मैं द्विभाषी हूं। बांगला मातृभाषा है, लेकिन आदत की वजह से हिंदी बेहतर लिखता हूं। दोनों भाषाओं में मेरी कमज़ोरियां हैं। व्याकरण की ग़लतियां होती हैं - बांगला की पृष्ठभूमि के कारण लिंग के मामले में, ख़ासकर हिंदुस्तानी शब्दों के इस्तेमाल में। कोलकाता में दो-तीन बार मंच से बांगला में बोलना पड़ा है, और मैंने पाया कि मेरी भाषा क्लिष्ट है। हिंदी में भी जैसी सरल भाषा का इस्तेमाल करना चाहता हूं, कर नहीं पाता हूं। वैसे मेरी कविता और कहानी की भाषा सरल है।

बचपन से ही अंग्रेज़ी सीखने का शौक था।

स्कूल में माध्यम हिंदी था। कामचलाऊ अंग्रेज़ी आती है। मजबूरी में लिख भी लेता हूं, लेकिन मेरी भाषा आधुनिक नहीं है। पिछले सालों के दौरान मेरी अंग्रेज़ी में भी कठिन शब्दों का इस्तेमाल बढ़ गया है।

इन सभी मामलों में भाषाई परिवेश से दूर रहने, भाषाई अल्पसंख्यक होने व लिखने-पढ़ने-बोलने की ख़ास आदतों की एक भूमिका रही है। इनकी वजह से भाषा थोड़ी अटपटी होने के बावजूद उसका एक विशिष्ट चरित्र उभरा है, जिसे अपनी शैली समझने की ग़लतफ़हमी मैंने पाल रखी है।

36 साल से जर्मनी में हूं। जर्मन भाषा मैंने सड़क से उठाकर सीखी है। बाद में मूल भाषा में जर्मन साहित्य पढ़ा, कविताओं का अनुवाद किया। जर्मन भाषा में (प्रकाशन के लिये) लिखना भी पड़ा। पत्नी के साथ रवींद्रनाथ की कविताओं का अनुवाद भी किया। मेरा जर्मन सहज-सरल है। ग़लतियां होती हैं - बोलने में कुछ अधिक, लिखने में कम। फ़र्राटे से बोलता हूं, धीरे-धीरे पढ़ता हूं, रुक-रुककर लिखता हूं।

कहा जा सकता है कि भाषा के मामले में मैं पूरी तरह वर्णसंकर हूं।

किसी भी भाषा का इस्तेमाल करूं, वह बाक़ी तीन भाषाओं के संस्कार से किसी न किसी हद तक रंगी होती है।

शुद्धतावादी नहीं हूं, लेकिन जब किसी भाषा की आत्मा की हत्या होती है तो तकलीफ़ होती है, गुस्सा आता है। ख़ासकर हिंदी के मामले में ऐसा होता है।

क्या हिंदी से मेरा आत्मीय संबंध दूसरी भाषाओं से ज़्यादा है ?

कहना मुश्किल है, लेकिन इतना सच है कि सिर्फ़ हिंदी में ही मुझे पेशेवर तरीके से पेश आना पड़ा है - अपनी सीमाओं के बावजूद। लेखों और कुछ अनुवाद के अलावा मेरी सारी प्रकाशित रचनायें हिंदी मैं हैं। अन्य भाषाओं में ऐसी हिम्मत नहीं हुई, बांगला में भी नहीं।

हां, भाषा का सवाल मेरी पहचान से जुड़ा हुआ है। और इसलिये मेरी पहचान भी वर्णसंकर है, अल्पसंख्यक पहचान है। यह आसान नहीं है, लेकिन दिलचस्प है।

और हां - मैं हिंदी दिवस नहीं मनाता हूं। बांगला दिवस, अंग्रेज़ी दिवस या जर्मन दिवस भी नहीं। मेरे ख़्याल से शायद ऐसे दिवस होते भी नहीं हैं। 21 फ़रवरी का मातृभाषा दिवस थोड़ा अलग है। उसके कई कार्यक्रमों में गया हूं। पूर्वी पाकिस्तान मे जो युवा बांगला भाषा के लिये शहीद हुए थे, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने।

उज्ज्वल भट्टाचार्या

साढ़े तीन दशक से जर्मनी में रेडियो पत्रकार के रूप में कार्यरत; कहानियां व कवितायें आलोचना, हंस, पहल व अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित। ब्रेख्त की 101 कविताओं का संग्रह 'एकोत्तरशती'(वाणी प्रकाशन), एरिष फ़्रीड की 100 कविताओं का संग्रह 'वतन की तलाश'(वाणी) व हान्स माग्नुस एन्त्सेन्सबैर्गर की कविताओं का संग्रह 'भविष्य संगीत'(राधाकृष्ण प्रकाशन)। हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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