कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन के ब्यौरे (Details of Cobra Post Sting Operation) पढ़ते हुए हैरत से ज्यादा शर्म का अहसास हो रहा है।

हमने इसी पत्रकारिता में पूरी जिंदगी खपा दी। भारतीय पत्रकरिता की गौरवशाली परंपरा (Glorious Tradition of Indian Journalism) में जुड़ने के लिए मैंने कभी आगे पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस माध्यम का उपयोग आम जनता के हकहकूक की आवाज उठाने के लिए भरसक कोशिश की। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में मीडिया और पत्रकारिता में क्रमशः हाशिये पर जाने के बावजूद हमने सामाजिक सांस्कृतिक सक्रियता बढ़ाते हुए वैकल्पिक मीडिया तैयार करने की कोशिश की है। एकाध अखबार को छोड़कर सारे के सारे अखबार कारपोरेट हिंदुत्व के शिकंजे में हैं, यह साबित करने के लिए शायद किसी स्टिंग ऑपरेशन की आवश्यकता नहीं थी।

मुनाफे की इस पत्रकारिता में मिशन तो क्या ईमानदारी भी बची नहीं है।

हम यह देखते देखते रिटायर हुए कि संपादक और पत्रकार बाजार के एजंट में तब्दील होते जा रहे हैं और जनता के विरुद्ध नरसंहारी अश्वमेध अभियान के वे सिपाहसालार भी बनते जा रहे हैं। सच को सामने लाने के बजाय सच छुपाना और झूठ फैलाना ही आज की पत्रकारिता बन गई है।

पत्रकारिता बहुत तेजी से भ्रष्ट हो गई है

हम जैसे लोगों के लिए अब मुंह छुपाना मुश्किल है क्योंकि आम जनता में पत्रकारिता की कोई साख नहीं बची है और राजनीति जिस तरह भ्रष्ट हुई है, उससे कहीं बहुत तेजी से पत्रकारिता भ्रष्ट हो गई है और पत्रकारों की कोई सामाजिक हैसियत बची नहीं है। जिन्हें न मनुष्यता और न समाज, न संस्कृति से कुछ लेना देना है, उनकी फाइव स्टार दुनिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन कस्बों और छोटे शहरों के आम पत्रकार भी इस गोरखधंधे में माहिर होना अपनी कामयाबी मानने लगे हैं और बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। ऐसे में हमारी हैसियत यक ब यक दो कौड़ी की हो गई है।

यूरोप अमेरिका और तीसरी दुनिया में भी पत्रकारिता हमेशा आम जनता के पक्ष में रही है।

भारत में भी इस जनपक्षधरता की गौरवशाली परंपरा रही है। हम इस परंपरा के वारिस होने की खुशफहमी में जी रहे थे। पिछले करीब बीस साल से साहित्य की किसी विधा में लिखना बंद कर दिया था क्योंकि हमसे बेहतर लिखने वाले लाखों लोग हैं। आम जनता की बुनियादी समस्याओं पर लिखना जरूरी लग रहा था और हम अपनी क्षमता के मुताबिक शुरू से ऐसा ही कर रहे थे। पेशेवर पत्रकारिता में इसकी गुंजाइश जितनी कम होती गई, पत्रकारिता के लिए मैं उतना ही अवांछित और अस्पृश्य हो होता गया। फिर भी मुझे इसका अफसोस नहीं है।

दिनेशपुर के एक शरणार्थी गांव में जनमे एक किसान परिवार के बेटे के लिए यह बहुत गर्व की बात रही है कि देशभर में हर कहीं पहचान के साथ साथ प्यार भी मिला है इस पत्रकारिता की वजह से। विदेश कभी नहीं गया, लेकिन बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका से लेकर चीन, क्यूबा, म्यांमार जैसे देशों, यूरोप और अमेरिका, लातिन अमेरिका और अफ्रीका में भी मेरे पाठक रहे हैं। चालीस साल देशभर में भटकने बाद गांव में बुढ़ापे में लौटने के बाद अपनी इज्जत और हैसियत खो देने का सदमा झेलना मुश्किल होगा। बदलाव के सपने को ज्यादा झटका लगा है। माध्यमों और विधाओं की इस जनविरोधी भूमिका के चलते अब शायद कुछ भी बदलने के हालात नहीं है।

पलाश विश्वास

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