मुंबई 1993 से 2011 तक
मुंबई 1993 से 2011 तक
पुण्य प्रसून बाजपेयी
1993 से 2011 तक के दौर में देश में सबकुछ बदल गया । 1993 में देश में माफिया और अडंरवल्र्ड रेंगता था । 2011 में कारपोरेट और नीजि कंपनियों का बोलबाला है । उस दौर में अंडरवर्ल्ड के निशाने पर रियल इस्टेट था तो अब रियल इस्टेट का घंघा ही अंडरवर्ल्ड ने संभाल रखा है । 1993 में कामगार-मजदूर का संघर्ष था तो दत्ता सांमंत की यूनियन भी थी । 2011 में उघोगों बंद हो चुके है , ताले लग चुके हैं और बाजार ही सबसे बडी इंडस्ट्री है तो कामगार मजदूर की जगह बिचौलियों और दलालों की भरमार है। महाराष्ट्र की इम्पेरस मिल की इमारतों में माल और आधुनिक रिहाइश का फैशन चल निकला है। और देखते देखते सियासत का रंग भी इन 18 बरस में कुछ ऐसा बदल गया कि 1993 में देश के वित्त मंत्री 2011 में ठसक और मजबूती के साथ देश की कमान थामे बीते सात बरस से प्रधानमत्री है ।
लेकिन इस दौर में अगर कुछ नहीं बदला है तो वह मुंबईकर की फितरत है। 1993 में दुनिया ने पहला सीरियल ब्लास्ट भी मुबंई में ही देखा। तब एक के बाद एक कर सात ब्लास्ट के पीछे उस सियासी प्रयोगशाला की आग थी जिसने लोगो को घर्म के खांचे में ऱखना शुरु किया था। और अंडरवर्ल्ड ने इसी सियासी पारे में अपने मुनाफे को अंजाम दिया और सौदेबाजी सीमापार से की। और 18 बरस बाद अंडरवर्ल्ड की जगह टैरररिस्ट ने ली । मगर बदला कुछ नहीं। निशाने पर फिर मुंबई ही आयी। वही सीरियल ब्लास्ट। वैसे ही खून से लथपथ झावेरी बाजार और दादर । मौतों में अपने परिजनो को खोजते-भटकते वैसे ही लोगो का हुजूम। और गुनाहगारों को सजा देने के वैसे ही वायदों के बीच खाली हाथ दिखाने की सरकारी फितरत।
दरअसल, बड़ा सवाल यही से खड़ा होता है कि बीते 18 बरस में अगर ब्लास्ट मुबंई की पहचान बना दी गयी , आंतकवादी हिंसा सियासी सौदेबाजी के दायरे में आ गयी और समूचा तंत्र फेल नजर आने लगा है तो फिर देश का रास्ता जाता किधर है। क्योंकि इस दौर में आर्थिक सुधार की जिस धारा ने अंडरवर्ल्ड को सतह पर ला दिया और विकास का तंत्र ही उस माफिया मंत्र को अपनाने लगा जहा सार्वजनिक सेक्टर की जगह कारपोरेट और निजी कंपनियों ने ली । माफिया और अंडरवर्ल्ड के जो तार बाहरी दुनिया से जुडकर अपने मुनाफे का रास्ता गैरकानूनी तरीके से बनाते-बढाते थे वही रास्ता 2011 में ना सिर्फ कानूनी हो गया बल्कि मारिशस, मलेशिया और यूएई के जरीये हवाला रैकेट की नयी थ्योरी ने देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर विकास नीतियो को भी अपनी गिरफ्त में लिया और देश की खुशहाली मापने वाले शेयर बाजार का सेंसक्स भी उसी विदेशी निवेश से घडकने लगा जो अंडरवर्ल्ड के कारपोरेटीकरण का मुनाफा तंत्र है । यानी आंतक का साया इक्नामी पर हमला करें तो कानूनी है लेकिन सिरियल ब्लास्ट की शक्ल में सामने आये तो चाहे गैरकानूनी हो मगर उसे रोकने की जो नैतिकता चाहिये, वह कहां से आयेगी यह सवाल जरुर इस वक्त देश के सामने है। क्योंकि इस वक्त भी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच चल रही है और सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काम कर रही सीबीआई, सीबीडीटी और ईडी की रिपोर्ट बताती है मुनाफा बनाने के खेल में किस तरह देश को चूना लगाकर करोडों के वारे न्यारे किये जाते है और उसे ठीक वैसे ही फंड ट्रांसफर का नाम दे दिया जाता है। जैसे 1993 में सीरियल ब्लास्ट का मुख्य आरोपी अंडरवर्ल्ड डान दाउद इब्राहिम 2011 में यूएई की कंपनी एतिसलात के जरीये भारत की नीतियो में सेंघ लगाता है। सीबीआई की रिपोर्ट जब एतिसलात कंपनी के पीछे अंडरवर्ल्ड के तार देखती है तो सवाल यह भी खडा होता है कि जिस देसी कंपनी स्वान को लाइसेंस भारत के कैबिनेट मंत्री 1537 करोड में 2 जी लाईसेंस बेचते हैं। और चंद दिनो बाद ही स्वान करीब 4200 करोड में 45 फीसदी शेयर यूएई के एतिसलात को बेच देता है तो फिर मामला सिर्फ घोटाले का नहीं होता और कानूनी तौर पर आपराधिक या आतंक के दायरे में समूची कार्रवाई क्यों नहीं हो रही। इसी तरह यूनिटेक वायरलैस को