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मुर्दाघर में तब्दील है मीडिया।
इस मीडिया का मिशन मुनाफावसूली है। सिर्फ मुनाफावसूली है, कोई सरोकार उसके नहीं हैं।
मुक्त बाजार में सत्ता का खेल कारपोरेट का चाकचौबंद बंदोबस्त और मीडिया की औकात दो कौड़ी की भी नहीं।
मीडिया भी इन दिनों आईपीएल है। मीडियाकर्मी चीयरलीडर।

पलाश विश्वास
हम अंध राष्ट्रवादी हैं, चाहे हम वामपंथी हों, मध्यपंथी हों, उदार मध्यपंथी हों या धुर दक्षिणपंथी। बजरंगी अंध धर्मोन्मादी हिंदुत्व राष्ट्रवाद जितना कट्टर है, अस्पृश्य आदिवासी पिछड़ा बहुजन अल्पसंख्यक राष्ट्रवाद उससे तनिको कम उन्मादी नहीं है। कम कट्टर भी नहीं है। इसे समझे बिना इस अंधत्व का इलाज नहीं है।
सूचना विस्फोट और सूचना तकनीक की वजह से यह अंधत्व अब लाइलाज है। क्योंकि अब जनमत बनाने के बदले कारपोरेट हितों के मुताबिक कारपोरेट मीडिया जनादेश बनाने लगा है या बनाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। ताजा उदाहरण बंगाल है।
राजनीति को भी जनगण से कोई मतलब नहीं है और जनता के बीच जाने की बजाय वे मीडिया के गाल बजाकर सत्ता दखल करने के अभ्यस्त हो गये हैं और मीडिया और राजनीति दोनों को खुशफहमी है कि वे ही मौसम बदल रहे हैं, जबकि सब कुछ मु्क्तबाजार का बंदोबस्त चाकचौबंद है और जनता को हाशिये पर रखकर हवा हवाई क्रांति की कोई जमीन नहीं है। इस राजनीति की कोई जड़े नहीं है जैसे मीडिया की भी कोई हवा पानी मिट्टी नहीं है।
इसीलिए पेड मीडिया को इतना बोलबाला है कि मीडिया साध लिया तो जनता की परवाह किये बिना मैदान मार लेने का शार्टकट आजमाने से अब न सत्ता और न राजनीति को कोई शर्म है।
मीडिया को अब धंधेबाज पत्रकार चाहिए, कुशल मैनेजर चाहिए, चीफ एक्जीक्युटिव चाहिए जबकि संपादन खत्म है और संपादक का अवसान हो गया है।
इस कारपोरेट मीडिया में अबाध पूंजी का एकाधिकार वर्चस्व है और उसने जनपक्षधरता से कन्नी काटते हुए उसने पत्रकारिता का

स्पेस ही खत्म कर दिया। तो पत्रकारों, गैरपत्रकारों और मीडियाकर्मियों का भी कत्लेआम अब चालू फैशन है। जिसकी खबर मीडियावालों को नहीं है और है तो कोई अपनी खाल उतरवाने का जोखिम उठायेगा नहीं। रोजी-रोटी के अलावा वातानुकूलित रोजनामचा खतरे में है।
मुर्दाघर में तब्दील है मीडिया।
इस मीडिया का मिशन मुनाफावसूली है। सिर्फ मुनाफावसूली है, कोई सरोकार उसके नहीं हैं।
मीडिया में चमकता-दमकता जो कंटेंट है, जो पत्रकारिता का जोश है, जो खोजखबर और स्टिंग है, वह सबकुछ विज्ञापन में शामिल है और अभिव्यक्ति से कोसों दूर है यह सूचना महाविस्फोट, जहां जनता का कोई एफआईआर दर्ज हो ही नहीं सकता।
सबकुछ पार्टीबद्ध बाजार नियंत्रित और सत्ता का खेल है। सबकुछ ग्लोबल आर्डर है और बजरंगी हिंदू केसरिया अंध राष्ट्रवाद वही है जिसके तहत मीडिया सैन्यराष्ट्रतंत्र का ग्लैमर है, वाइटल स्टेटिक्स है, किलेबंदी है, मोर्चा है और यह मोर्चा जनता का नहीं है।
बंगाल ने साबित कर दिया कि सर्व शक्तिमान मीडिया की औकात दो कौड़ी की है और देहात के बवंडर ने मीडिया के रचे जनादेश के भरोसे हाथ पर हाथ धरे कामरेडों को भी औंधे बल धूल चटा दिया।
मीडिया के पंख पर सवार लोग धम से मुंह के बल धूल फांक रहे हैं। मीडिया लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें जिता नहीं सका।
जिता भी नहीं सकता। लोकतंत्र में सत्ता कितनी ही निरंकुश हो जाये, तुरुप का पत्ता जनता के हाथों में ही होता है और किसी भी सूरत में मीडिया जनादेश बना नहीं सकता।
