मुक्त बाजार का रंग अब केसरिया है, महामंदी के बाद अब महालूट का ताजा बंदोबस्त इराक
मुक्त बाजार का रंग अब केसरिया है, महामंदी के बाद अब महालूट का ताजा बंदोबस्त इराक
पलाश विश्वास
महामंदी के बाद अब महालूट का ताजा बंदोबस्त इराक। कठिन फैसले इसी बहाने होंगे और कानून भी सारे बदले जाएंगे। राजकाज होगा अब युद्धक बमवर्षक।
मुक्त बाजार का रंग अब केसरिया है, क्योंकि सत्ता का रंग केसरिया है।
बांगाल में भले ही दीदी हरा हरा या सफेद नील कर दें, लेकिन मानसून घाटे में झुलसी रोटी के देश में इंद्रधनुष भी अब केसरिया है।
गंदी बस्तियों और भूख के महानगर में बिलियन बिलियन डालर के हवामहल की तरह रिलायंस-रिलांयस है यह देश।
पूरा देश ब्राजील है। जहां फुटबाल फाइनल देखने जायेंगे अपने प्रधानमंत्री और जहां कोई भारतीय टीम नहीं है। जैसे दीदी का केकेआर जश्न कोलकाताई, जहां केकेआर में कोलकाता का कोई खिलाड़ी नहीं।
उन्मादी कार्निवाल है। सारे लोग नंगे हैं। मुखौटे से चेहरे की तस्वीर नहीं निकलती। अड़ोस-पड़ोस वालों को भी पहचानना मुश्किल कि कौन किस भूमिका में है। सत्ता वर्ग के लिए सोने पर सुहागा समय है और आम लोगों के लिए, भारत ही नहीं इस शैतानी विश्वव्यवस्था के मातहत तीसरी दुनिया के देशों में जिंदगी अब तेलकुओं की आग है। दुनिया भर के बाजारों की नजर इराक पर टिकी है, जहां युद्ध की स्थिति बनती जा रही है। इराक ने कल पहली बार अमेरिका से आधिकारिक तौर पर मदद मांगी है। इराक ने अमेरिका से आतंकियों पर हवाई हमले करने की अपील की है। इसके अलावा अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने संकेत दिए हैं कि ब्याज दरें में उम्मीद से कम स्तरों तक बढ़ाई जाएंगी।
बांग्लादेश में तो बुधवार को तेलकुएं की बेदखली की खबर मिलते ही गैस सिलिंडर एक मुश्त बारह सौ रुपये महंगे हो गये।
डीजल विनियंत्रण और तेल सब्सिडी खात्मे का बजट से पहले बहाना अच्छा मिला है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेलाइन अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कठिन फैसले के एजंडे का पहले ही खुलासा कर दिया है।
यह धार्मिक देश बेहद आस्थासंपन्न है।
बहुत अंध भक्ति है।
नाना प्रकार के कर्मकांड है।
तंत्र मंत्र यंत्र हैं।
सूचना हो या न हो, मोबाइल ऐप्स हैं और पढ़े लिखे लोग ऑनलाइन।
होम, यज्ञ, अभिषेक, माल्यार्पण, योगाभ्यास का यह सुसमय है।
मनमोहिनी जनसंहारी नीतियों को महामंदी की आड़ मिल गयी थी, जिसका खामियाजा हम लोग लगातार दस साल तक भुगतते रहे।
खाड़ी युद्ध और सोवियत पतन के जुड़वां प्रहार से भारत की कृषि आधारित देशज उत्पादन प्रणाली इराक और अफगानिस्तान की तरह ध्वस्त ही नहीं हो गयी, बल्कि पूरा देश अब जायनवादी युद्धक अमेरिकी अर्थव्यवस्था के गुलाम उपनिवेश में तब्दील है।
नवउदारवादी युग शुरु होने के वक्त ही पहले खाड़ी युद्ध की शुरुआत और सोवियत पतन से पहले जब मैंने अमेरिका से सावधान शीर्षक से औपन्यासिक जागरुकता अभियान चालू किया, तब हमारे प्रगतिशील क्रांतिकारी मित्र सोवियत साम्राज्यवाद के खिलाफ लामबंद थे और अमेरिकी साम्राज्यवाद को कोई खतरा नहीं मान रहे थे। उस उपन्यास को कलाहल और चीत्कार बताकर खारिज भी किया जाता रहा।
