मुलायम से भी अधिक मुखर जातिवादी हैं अखिलेश
बात शुचिता नहीं सामर्थ्य की है
योगेश जादौन
राजनीति में शुचिता की सीमा प्रभुत्व पाने की झटपटाहट की कुंद अभिव्यक्ति भर है।
अखिलेश और उनके समर्थक जिस शुचिता की माला जप रहे हैं वह कुछ ऐसी ही बेकली है।
अखिलेश कै रवैये को बेहतर राजनीति के लिए किए जा रहे प्रयास समझना तो भारी भूल ही होगी। उनके काल में प्रदेश की जनता ने भूमाफियागिरी और अराजकता के सवालों को उठाया और जिसे आज वह अपने चाचा के पाले में फेंक देना चाहते हैं, उसके लिए वह खुद कम उत्तरदायी नहीं हैं।

सवाल तो प्रशासन के यादवीकरण कर देना का भी है तो क्या यह मसला भी वह अपने चाचा के कंधों पर डालकर बरी होना चाहते हैं।
असल में अखिलेश इस मसले को लेकर गंभीर रहे ही नहीं और सच तो यह है कि वह अपने पिता से भी अधिक मुखर जातिवादी हैं।
इस बात के समर्थन में मैं दो घटनाएं बताना चाहूँगा।
बात तब की है जब मुलायम सिंह जी मुख्यमंत्री थे और अखिलेश कन्नौज से सांसद। एक प्रेसवार्ता में उनसे बिगड़ती कानून व्यवस्था पर सवाल पूछ लिया गया, वह बुरी तरह बौखला गए।
दरअसल जिस घटना को लेकर सवाल सवाल पूछा उसमें उनके स्वजातीय शामिल थे और जो दिनदहाड़े हुई एक लूट में आरोपी थे।
अखिलेश की बौखलाहट इस कदर थी कि वह प्रश्न कर्ता से उसका ठौर ठिकाना पूछने लगे।
दूसरा तथ्य जो कन्नौज उन्हें सबसे प्यारी है वहां भी इनके कामकाज के कर्ता धर्ता इनके ही स्वजातीय हैं।

तीसरा मसला अमिताभ ठाकुर का तो है ही।
असल में उनकी मंशा राजनीति में सफाई की नहीं है, वह तो उन्हें जब बात बिगड़ती दिख रही है और पार्टी में शिवपाल की शंकाओं ने सिर उठाना शुरु किया है उन्हें अनायास शुचिता की याद आई है। अगर यह सच नहीं है तो गायत्री प्रजापति के खिलाफ लोक आयुक्त को मजबूत साक्ष्य दिए गए तब उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई। उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर सामर्थ्य की ज़रूरत की जरूरत है और यह सामर्थ्य चाचा के रहते संभव नहीं दिख रही है इसलिए निशाने पर आज चाचा हैं, कल कोई और होगा।
Akhilesh is more vocal racist than Mulayam