शाहनवाज़ आलम

मुसलमानों की बढ़ती हुई आबादी पर होने वाली बहसों में मुख्यतः दो स्वर होते हैं। पहला, जो कि हिन्दुत्ववादी जेहनीयत से संचालित होता है, वह भारत में मुसलमानों की बढ़ती हुई आबादी को देश की सुरक्षा पर मंडराते खतरे के बतौर प्रस्तुत करता है। जिसका मकसद आम हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ व्यापक भय को और ज्यादा बढ़ाना है। वहीं दूसरा खेमां जो सेक्यूलर बताता जाने वाले जेहनों से संचालित होता है, इसे भागवा ब्रिगेड द्वारा गढ़ा गया मिथ बताता है और इस मिथ को आंकड़ों के आधार पर तोड़ने की कोशिश करता है। जिसके निस्कर्ष अक्सर ऐसे होते हैं कि मुसलमानों की आबादी उस हद तक नहीं बढ़ी है, जितना कि हिन्दुत्ववादी अफवाहबाज बता रहे हैं और दूसरा आबादी का बढ़ना किसी रचनात्मक लाभ पाने का रहता है। वहीं दूसरा खेमां जो सेक्यूलर बताता जाने वाले जेहनों से संचालित होता है, इसे भागवा ब्रिगेड द्वारा गढ़ा गया मिथ बताता है और इस मिथ को आंकड़ों के आधार पर तोड़ने की कोशिश करता है, जिसे भागवा ब्रिगेड द्वारा गढ़ा गया मिथ बताता है और इस मिथ को आंकड़ों के आधार पर तोड़ने की कोशिश करता है।

अगर राजनैतिक नजरिए से देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि दोनों खेमों के तरकों में कोई खास फर्क नहीं है। पहला खेमां मुसलमानों की बढ़ती आबादी को खतरे की तरह देखता है और दूसरा खेमां उसे नकारते हुए यह बताता है कि मुसलमानों की आबादी नहीं बढ़ी है। हालांकि यह वजह मुसलमानों में व्याप्त अशिक्षा और आधुनिकीकरण की कमी है।

यदि राजनैतिक नजरिए से देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि दोनों खेमों के तरकों में कोई खास फर्क नहीं है। पहला खेमां मुसलमानों की बढ़ती आबादी को खतरे की तरह देखता है और दूसरा खेमां उसे नकारते हुए यह बताता है कि मुसलमानों की आबादी नहीं बढ़ी है। हालांकि यह वजह मुसलमानों में व्याप्त अशिक्षा और आधुनिकीकरण की कमी है।