सुनामी बनाने और सुनामी खत्म करने में जनता का मीडिया से कोई मुकाबला नहीं है और बाजार के तिलिस्म के बावजूद निरंकुश सत्ता के अवसान का अचूक रामवाण वही प्रबल जनमत है, जिसे तैयार करने में अब न राजनीति की कोई भूमिका है और न मीडिया का। जनमत और जनादेश दोनों अब सीधे मुक्तबाजार के नियंत्रण में है। मीडिया अब कोई चौपाल नहीं है बल्कि वह मुकेश अंबानी का अंदरमहल है।
बंगाल में नंदीग्राम सिंगुर लालगढ़ समय में भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन का झंडवरदार बना हुआ था मीडिया और तब मीडिया की वजह से जो वामविरोधी हवा बंगाल में बनी, उसकी जमीन पर ममता बनर्जी की ताजपोशी हो गयी। बाजार ने की वह ताजपोशी जिसे मीडियाअपना करिश्मा मानता रहा है। जो प्रचंड जनांदोलन उस वक्त हुआ, उसी की वजह से परिवर्तन हुआ। बाजार ने तो उस जनांदोलन के मुताबिक अपने हित साधने के लिए पक्ष चुना।
वही मीडिया जो कल तक ममता के पक्ष में था, इस बार कारपोरेट हितों के मुताबिक ममता की नीतिगत विकलांगकता की वजह से वैसे ही ममता के खिलाफ हो गया, जैसे दस साल के सुधार अश्वमेध के सिपहसालार मनमोहन के खिलाफ हो गया मीडिया।
मीडिया को खुशफहमी है कि उसी ने मनमोहन का तख्ता पलट दिया और उसी ने केसरिया सुनामी पैदा कर दी। जबकि ग्लोबल आर्डर और मुक्त बाजार के हित में अबाध पूंजी का यह करिश्मा है।
नाभि नाल से वैश्विक व्यवस्था से जुड़ी सत्ता का तखता पलट मीडिया के दम पर हो ही नहीं सकता। न मीडिया जनमत बनाने की जहमत उठा सकता है क्योंकि जनमत बाजार का उत्पादन होता नहीं है। जनमत उत्पादन संबंधों के मुताबिक होता है और उत्पादकों की गोलबंदी से आंदोलन खड़ा होता है जो जनमत बनाता है। सिंगुर और नंदीग्राम के किसानों ने जो आंदोलन किया और जो जनमत तैयार हुआ, उसी का नतीजा परिवर्तन है।
उत्पादकों की राजनीतिक गोलबंदी के बिना, सामाजिक यथार्थ से टकराये बिना, आंदोलन के लिए कोई तैयारी किये बिना न आंदोलन संभव हुआ और न जनमत का निर्माण हुआ तो मीडिया हाउस के गर्भ से जो जनादेश निकल सकता था, वही निकला जो हैरतअंगेज नहीं है। जनमत की परवाह किये बिना जड़ों से कटी वातानुकूलित हवा हवाई राजनीति का यह अंतिम हश्र है। शोक कैसा?
राष्ट्र के कारोबार में मीडिया ही नहीं तमाम माध्यमों और विधाओं की भूमिका होनी चाहिेए और यह भूमिका कुल मिलाकर राष्ट्र के लोकतांत्रिक लोककल्याणकारी चरित्र को बहाल रखने का कार्यभार है। इस प्रस्थानबिंदु के बदले बाजार के मुताबिक कारपोरेट हितों के मुताबिक जोड़तोड़ करके पूंजी के दम पर बाजार में महाबलि हो सकता है मीडिया या मीडियाघराना, जनता को उसकी कोई परवाह नहीं। इसीलिए मीडिया और ममता की लड़ाई में जनता ने ममता का साथ दिया और मीडिया के भरोसे कुरुक्षेत्र का महाभारत जीत लेने के भ्रम में तमाम रथी महारथी खेत हो गये।
राष्ट्र को लोकतांत्रिक और लोककल्याणकारी बनाये रखने के अक्लांत अविराम जनसंघर्ष की बजाय कारपोरेट मीडिया और चुनावी गठबंधन के बीजगणित पर जिनका ज्यादा भरोसा है, वे लोग दरअसल सैन्य राष्ट्र के ही सिपाहसालार है और वे अपने आचरण से खुद जनता की नजर में मनुस्मृति के सिपाहसालार हैं जो असमता और अन्याय, रंगभेद और असहिष्णुता के पुरोहित भी हैं। वर्चस्ववाद के ये सिपाहसालार आम जनता के लिए मुक्ति की राह नहीं बना सकते तो आम जनता क्यों उनका समर्थन करेगी मीडियाभरोसे।
सत्ता वर्ग के रंगबिरंगे राजनेता सैन्यतंत्र के ही तंत्र-मंत्र-यंत्र के कलपुर्जे बने हुए हैं और इसीलिए हमने स्वतंत्रता के सात दशक पूरे होने के बावजूद राष्ट्र के चरित्र पर कोई संवाद अभी तक शुरू ही नहीं किया है और जो लोग इस संवाद को अनिवार्य मानते हैं, हमारी नजर और राष्ट्र के नजरिया के मुताबिक वे तमाम लोग लुगाई राष्ट्र के लिए बेहद खतरनाक हैं और उनके सफाये के पवित्र कर्म में हम राष्ट्रवादियों का पूरा समर्थन रहता है।