स्पेक्ट्रम का लाइसेंस डीओटी से 1661 करोड में मिला और यूनिटेक ने नार्वे के टेलेनोर को 60 फीसदी शेयर 6120 करोड में बेच दिये। टेलेनोर के पीछे भी हवाला और मनी लैडरिंग की वहीं कहानी जांच में सामने आ रही है जो अंडरवर्ल्ड ने एतिसलात में अपनायी। इतना ही नहीं 1993 से 2011 के बीच देश में ढाई हजार से ज्यादा ऐसी निजी कंपनियां खड़ी हो गयी, जिनकी अपनी इकनॉमी विदेशी निवेश पर ही टिकी है। यानी हर कंपनी के तार किसी ना किसी विदेशी कंपनी से जुड़े हैं और विदेशी कंपनी का प्रोफाइल बार बार उसी दिशा में समूचे धंधे को ले जाता है जहां अंडरवर्ल्ड इकनॉमी का काला धंधा सफेद होता दिखता है।
अगर सीबीडीटी और ईडी की विदेशी कंपनियो के भारत के साथ गठजोड़ की रिपोर्ट को ही देखे तो बारस सौ विदेशी कंपनियां ऐसी हैं जो भारत की ही निजी कंपनियो के जरीये चलती हैं। यानी हवाला और मनी लैडरिंग का तंत्र ही कैसे देश में निजीकरण को आगे बढाता है यह उसकी कहानी है। वहीं सिर्फ दाउद इब्राहिम ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग अलग देशो के सौ से ज्यादा अंडरवर्ल्ड खिलाड़ियों ने कारपोरेट धंधे के जरीये अपने रंग को बदला है। और उनके तार भारत की खुली अर्थव्यवस्था के बाजार में लगातार सेंघ लगा रहे हैं। असल में आतंक की तस्वीर 1993 की हो या फिर 26/11 या फिर अब 2011 की । हर के तार पाकिस्तान में ही जा कर रुकते है और आतंक का सच यह भी है अंडरवर्ल्ड के बाद जो पहला आंतकी हमला कश्मीर के विधानसभा से होते हुये लालकिले और फिर संसद तक पहुंचा और उसके बाद हर शहर , हर सूबे को गिरफ्त में लेता चला गया, उसके सामानांतर सरकार के लिये भी पहले दाउद और फिर आतंकवादी संगठन लश्कर या जैश पाकिस्तान के साथ सौदेबाजी के दायरे में ही आये। यानी भारत कभी इसके लिये तैयार नहीं हुआ कि आंतक के साये को अपनी सुरक्षा व्यवस्था और नीतियों से नेस्तानाबूद करेगा बल्कि पाकिस्तान के साथ बातचीत की मेज पर पड़ोसी का धर्म निभाते हुये अपनी विदेश नीति को भी उसी दिशा में मोडा जहा पाकिस्तान के लिये ही आंतक के जरीये खुद को मजबूत करने और बताने का मौका मिला।
1993 से 2011 के सफर में भारत कैसे संप्रभु बाजार बना और कैसे इस बाजार को बनाये रखने के लिये सरकार की नीतियों ने शांति बनाये रखने की नीतियो को अमल में लाना शुरु किया यह भी किसी आतंकी हमले से कम त्रासदी वाला नहीं है। क्योंकि सुरक्षा का सौदा अमेरिकी बाजार से गढजोड़ में उभरा और अफगानिस्तान में अरबों रुपया बिना लक्ष्य के झोकने से भी सामने आ रहा है। और इन सबके बीच 26/ 11 के बावजूद पाकिस्तान के साथ महज सीबीएम यानी भरोसा जगाने के लिये बातचीत की अनोखी शुरुआत भी हुई। यानी एकतरफ खुद को बदलता हुआ दिखाना और दूसरी तरफ मुबंई के झावेरी बाजार से लेकर दादर के कबूतरखाने के इलाको को दांव पर भी लगाना और बाजार को उसी आंतक से धंधा करने वाली विदेशी कंपनियो को जगह भी देना। दोनो खेल साथ साथ चल नहीं सकते। यह सीख अमेरिका भी देता है और ब्रिटेन भी। लेकिन भारत इस सीढी पर क्यो पिसल जाता है यह ,समझने के लिये किसी जांच की जरुरत नहीं है बल्कि नीतियों के उस तंत्र को तोडने या कहे बदलने की जरुरत है जहां मंदी की चपेट में आकर डूबने से ठीक पहले लिहमैन ब्रदर्स का अरबों रुपया भारत पहुंचता भी है। और मंदी आने के बाद जो पूंजी नहीं पहुंच पायी, उसे दूसरे माध्यमों से मैनेज भी किया जाता है। और सरकार विकास की लकीर इन्हीं माध्यमों से खींचने में नहीं कतराती। और दूसरी तरफ पाकिस्तान को मुश्किल पड़ोसी मान कर बर्ताव भी एक आदर्श पडोसी बन कर करती है। लेकिन यह एहसास नहीं जागता कि विकास अगर डॉलर या यूरो से नहीं हो सकता तो फिर झावेरी या दादर में सिरियल बलास्ट भी उन्हीं जांच एंजेसियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता जिनकी रिपोर्ट भी सत्ता को सहलाती है या पिर कडक होने पर तंत्र ही अधिकारी को बाहर का रास्ता दिखा देता है । इसलिये ना तो झावेरी में सोने और हीरे का धंधा करने वालो की फितरत बदली है और ना ही देश को चकाचौंघ के सपने दिखाने का सब्जबाग।