अब तो वाम का आवाम से कोई वास्ता नहीं।
अब भी बेदखली के बावजूद आवाम की फिक्र नहीं, सत्ता में वापसी के समीकरण साध रहा है कांग्रेस-कांग्रेस हुआ वाम।
विचारधारा गयी तेल लेने।
लाल भी केशरिया तो नीला भी। जो हरा है, उसकी गहराई में फिर वही केसरिया।
शक होता है कि रगों में जो खून है कि वह भी केसरिया हुआ जाय रे।
आदरणीय डा.अशोक मित्र और सोमनाथ चटर्जी चेहरे बदलकर वाम की बहाली चाहते हैं लेकिन बहिष्कृतों, अछूतों के हक में कोई लफ्ज नहीं है उनकी जुबान पर फिर भी।
गनीमत है कि साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया से बाहर निकल जाने की वजह से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा।
अब भी हम कोशिश में हैं कि लाल में हो कुछ नीला, नीला में हो कुछ लाल, लाल नील सम्मिलन से केसरिया सुनामी के खिलाफ पैदा हो कोई चटख लाल सुबह।
जाहिर है कि यह प्रयत्न भी अमेरिका से सावधान है।
संगीन असहाय गुलाम परिस्थितियों के खिलाफ खंड-खंड-खंडित केसरिया रिलायंस देश में एक मरणासण्ण चीत्कार, बस।
अब पता चला है कि मजीठिया महिमा से पेरोल वाले मीडियाकर्मियों को, दशकों से प्रमोशन वंचित तबके को दशकिया औसत एक हिसाब से प्रोमोशन भी मिलेगा बशर्ते कि सर्विस बुक क्लीन हो।
बास ने पहले ही बांस कर दिया हो तो मिलेगा बाबाजी का ठुल्लु।
अब रिटायर समय में हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
घर अब पचास लाख का मामला है।
गंगासागर में भी एक कट्ठा जमीन अब पांच-पांच लाख रुपये का है।
मरुस्थल और रण, हिमालय के चप्पे-चप्पे में प्रोमोटर बिल्डर राज है, क्या मजाल की कहीं घर बनाने लायक जमीन नसीब है।
अब तो कब्र के लिए भी दो गज जमीन मिलना मुश्किल है।
किश्तों में जो एरियर मिलेगा, उससे पुनर्वास असंभव है तो भविष्यनिधि से मिलने वाली दो हजार रुपल्ली से जीवन यापन भी मुश्किल है।
अब बचने का उपाय है कि कहीं किसी पार्टी में शामिल होकर संसद विधानसभा की चाकरी जुटा ली जाये या किसी कमिटी वौमेटी में शामिल हो लिया जाये।
सभी लोग राम विलास पासवान और उदित राज भी नहीं हो सकते।
न बंगाल के बुद्धिजीवियों कलाकारों की तरह गिरगिट बन जाना संभव है हर किसी के लिए।
दशकों बाद गांव लौटकर वहां पहले से मुश्किल में फंसे लोगों के बीच पहले पट्टीदारी उलझनें सुलझाने की विषम चुनौती है।
घर से निकलना बेहद आसान है। जाहिर है, घर में वापसी सबके नसीब में नहीं होती। फिर जो तामझाम है, उसे लिए बिना गांव जा ही नहीं सकते। उस तामझाम का स्थानांतरण भी कठिन है।
फिर इस देश के महानगरों, नगरों, उपनगरों में लावारिस मरने या मारे जाने के अवसर अनेक हैं, रोजगार और आजीविका के हों न हों।
मनरेगा तक को इंफ्रास्ट्रक्चर में खपाया जा रहा है। खाद्यसुरक्षा का भी काम तमाम।
यह ऐसा ही है कि जैसे अस्सी साल के पंगु पुरुष को युवा दुल्हन के साथ सुहागरात मनाने के लिए कमरे में बंद कर दिया जाये। फिर भी गनीमत है कि छंटनी के बाद बाकी बचे इने गिने कर्मचारियों को यह वेतनमान नसीब हो रहा है संशोधित।
