मुड़ मुड़के न देख, मुड़ मुड़के - अब वैकल्पिक मीडिया की सीधी लड़ाई कारपोरेट मीडिया से
मुड़ मुड़के न देख, मुड़ मुड़के - अब वैकल्पिक मीडिया की सीधी लड़ाई कारपोरेट मीडिया से
मुड़ मुड़के न देख, मुड़ मुड़के -अब इस सोने की चिड़िया का वर्तमान और भविष्य शेयर बाजार
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भारतीय लोक गणराज्य और इसकी अर्थव्यवस्था विदेशी रेटिंग एजंसियों के हवाले, वही नीतियां बना रही हैं, बिगाड़ रही हैं-मोदी उनकी अश्वशक्ति है
बेईमानों के मुकाबले गिने चुने ईमानदार और देश भक्त लोग ही कयामत का मंजर बदल सकते हैं बशर्ते कि वे तमाम लोग चट्टानी मजबूती से जनपक्षधर माध्यमों को मुख्यधारा बनाने की मुश्किल कवायद पूरी करके कारपोरेट जनविरोधी जनविध्वंसी तत्वों को हाशिये पर फेंकने की चुनौती मंजूर करें। हमें फासीवाद पर बहस नहीं करनी है। फासीवाद का रेशां रेशां उघाड़कर उसे उखाड़ फेंकना है।
जो घर फूंके आपणा, चले हमारे साथ।
राजकपूर की फिल्म श्री 420 का यह गाना आज के भारत के जनमानस को जितना सही तरीके से अभिव्यक्त करता है, वैसा कोई विश्लेषण नहीं कर सकता। जिस शेयर बाजार के लूटखसोट को श्री 420 का कथा परिदृश्य बनाया था बालीवुड के सबसे बड़े शोमैन ने, आज वह शेयर बाजार ही इस सोने की चिड़िया का वर्तमान और भविष्य है।
नाचती गाती दिलकश नादिरा अब भारत की सत्ता है, जो आम जनता को मुड़ मुड़कर देखने की इजाजत नहीं देती और देश की आत्मा को इसतरह कयामती बेरहमी से कुचल दिया जा रहा है।
भारतीय लोक गणराज्य और इसकी अर्थव्यवस्था विदेशी रेटिंग एजंसियों के हवाले, वही नीतियां बना रही हैं, बिगाड़ रही हैं-मोदी उनकी अश्वशक्ति है।
डॉ योगेन्द्र ने अपने फेसबुक वाल पर एकदम सही लिखा हैः
देश के लिए मुद्दा अरविंद केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, नरेन्द्र मोदी, राहुल गॉधी, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार नहीं हैं, देश के लिए मुद्दे हैं- आत्महत्या करते किसान, भूखों मरते आदिवासी, करोड़ों बेरोज़गार, अर्थहीन होती शिक्षा, विदेशी कंपनियों का देश में अनर्थकारी दखल, विकास के नाम पर पूजीपतियों का विकास, नृशंस होती चेतना, हर महकमे में फैला भ्रष्टाचार, देश का धर्म-व्यवसायी।
इन मुद्दों के समाधान के लिए किसके पास नीतियाँ हैं? नहीं हैं तो उन नीतियों को बनाने और व्यावहारिक धरातल पर उतारने की चुनौती है। यह चुनौती पढ़े-लिखे लोगों, किसानों, छात्रों, नौजवानों को स्वीकार करनी पड़ेगी। किसी के पीछे ढोल बजाने की ज़रूरत नहीं है।
हस्तक्षेप पर लगे आनंद स्वरूप वर्मा का आलेख एक ख़ास तरह के अंधराष्ट्रवाद के शिकार थे राजेन्द्र माथुर
( http://www.hastakshep.com/oldमीडिया/चौथा-खम्भा/2015/04/10/राजेन्द्र-माथुर-एक-ख़ास-तर ) तुरंत खोलकर पढ़ लें।
