौजी तानाशाही को वे काफ़ी भुगत चुके थे। मुल्क एक दोराहे पर था और दोनों ही रास्ते उस मंजि़ल से दूर ले जाने वाले रास्ते थे जिसकी तरफ़ जनता जाना चाह रही थी।

मिस्त्र में एक तरफ़ पुराने लोकतांत्रिक अधिकारों के आंदोलनों की यादें और प्रेरणाएँ हैं तो दूसरी तरफ़ मज़हब का भी यह आलम है कि वहाँ जो लिबरल भी हैं, वे भी धर्म के दायरे से बाहर नहीं हैं। क़मर आग़ा ने बताया कि तहरीर चौक पर जब आंदोलनकारी आंदोलन कर रहे थे तो वहाँ भी ज़ुमे की नमाज़ अता की जाती थी। नब्बे फ़ीसदी मुसलमान होने के बावजूद वहाँ इस्लाम के शासन की कोई प्रबल आकाँक्षा नहीं है। एक ज़माने में वहाँ महिलाओं का आन्दोलन भी इतना उभार पर था कि ख़ुद नेहरू ने 1930 में मिस्त्र को उद्धृत किया था। सोवियत संघ की मदद से वहाँ उद्योगों का भी अच्छा विस्तार हुआ और राज्य स्वामित्व वाला पब्लिक सेक्टर खड़ा हुआ और अभी तक भी वहाँ प्राइवेट सेक्टर ज़्यादा नहीं घुस सका। वहाँ के लोग जानते हैं कि राज्य का मज़हब पर आधारित मॉडल अब काम नहीं करेगा। अफ़ग़ानिस्तान या पाकिस्तान में भी नहीं किया। मुस्लिम ब्रदरहुड के ख़यालात से भी सभी वाकिफ़ हैं कि वे शासन में आने पर क़ुरान को संविधान का और शरीयत को क़ानून का दर्जा देना चाहते हैं। उनके मुताबिक आधुनिकता बेहद ख़राब चीज़ है और वो समाज को सामन्ती युग में ले जाना चाहते हैं। इसलिये जनता उन्हें भी शासन नहीं सौंपना चाहती। इसके बावजूद जब मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता मुहम्मद मोर्सी को शासन सौंपा गया तो यह समझौता जनता और ब्रदरहुड के बीच था कि वे अपना धार्मिक एजेण्डा जनता पर थोपने की कोशिश न करें। शुरू में तो ब्रदरहुड ने वाकई यह जताया कि उनकी दिलचस्पी लोकतंत्र में है न कि शासन या धार्मिक शासन में। लेकिन 2013 में कुछ कदम ऐसे उठाये गए कि जनता ने ख़तरे को भाँपते हुए मोर्सी को कुर्सी से उतार दिया। इस दफ़ा सेना ने वहाँ एक अहम भूमिका निभायी और सेना प्रमुख ने देश के एक प्रमुख राजनीतिक पद की कमान अपने हाथ में ले ली।

इस मसले को अमेरिका की मौजूदगी और भी उलझा देती है। अमेरिका एक तरफ़ मिस्त्र में अपनी और इज़रायल की पसंद के फौजी जनरल को सत्तासीन करना चाहता है वहीं दूसरी तरफ़ लोकतंत्र की दुहाई देकर सीरिया में बशर-अल-असद की सरकार को गिराना चाहती है।

सीरिया की बात उठने पर सभा में मौजूद मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक सुमित चक्रवर्ती ने कहा कि सीरिया और मिस्त्र के मसले में ख़ास फ़र्क यह है कि मिस्त्र में अमेरिका अपनी पसन्द की सरकार बनाने के लिये भीतरी गुटों को लड़ा रहा है जबकि सीरिया में वह ख़ुद फौजी कार्रवाई के लिये उतावला है। इन दोनों का अर्थ एक ही नहीं है।

इस पर आगे इंस्टीट्यूट के शोध प्रभाग से जुड़ीं अर्थशास्त्री जया मेहता ने सवाल किया कि मिस्त्र में आबादी के जिस हिस्से ने तख़्तापलट को मुमकिन किया, उनकी अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी भावनाएँ कितनी तीव्र हैं। जवाब में क़मर आग़ा ने कहा कि बेशक अमेरिकी साम्राज्यवाद को लोग समझते हैं लेकिन अब मिस्त्र में चीज़ें इतनी सरल नहीं रह गईं। जो अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध भी करते हैं वे धार्मिक कट्टरपंथ को भी सत्ता सौंपेंगे तो भी ग़लत होगा। धार्मिक कट्टरपंथ को सउदी अरब से भी पैसा आता है लेकिन सउदी अरब, अमेरिका के साथ खड़ा होता आया है। वैसे भी मुस्लिम ब्रदरहुड का भर मसला नहीं है, सउदी अरब सहित अन्य अनेक अरब देशों के अपने हित भी पूरे क्षेत्र में काम कर रहे हैं, इज़रायल और फि़लिस्तीन का मसला भी है और हमास, लेबनान, हिज्बुल्लाह, अल क़ायदा की मौजूदगी और आपसी समीकरण किसी तरह की शांति कायम होने की राह में अड़चनें बनेंगे। केवल साम्राज्यवाद विरोध लोगों को आपस में जुड़ने के लिये शायद आज की स्थितियों में काफ़ी न हो।

