मैडम बिन्ह और भारत

डॉ. गिरीश

वियतनाम की क्रांति की योद्धा न्गुऐन थि बिन्ह, जो मैडम बिन्ह नाम से प्रसिद्ध हैं, ने अपनी बहुत ही दिलचस्प आत्मकथा लिखी है। इस आत्मकथा में उन्होंने वियतनाम की क्रांति के दौरान भारत सरकार और भारतीय जनता द्वारा दिये गये सहयोग की कई जगह चर्चा की है। वह स्वाभाविक ही है क्योंकि उस समय हमारा देश साम्राज्यवाद विरोध और गुटनिरपेक्षता की नीति पर दृढ़ता से काम करता था और भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वियतनाम पर अमेरिकी हमलों की खुल कर निंदा की थी।

भारत की जनता, जिनमें कम्युनिस्ट पार्टियां अग्रणी थीं, ने अपनी आजादी, देश के एकीकरण और शांति की स्थापना के लिये संघर्षरत वियतनाम की जनता के प्रति गहरी एकजुटता का इजहार किया था। मैडम बिन्ह ने अपनी इस आत्मकथा में इस योगदान को कृतज्ञता के साथ रेखांकित किया है।

पर एक स्थान पर भारत के संबंध में अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने जो कुछ लिखा है वह बहुत ही रोचक और प्रासंगिक है. मुझे लगा कि इसे आप सबके साथ शेयर करना चाहिये.

अत: मैडम बिन्ह द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा- 'परिवार, दोस्त और देश' के पृष्ठ- 186 के पहले और दूसरे पैरों का अविकल पाठ प्रस्तुत है-

"समाजवादी चीन के अलावा मुझे एशिया के अनेक देशों की यात्रा का मौका मिला। भारत ने मेरे ऊपर गहरी छाप छोड़ी। हो ची मिन्ह की भारत में जबरदस्त प्रतिष्ठा और सम्मान है, विशेषकर कोलकाता और बंगाल में जहां कम्युनिस्ट पार्टी प्रभावशाली थी। भारत के लोगों को वियतनाम के संघर्ष के प्रति विशेष सहानुभूति थी। परंतु भारत में मुझे अमीर और गरीब के बीच में बहुत अधिक अंतर देखने को मिला। एक तरफ जहां राज्यपाल एक खूबसूरत महल में रहता है, जिसके चारों तरफ पार्क हैं या ऐसा वन है जिसमें हिरन विचरण करते रहते हैं; तो दूसरी तरफ नजदीक ही ऐसे लोग हैं जो बेहद गरीब थे।

मैं हैरान थी : ऐसी स्थिति क्यों है? क्या यह जातीय व्यवस्था की लंबी चली आ रही विरासत के कारण है? क्या यह धर्म के कारण है? राजनीतिक रुझानों के कारण है? लगभग दो सदी के ब्रिटिश आधिपत्य का नकारात्मक परिणाम है?

भारत के पास एक अतीत और शानदार संस्कृति है। आज उनके पास विशेषज्ञों की सबसे बड़ी संख्या है। यह असामान्य है, परंतु भारत में दो कम्युनिस्ट पार्टियां हैं।

मुझे यह लगता है कि भारत के लोग यदि अपनी जनता को और अधिक मजबूती से एकताबद्ध कर लें और अपने नागरिकों की क्षमताओं एवं अपने प्राकृतिक संसाधनों का पूरा फायदा उठायें, तो वह एक प्रमुख राजनीतिक एवं आर्थिक ताकत बन जायेंगे।"

दिसंबर 2015 में प्रकाशित इस आत्मकथा का उपर्युक्त अंश अपने आप ही बहुत कुछ कह जाता है और किसी टिप्पणी अथवा व्याख्या का मुंहताज नहीं है। लेकिन मैं अपनी ओर से केवल इतना जोड़ना चाहता हूँ कि भारत में आज दो नहीं कई कम्युनिस्ट पार्टियां हैं, जो अपने जन्म के वक्त मातृ पार्टी को संशोधनवादी बता कर अलग पार्टी गठित कर लेती हैं, लेकिन कुछ दशकों बाद या तो वाम संकीर्णता का शिकार होकर दम तोड़ देती हैं अथवा उसी रास्ते पर चल पड़ती हैं जिसकी आलोचना कर वे मातृ पार्टी से अलग हुयी थीं।