यह समझने की बेहद जरुरत है कि अंध राष्ट्रवाद पर संघ परिवार का एकाधिकार नहीं है, तमाम माध्यमों पर अब तक जिनका दखल रहा है, जो उन माध्यमों के घोषित अघोषित मसीहा वृंद रहे हैं, अंध राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की धर्मनिरपेक्षता के जरिये भारतीय जनमानस को मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के शिकंजे में फंसाने की सारी उपलब्धि उनकी है।
संघ परिवार को उनका आभार मानना चाहिए।
हमारा चूंकि भाषा, साहित्य, कला और तमाम माध्यमों, विधायों में उन महामहिमों के फतवों, नियमतों, रहमतों, सौदर्यशास्त्र और व्याकरण से कुछ लेना देना नहीं है, चूंकि हम नैनीताल में इस दुनिया के सबसे खूबसूरत स्त्री पुरुषों से जनपक्षधर साहित्य कला भाषा का पाठ लेते रहे हैं, इसलिए हमें उभयलिंगी पाखंडी शिखंडी मौकापरस्त हस्तीमुखी गैंडाचर्मी हस्तमैथुन विशेषज्ञों के खिलाफ खुले युद्ध से कोई परहेज नहीं है।
चाहे कोई नाराज हो या खुश हम सच को सच कहेंगे।
हम बार बार जनपक्षधर ताकतों और जनपक्षधर मीडिया के साथ खड़े होने की बात कर रहे हैं।
ग्रीन पीस के लाइसेंस निलंबित हो जाने पर भी हमारे मित्रों को होश नहीं है कि भारत में अब पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर चर्चा राष्ट्रद्रोह माना जा रहा है और सैन्यराष्ट्र के मुकाबले हममें से किसी की औकात इस मुक्तबाजार के खिलाफ अकले लड़ने की नहीं है।
जितनी जल्दी हम इसे मान लें और जितनी जल्दी हम गोलबंद होने की हरसंभव पहल अपनी तरफ से करें, उतना ही बेहतर है।
अब वैकल्पिक मीडिया की सीधी लड़ाई कारपोरेट मीडिया से है।
अब तय करना ही होगा कि कौन जनपक्षधर है और कौन अपनी मसीहाई की आड़ भारतीय पत्रकारिता को चकलाघर बनाता रहा है, उन उजले चेहरों को बेनकाब करने की हमारी मुहिम अब किसी कीमत पर रुकने वाली नहीं है।
बेईमानों के मुकाबले गिने चुने ईमानदार और देश भक्त लोग ही कयामत का मंजर बदल सकते हैं बशर्ते कि वे तमाम लोग चट्टानी मजबूती से जनपक्षधर माध्यमों को मुख्यधारा बनाने की मुश्किल कवायद पूरी करके कारपोरेट जनविरोधी जनविध्वंसी तत्वों को हाशिये पर फेंकने की चुनौती मंजूर करें। हमें फासीवाद पर बहस नहीं करनी है। फासीवाद का रेशां रेशां उघाड़कर उसे उखाड़ फेंकना है।
जो घर फूंके आपणा, चले हमारे साथ।
देश और जनमानस कैसे सिरे से बदल गया है, उसको समझाने के लिए यह आप बीती।
मैं सात को गांव केउटिया जाकर अपने बुआ के परिवार में दो दिनों तक रहा और वहां शेयर बाजार के अलावा कुछ भी न देखा। कुछ भी नहीं। बाकी देश का नजारा भी कमोबेश यही हो गया है।