उन्होंने कहा कि इन सभी वजहों से मिस्त्र में निकट भविष्य में किसी तरह की स्थिरता की उम्मीद की कोई बुनियाद नज़र नहीं आती। यह अस्थिरता केवल उत्तरी अफ्रीका या पश्चिम एशिया के देशों तक रुकेगी नहीं। बल्कि इसके असर अभी भी साफ़ नज़र आ रहे हैं। तेल के दाम बढ़ते जा रहे हैं और हमारी सरकार अमेरिका के पक्ष में खड़ी रहकर उन देशों के मामलों से अपने आपको पूरी तरह दूर रखे है जिनसे हमारा सीधा वास्ता और व्यापार बरसों से रहा है। अमेरिका को नाराज़ न करने की वजह से हम ईरान से तेल नहीं ख़रीदते हुये दूसरी जगहों से महँगा तेल ख़रीद रहे हैं और उसका असर हमारे देश की आबादी पर साफ़ देखा जा सकता है। हमारे लाखों लोग इन देशों में काम करते हैं। काफ़ी लम्बे वक़्त से अरब देशों के साथ हमारा सजीव सम्बंध रहा है। उन्होंने दिलचस्प बात बतायी कि सन 1964 में पाकिस्तान द्वारा रेल मार्ग बन्द कर दिये जाने के पहले तक दिल्ली से लाहौर, क्वेटा और बलूचिस्तान होकर 10-12 रुपये में लोग ईरान से भारत और भारत से ईरान आते-जाते थे। आज भी भारतीय अनेक अरब देशों के समाज व अर्थव्यवस्था के भी उतने ही अहम किरदार हैं जितने हमारे लिये। हमारा 30 करोड़ डॉलर का कारोबार इन देशों के साथ है लेकिन हमारी सरकार झुकती है अमेरिका की तरफ़।

इस पर दिल्ली साइंस फोरम के जय प्रकाश एन. डी. ने कहा कि भारत को इन आसन्न युद्धों से इतना ख़तरा है तब भी हमारी संसद में चले हालिया सत्र में किसी भी पार्टी ने यह मुद्दा नहीं उठाया कि सीरिया या मिस्त्र में चल रही उथल-पुथल में हम क्यों अमेरिका के पीछे चल रहे हैं जबकि न तो वह सही है और न ही यह किसी भी तरह देश के हित में है। केवल कुछ पार्टियों ने बयान जारी किये जो मसले की गम्भीरता को देखते हुये नाकाफ़ी हैं। इसी कड़ी में जेएनयू की शोध छात्रा साना ने मिस्त्र व अरब देशों में महिलाओं की स्थिति पर संक्षिप्त जानकारी दी।

इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट में अध्ययनरत सौम्या जैन ने भी अमेरिकी मंशाओं के पीछे की वजहें और तेल व गैस की राजनीति के अन्तर्सम्बंध जानने के लिये कुछ सवाल उठाये। शांति एवं एकजुटता संगठन के प्रो. सी. सदाशिव ने इराक़ पर हुये पहले अमेरिकी हमले के वक़्त 1991 में देश में हुये युद्ध विरोधी प्रदर्शनों को याद करते हुये कहा कि अब इस तरह के सवालों पर जनता में से कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं आती है। इसके कारणों को समझते हुये इन सवालों पर जनता के भीतर नये तरह से काम की ज़रूरत है।

सभा की शुरुआत में जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो. अजय पटनायक ने विषय पर रोशनी डालते हुये कहा कि दस करोड़ की आबादी वाले इतने बड़े मिस्त्र में जो राजनीतिक घटनाएँ घटित हुयी हैं, वे दरअसल हमें बताती हैं कि मिस्त्र में जन असंतोष को दक्षिणपंथी ताक़तें अपने हक़ में इस्तेमाल कर रही हैं।

इंस्टीट्यूट के सह निदेशक प्रो. सुबोध मालाकार ने संक्षेप में मिस्त्र के राजनीतिक इतिहास व सामाजिक संरचना के बारे में बातें रखीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय सचिव कॉमरेड अमरजीत कौर ने भारत व अरब देशों के सम्बंधों, अमेरिका की दोहरी नीतियों और भारतीय शासक वर्ग की अमेरिकापरस्त नीतियों के बारे में अपनी बातें रखीं। आभार व्यक्त करते हुए जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट के विनीत तिवारी ने कहा कि सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की आकाँक्षा में जिन परिवर्तनकामी शक्तियों ने कोशिशें की हैं, उनका समर्थन आधार बढ़ाना और भारत सरकार पर युद्ध विरोधी भूमिका अपनाने के लिये दबाव डालने के कार्यक्रम को तीव्र करना ऐसा काम है जो भारत में रह रहे सभी संवेदनशील लोगों को मिलजुलकर संगठित व सुनियोजित रूप से बढ़ाना होगा।