अब कोई वेतनमान नहीं लगनेवाला है।
विनिवेश तेज हो रहा है। सात सार्वजनिक उपक्रमों का बंटाधार फिलहाल तय है, जिसमें टाप पर हैं कोल इंडिया और सेल।
बैंकिंग, डाक, रेलवे, परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा, डाक, जीवन बीमा, विमानन, बंदरगाह, मीडिया, संचार सभी क्षेत्रों में स्थाई नियुक्तियां खत्म हो रही हैं।
हालांकि बचे हुए लोगों को करों में इफरात छूट भी मिलने की संभावना है जैसे बेसरकारीकरण के बाद तमाम कंपनियों के अफसरान के वेतन बढ़ा दिये गये।
डीजल का विनियंत्रण तेल और गैस कीमतों में अंधाधुंध वृद्धि के साथ सब्सिडी की विदाई तय है और बेदखली के लिए कारपोरेट आधार योजना भी जारी रहना है।
धारा 370 और समान नागरिकता संहिता के खात्मे पर बेमतलब बहस चालू करके धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का आवाहन फिर किया गया है और चुपके-चुपके समूची कर प्रणाली बदल दिये जाने की तैयारी है ताकि छिनाल पूंजी का कातिलाना खेल अबाध रहे और निरंकुश हो कालाधन वर्चस्व। लोकसभा में स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा के समीकरण भी साध लिये गये।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम और खनन अधिनियम के जिन प्रावधानों पर कारपोरेट ऐतराज है, वे हटा दिये जायेंगे।
अनाज और प्याज के आयात निर्यात का पवारी खेल बदस्तूर जारी है।
प्याज हमेशा की तरह रुलाने वाली है तो आलू के बिना रहेगी रसोई।
खाद्य तेल से लेकर पेयजल, दूध से लेकर सब्जी तक महंगी होगी।
शिक्षा और चिकित्सा आम लोगों की औकात से बाहर होगी और परिवहन बिल से लेकर मकान किराया, बिजली बिल के भारी दबाव में दम तोड़ेंगे लोग।
उर्वरकों की कीमतें रिवाइज होंगी और सारे खेत इंफ्रास्ट्राक्चर के नाम,विकास के बहाने रियल्टी में तब्दील होने को है।
सोना उछलेगा बेहिसाब।
देहात में शहरों का अतिक्रमण होगा।
प्रतिरक्षा, मीडिया, खुदरा कारोबार से लेकर हर क्षेत्र में वित्तीय घाटा और भुगतान संतुलन के बहाने शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे खुल्ले होंगे।
किसी परियोजना के लिए पर्यावरण हरी झंडी की जरूरत नहीं होगी।
सारा खेल रिलायंस होगा।
सारे श्रम कानून बदल दिये जायेंगे।
हमारे हिसाब से ताजा इराक संकट संकट नहीं, मुनाफाखोर कारपोरेट सत्तावर्ग के लिए संकटमोचक है जैसे कि महामंदी के दौर में हम बार-बार कह रहे थे कि शेयर बाजार देश की अर्थव्यवस्था का पर्याय नहीं है।
विदेशी और संश्तागत निवेशको की मुनाफावसूली के खेल में जितनी उछल कूद होगी शेयर बाजार में उतनी ही नेस्तनाबूद होती जायेगी जनता।
पूरी अर्थव्यवस्था क्रयशक्ति निर्भर सेवा क्षेत्र है या फिर पोंजी स्कीम जिसमें आम लोगों का पैसा डूबना तय है और कोई मुआवजा नहीं मिलेगा।
सेबी ने जनता की गाढ़ी कमाई कारपोरेट जेबों में डालने के हर संभव उपाय कर दिये हैं।
अच्छे दिन इराक के तेलकुंओं की सर्वग्रासी आग की तरह हमें अपनी चपेट में लेने ही वाले हैं।