मेरे पिता, मेरे ताऊ और मेरे चाचा ही हमारे खानदान में शरणार्थी बने हैं। यानी हमारे चार दादाओं में से तीसरे उमेश विश्वास के तीनों बेटे शरणार्थी बने। मेरे पिता भारत विभाजन से पहले तेभागा आंदोलन के सिलसिले में सीमापार आ गये थे और विभाजन के वक्त हमारे ताऊ और चाचा बंगाल पुलिस में सेवारत थे। फिर भी तीनों राणाघाट शरणार्थी शिविर में पहुंचकर शरणार्थी सैलाब में कैसे पहुंच गये, यह बिखरी हुई कड़ियों की कथा है।
बाकी तीनों दादाओं की संतानें उस पार जैशोर के नड़ाइल इलाके की पुश्तैनी संपत्ति के बदले उत्तर 24 परगना के विभिन्न इलाकों में जमीन और घर खरीदकर बस गयीं।
हमारी बुआ श्रीमती भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं। वे अपने परिवार के साथ नैहाटी के पास केउटिया गांव जो महान साहित्यकार बंकिम चंद्र के ससुराल नारायणपुर का हिस्सा है, में बस गयीं और उनके एकमात्र पुत्र निताई सरकार हमारे बड़े भाई साहेब हैं।
जब मैं तीसरी में पढ़ता था, तभी रोजाना खबर पढ़ने की लत लग जाने और चाचा के दिखाये मार्ग पर विश्व साहित्य में रम जाने और पिता के जनपक्षधर सामाजिक सक्रियता की वजह से सामाजिक यथार्थ से टकराते रहने की आदत से भयंकर पढ़ाकू हो गया था।
मैं पेड़ पर बैठकर या भैंस की सवारी करते हुए किसी भी हालत में पढते रहने की आदत से मजबूर था।
जब पढ़ने को कुछ न मिलता था, तब बांग्ला पंजिका के पुराने सारे अंक के तिथि नक्षत्र का विवेचन भी पढ़ लेता था।
उसी बीच तब तीसेक साल के हमारे दादा निताई सरकार बंसतीपुर पहुंचे।
मैं चूंकि अपनों से पढ़ने के लिए किताबें मांगता रहता था और घर आने वाले तमाम सज्जनों के दिये पैसों, छात्रवृत्ति परीक्षाएं पास करते रहने से मिले पैसों और थोड़ा बहुत जेब खर्च के लिए दिये गये पैसों से किताबें ही खरीदता था, तो भाई साहेब से भी मैंने किताबें खरीद देने के लिए कहा।
उनने हैरतअंगेज ढंग से मेरे सामने चुनौती खड़ी कर दी रवींद्रनाथ पढ़ने से क्या होगा अगर तुम रवींद्र नाथ बन नहीं सकते। इतना पढ़ते रहते हो तो लिखा भी करो।
इस तरह मेरे लिखने की शुरुआत हो गयी।
दादा निताई सरकार ने भारी संघर्ष किये। वे शरणार्थी न थे और न उनने पारिवारिक संपत्ति के बदले संपत्ति अर्जित की। उन्होंने पूरी जवानी मजदूरी करते बितायी।
कोलकाता के बड़ा बाजार में इसी दरम्यान शेयर बाजार में सक्रिय कुछ कारोबारी उनके मित्र बने। साठ के दशक से वे शेयर बाजार में सक्रिय हैं। बंगाल में नर्सरी और हैचरी व्यवसाय शुरु करने वाले वे पहली पीढ़ी के कारोबारी हैं। आठवें दशक तक वे जूट का कारोबार करते थे और केउटिया में उनके घर जूट का वह गोडाउन अब भी है।
मेहनत मजदूरी और कारोबार के साथ-साथ कविता और गीत लिखना दादा की रचनात्मक अवदान है।
हम जब 1980 में धनबाद पहुंचे तो छुट्टी मिलते ही बसंतीपुर जाना असंभव देख केउटिया चला आता था।
हमारी भाभी अविभाजित बंगाल के सबसे लोकप्रिय लोककवि विजय सरकार की पोती हैं। विजय सरकार भी नड़ाइल जैशोर के हैं।