हमारे आदरणीय मित्र हिमांशु कुमार के रोजनामचे में आदिवासी दुनिया की जो भयावह तस्वीर सामने आ रही है रोज रोज, उससे हम तनिक विचलित नहीं होते क्योंकि हम कमोबेश विकास के लिए आदिवासियों के कत्लेआम के समर्थक हैं।
इसीलिए हम किसी भी बिंदु पर मणिपुर की इरोम शर्मिला या बस्तर की सोनी सोरी के साथ खड़े हुए दीख नहीं सकते और न यादवपुर विश्विद्यालयमें पढ़ रही अपनी बेटियों की बेइज्जती पर हमें कोई ऐतराज है। उलटे हम जेएनयू के छात्रों को फांसी पर लटकाने पर आमादा हैं।
हम अंध राष्ट्रवादी हैं, इसीलिए हम यह समझ ही नहीं सकते कि #ShutDownJNU,  #ShutdownJadavpurUniversiateis, #Shutdownalluniversities, #Makingin #StatertupIndia, #DigitalIndia, #SmartIndia की आंड़ में कयामत में बदलती फिजां, दावानल में दहकते ग्लेशियर, महाभूकंप की चेतावनी, अनिवार्य सूखा और भुखमरी, बेहताशा बेरोजगारी, अनंत बेदखली और विस्थापन, जल युद्ध और पेयजल संकट का आशय समझ ही नहीं सकते और मीडिया हमें बजरंगी बनाने में लगा है। उसे देश दुनिया के संकट से कोई मतलब नहीं है।
मीडिया भी इन दिनों आईपीएल है। मीडियाकर्मी चीयरलीडर।
हमारी देश भक्ति राष्ट्र के जनविरोधी सैन्यतंत्र और अर्थव्यवस्था के नरसंहारी अश्वमेध और सामाजिक अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न और दमन के पक्ष में है।
सलवा जुड़ुम के पक्षधर हैं हम और सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार का हम उतना ही अंध समर्थन करते हैं जितना किसी विदेशी सेना के खिलाफ युद्ध में राष्ट्र का।
हम अपने ही नागरिकों पर राष्ट्र के सैन्य हमलों के विरोध में खड़े ही नहीं हो सकते और इसीलिए हम कमोबेश सहमत है कि कश्मीर और मणिपुर, समूचा पूर्वोत्तर और मध्यभारत का आदिवासी भूगोल राष्ट्रविरोधी है जैसे हमाल में हम तमाम विश्वविद्यालयों को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केंद्र मानते हैं और वहां मनुस्मृति अनुशासन लागू करने के विरुद्ध चूं तक नहीं करते हैं।
हमारी देश भक्ति और हमारा अंध राष्ट्रवाद लोकतंत्र और संविधान, नागरिक और मानवाधिकार के खिलाफ है और सामाजिक आर्थिक राजनीतिक समानता, कानन के राज और न्याय के विरुद्ध हैं तो भी हमें किसी खास किस्म की तकलीफ नहीं है। दर्द का कोई अहसास नहीं है हमें। हमारी इंद्रियां बेकल हैं और हम दिव्यांग।
हम विकास के नाम तमाम आदिवासियों को और किसानों को उजाड़ने के सुधारवादी नवउदार मुक्तबाजार के उपभोक्ता हैं और सेवा से संतुष्ट हैं और हमें फर्क नहीं पड़ा कि संपूर्ण निजीकरण,  संपूर्ण विनिवेश और अबाध पूंजी, परमाणु ऊर्जा, अंधाधुंध शहरीकरण के मेकिंग इन इंडिया के कारपोरेट बहुराष्ट्रीय उद्यम में ही हम अच्छे दिनों की उम्मीद लगाये बैठे हैं।
यह इसलिए है कि सूचना विस्फोट से हम ग्लोबल हैं और राष्ट्रवाद के अंधत्व के बावजूद राष्ट्रविरोधी मुक्त बाजार के हम नागरिक हैं किसी राष्ट्र के नागरिक हम कतई नहीं है और इस देश की मिट्टी पानी जल जंगल जमीन और पर्यावरण के साथ साथ बाकी नागरिकों की हमें कोई परवाह नहीं है और न अपने स्वजनों के वध से बह निकली खून की गंगा में क्रयशक्ति और हैसियत की लालच में गहरे पैठकर सत्ता से नत्थी हो जाने में हमें कोई शर्म है।
हम न जनमत बना सकते हैं और न जनादेश। हम मीडियाभरोसे हैं।

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