नई दिल्ली, 25 अगस्त 2014. सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति वरिष्ठता क्रम के आधार पर न कर मेरिट के आधार पर करने का जस्टिस मार्कण्डेय काटजू द्वारा इस रविवार दिया गया सुझाव एक बार फिर बहस का मुद्दा बनता नज़र आ रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश एवं भारतीय प्रेस परिषद् के चेयरमैन जस्टिस मार्कण्डेय काटजू (Justice Markandey Katju, retired Supreme Court judge and Chairman of the Press Council of India) ने रविवार को टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिखकर सुझाव दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति वरिष्ठता क्रम के आधार पर न कर मेरिट के आधार पर की जाए। उनके मुताबिक “भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायिक परिवार के मुखिया हैं, और एक अयोग्य व्यक्ति की इस पद पर नियुक्ति से काफी नुकसान हो सकता है जो पिछले कई वर्षों से हो रहा है।”

काटजू ने लिखा था कि ध्यान देने की बात यह है कि इस संबंध में कोई संवैधानिक प्रावधान या यहां तक ​​कि कोई सांविधिक नियम भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए।

दरअसल भारत के मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा आगामी 27 सितंबर को अवकाश ग्रहण कर रहे हैं। जस्टिस काटजू ने अपने लेख में संवैधानिक प्रश्न उठाया है वह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब जज नियुक्ति बिल संसद् से पारित हो चुका है तब जस्टिस लोढ़ा का उत्तराधिकारी कौन होगा व उसकी चयन प्रक्रिया क्या होगी।

जस्टिस काटजू के मुताबिक- अमेरिका में मुख्य न्यायाधीश के रूप में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज नियुक्त करने की ऐसी कोई परिपाटी नहीं है। वास्तव में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों में से कुछ को जब मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया तब वह अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के जज भी नहीं थे।

वरिष्ठता के क्रम में मुख्य न्यायाधीश न चुनने के लिए जस्टिस काटजू ने जो तर्क दिए हैं उनके अनुसार-

(1) वरिष्ठतम न्यायाधीश संदिग्ध ईमान का एक व्यक्ति हो सकता है, या हो सकता है उसने गलत काम किया हो।

(2) वरिष्ठतम न्यायाधीश एक ईमानदार आदमी हो सकता है, लेकिन वह एक साधारण व्यक्ति भी हो सकता है। ऐसे में वरिष्ठता क्रम में उससे कनिष्ठ न्यायाधीश को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया जाना चाहिए। एक न्यायाधीश जो औसत दर्जे का है भले ही वह एक ईमानदार आदमी है, लेकिन वह “मील का पत्थर” निर्णय देने में असमर्थ है तो इस तरह के एक साधारण न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया जाना चाहिए।

(3) यदि किसी उच्च न्यायालय में एक उत्कृष्ट मुख्य न्यायाधीश है, तो वह सीधे भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।

जस्टिस काटजू के सुझावों पर कड़ा ऐतराज जाहिर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा है लगता है कि श्री काटजू वर्तमान प्रणाली को भूल जाते हैं जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश कौन होगा, यह वर्षों पूर्व ही सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम सिस्टम से निर्णय लिया जा चुका है।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित शंकरनारायणन के एक लेख के मुताबिक पहले सर्वोच्च न्यायालय की एक 9 सदस्यीय पीठ के इस स्पष्ट कथन पर विचार करें, <जिसे द्वितीय न्यायाधीश प्रकरण (1993) { Second Judges case (1993)} के रूप में जाना जाता है> जिसमें उन्होंने उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि - “भारत का मुख्य न्यायाधीश की सर्वोच्च न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश होगा।” हमारे संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा कानून है। ध्यान देने की बात यह है कि यह नए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियों आयोग विधेयक, 2014 में धारा 5 में लगभग शब्दशः शामिल किया गया है। तो कैसे, श्री काटजू कह सकते हैं कि इस के लिए कोई कानून नहीं है ?

शंकरनारायणन कहते हैं कि वे न्यायाधीश जिन्होंने उपरोक्त फैसला लिखा, उन्हें इस संबंध में बेहतर जानकारी थी कि श्रीमती इदिरा गांधी की सरकार ने 1970 के दशक में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को किस प्रकार विकृत करने का प्रयास किया था।

शंकरनारायणन सवाल करते हैं कि जस्टिस काटजू, जो स्वयं को इतिहास व कानून का विशेषज्ञ बताते हैं, कैसे इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं?

शंकरनारायणन के मुताबिक अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के सन्दर्भ को भारत में दो प्राथमिक कारणों के लिए नहीं रखा जा सकता है।

अमेरिका में अदालत बहुत कम याचिकाएं स्वीकार करती है और राष्ट्रीय चेतना पर इसके प्रभाव बहुत मामूली हैं। जबकि भारत में न्यायिक सक्रियता ने वजनहित याचिकाओं ने न्यायशास्त्र को देश की अंतरात्मा की आवाज बना दिया है। अमेरिका में सरकार न्यायधीशों की नियुक्ति लाल और नीले रंग के आधार पर करती है, जबकि भारत में यह स्पष्ट रूप से अस्वीकार्य दर्शन है।

बहरहाल, जस्टिस काटजू ने जो तीर छोड़ा है उससे न्यायपालिका के अंतर्विरोध तो सामने खुलकर आए ही हैं, बल्कि नए संदर्भों में यह एक बार फिर सरकार बनाम न्यायपालिका व संसद् बनाम न्यायपालिका के शीतयुद्ध की ओर भी इशारा कर रहे हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को नोटिस जारी नेता विपक्ष के पद के लिए पूछना और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का कहना कि न्यायालय ने सरकार से जवाब तलब किया है स्पीकर से नहीं और जज नियुक्ति बिल 2014 के खिलाफ याचिका स्वीकार करने से आने वाले दिनों में न्यायिक सक्रियता के कुछ और प्रकरण देखने को मिल सकते हैं।

यहां याद रखना उचित होगा कि सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहते हुए जस्टिस काटजू एक प्रकरण में टिप्पणी कर चुके थे कि सर्वोच्च न्यायालय को कानून बनाने का अधिकार नहीं है।

Democracy means the people are supreme : Justice Markandey Katju interacts with law students

(हस्तक्षेप डेस्क)