लोककवि विजय सरकार भी नड़ाइल छोड़कर केउटिया आ बसे और आखिरी सांस तक रचनात्मक बने रहे।
अस्सी के दशक में अचानक जूट संकट पैदा हो जाने से किसानों को भुगतान करते हुए दादा की हालत बेहद खराब हो गयी।
तब पड़ोस के गांव के ईसप मियां अपने खेत की सब्जियों से लेकर राशन पानी तक भाभी की रसोई में पहुंचा जाते थे, यह मैंने सालोंसाल देखा है।
ईसप भाई साहेब अब नहीं हैं, जिनके घर और उनके परिजनों के बीच मैं दादा के साथ जाता रहा हूं। तो दादा की संघर्ष यात्रा में केउटिया के मस्जिदपाड़ा के अजहर का रात दिन का साथ रहा है।
दादा ने बच्चों को हिदायत दे रखी है कि वे रहे न रहे, अजहर को हमेशा परिवार का हिस्सा मान लिया जाये। उस घर के सारे फैसले अजहर की सलाह से तय होते रहे हैं। अजहर को वीटो मिला हुआ है।
अजहर आज भी उस परिवार में शामिल है। जबकि उसका अपना परिवार और उसके बच्चे सुखी और संपन्न हैं। सारे बच्चे प्रतिष्ठित हैं।
लोककवि निताई सरकार को आप किसी भी कोण से धर्मोन्मादी नहीं कह सकते। कवि विजय सरकार इस पार के हिंदुओं से कहीं ज्यादा उस पार के मुसलमानों में लोकप्रिय है, जिन्हें मरणोत्तर हमारे भारत रत्न के बराबर एकुशे पदक दिया गया है।
विजय सरकार के जन्मोत्सव पर उस पार बंगाल के सारे लोककवि, साहित्यकार केउटिया चले आते हैं।
विजय सरकार पर बांग्लादेश में निरंतर शोध और शोध पर शोध हो रहा है। बंगाल में कुछ भी नहीं हो रहा है।
ममता दीदी को शायद ही लोक कवि विजय सरकार के बारे में कुछ मालूम हो।
वही निताई दादा ने साबित कर दिया कि अब तक देश में कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ, असली प्रधानमंत्री अब हुआ है, जिसने बाजार से मुनाफावसूली के सारे रास्ते खोल दिये हैं।
उन्हें अफसोस है कि कंप्यूटर और इंटरनेट इतना लेट आये उनके जीवन में कि वे उन्हें साध नहीं सकते। वे अंग्रेजी नहीं जानते, लेकिन अंग्रेजी के सारे बिजनेस चैनल दिन भर देखते हैं तो बच्चे हिंदी के बिजनेस चैनल देखते हैं। दादा अंग्रेजी अखबारों के ग्राफिक्स देखकर बाजार की चाल भांपते हैं।
घर में सारे कमरों में टीवी पर बिजनेस चैनल के अलावा कुछ नहीं होता।
आलम यह है कि सुचित्रा उत्तम जोड़ी की फैन हमारी भाभी बरसों से कोई फिल्म देख नहीं पायी है। तो हमारी बहुएं भी सीरियल वगैरह नहीं देखतीं। दिन भर बाजार का मिजाज रसोई चौके के साथ साथ बच्चों की पढ़ाई लिखाई की उलझनों के साथ साथ समझने की कवायद करती रहती हैं।
दो दिनों तक बाजार के अलावा उस घर में हमने कुछ भी न देखा।
गनीमत यह है कि दादा को अब थोड़ा बहुत क्रिकेट का शौक भी लगा है और वे अस्वस्थ हैं तो मैं उनके साथ ही ज्यादा वक्त बिता रहा था तो वे बीच बीच में समाचारों पर नजर रख रहे थे, बाजार की हलचल के मध्य। आईपीएल का पहला मैच भी हमने उनके साथ देखा और हर ओवर के अंतराल में बिजनैस चैनल चलता रहा।
दादा किसान हैं और आर्थिक सुधारों के जबर्दस्त समर्थक हैं।
वे जोतदार भी रहे हैं और सत्तर के दशक में वाम निशाने पर भी रहे हैं। वे वामविरोधी रहे हैं और उनका पूरा परिवार ममता का समर्थक रहा है क्योंकि ममता धुर वाम विरोधी हैं।
मैं सावधानी से भी ममता की आलोचना कर रहा होता तो दादा गुस्से में आ जाते थे।
अब वहीं दादा ममता बनर्जी के निर्मम आलोचक हैं और मोदी के अंध विरोध के लिए बंगाल का कितना बड़ा सर्वनाश हो रहा है और बिना रोजगार के बंगाल के सारे लोग कैसे मजदूर बनते जा रहे हैं, इसका वे सिलसिलेवार विश्लेषण करते रहते हैं।
मेरे छोटे भतीजे का इकलौता बेटा अभी पांचवीं में पहुंचा है तो दादा और मेरे बड़े भतीजे ने उससे पूछा कि आपको क्या चाहिए, घर के माहौल के मुताबिक उसने अपने जन्मदिन पर शेयर सौ शेयर मांगे तो उसके लिए ब्लूचिप के सौ शेयर खरीद लिये गये।
दादा मानते हैं कि कृषि से अब देश का विकास नहीं हो सकता और विदेशी पूंजी और मुक्तबाजार में ही भारत का भविष्य है। मोदी चूंकि मुक्त बाजार के लिए सारी खिड़कियां खोल रहे हैं तो दादा उन्हें भारत भाग्यविधाता मान रहे हैं।
मजे की बात है कि वे बजरंगी ब्रिगेड के हिंदुत्व के सख्त खिलाफ रहे हैं। अब भी वे मानते हैं कि मोदी जिस विकास की बात करते हैं, उसमें बाधक संघ परिवार का हिंदुत्व एजेंडा है। इसलिए वे वोट भी भाजपा को देते नहीं है।
मोदी की नीतियों के प्रबल समर्थक और दीदी के प्रबल आलोचक होने के बावजूद वे वोट अब भी तृणमूल कांग्रेस को देते हैं।
बुआ की मृत्यु के बाद उस घर में बढ़ते हुए शेयर बाजार के परिवेश में मुझे खुद को बेहद अवांछित महसूस होता है। इसलिए कोलकाता में होने के बावजूद केउटिया आना जाना हो नहीं पाता।
दादा की निरंतर अस्वस्थता की वजह से इस बार लंबे अंतराल के बाद मैं वहां गया तो जैसे अपने बदलते हुए देश के मुखातिब हो गया मैं। इस देश के किसान और लोकजड़ों से जुड़े लोग भी अब कृषि में अपना भविष्य नहीं देखते, वे बाजार को अपनी नियति मानने लगे हैं।
हरित क्रांति के बाद पंजाब में यह कायाकल्प हुआ, जब खेती से निकलने की छटफटाहट ने पंजाब के लिए खुदकशी का रास्ता तैयार कर दिया।
मुक्तबाजार में यह आस्था भारतीय किसानों की सामूहिक आत्महत्या की नियति के सिवाय क्या है, समझ में नहीं आ रहा है।
हमारे बाजार विशेषज्ञ भतीजों के मुताबिक मुनाफावसूली के लिए सबसे उपजाऊ होने जा रहा है डिफेंस सेक्टर जबकि बैंकिंग में निवेश डूबने का खतरा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने युनेस्कों में मन की बातें बहुत तरकीब से की हैं।
इसके विपरीत प्रधानमंत्री की यह विदेश यात्रा का असली मकसद भारत में डिफेंस सेक्टर में अबाध विदेशी पूंजी का प्रत्यक्ष निवेश और लंबित अरबों बिलियन डालर के रक्षा सौदों के हरी झंडी देना है।
पलाश विश्वास


