इस बार गाँव गया तो देखा कि वहां सड़क किनारे एक मंदिर बन गया है। इसके पहले वहां कोई मंदिर नहीं था। मंदिर तो गाँव से करीब पांच किलोमीटर दूर गोमती के किनारे धोपाप में था, मकसूदन में भी एक हनुमान जी का मंदिर (Hanuman ji temple) था, नरेंदापुर में भी एक मंदिर था, जिसमें वहां के बाबू साहेब ने एक पुजारी रख दिया था, जिसको वे कुछ तनखाह देते थे और वह सुबह शाम वहां पूजा कर देता था।

धोपाप के मंदिर में तो जेठ के दशहरा और कार्तिक की पूर्णिमा जैसे अवसरों पर भारी भीड़ होती थी, लेकिन ज़्यादातर लोग गोमती में स्नान (Bathing in Gomti) करके अपने घर चले जाते थे। मंदिर में जाने वालों की संख्या बहुत कम होती थी।

मेरे ब्लाक के कुछ गाँवों में शिवाला बने हुए हैं। पुराने ज़माने में किसी ज़मींदार ने बनवा दिया रहा होगा, लेकिन वहां भी कोई पूजा पाठ नहीं होता। सब खाली वीरान पड़े रहते हैं।

दर असल हमारे इलाके में लोग मंदिरों में जाकर पूजा पाठ नहीं करते, वहां केवल दर्शन करते हैं और अयोध्या, बिजेथुआ, जनवारी नाथ जैसे मंदिरों में जाकर चढ़ावा चढ़ाते हैं, जहां-वहां के मुक़ामी पंडित जी खुली तोंद के साथ विद्यमान रहते हैं और मंदिर के अधिस्थात्र देव की पूजा कर रहे होते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे गाँव में लोग अधार्मिक हैं।

मेरे गाँव की सबसे जीवंत दैवी शक्ति काली माई हैं, जो हर मुश्किल से गाँव के हर व्यक्ति की रक्षा सदा से ही करती रही हैं। मेरे बचपन में जब भी कोई ऐसी समस्या आती थी जिसका हल किसी इंसान के पास नहीं होता था, तो मेरी माँ काली माई की पूजा करके उसका समाधान निकालती थीं। जब भी कोई बीमारी हुई और एक दिन से ज़्यादा तबियत खराब रह गयी तो मेरी माँ काली माई का आह्वान करती थीं और सब कुछ ठीक हो जाता था। वे हर सोमवार और शुक्रवार को काली माई के स्थान पर जल चढ़ाने जाती थीं, वैसे भी अगर कभी कोई परेशानी आती थी तो काली माई से गुहार लगाई जाती थी।

मेरे गाँव में पचास के दशक में ईश्वर के जो स्वरूप (Nature of god) थे, उनमें काली माई सबसे प्रमुख थीं।

काली माई की जो छवि मैंने बचपन में देखी थी वह सभी संकटों का हरण करने वाली तो थीं, लेकिन वे किसी मूर्ति में नहीं गाँव के पूरब तरफ एक नीम के पेड़ में विराजती थीं। पेड़ के चारों तरफ पास के तालाब से मिट्टी लाकर चबूतरा बना दिया गया था। हर खुशी के मौके पर काली माई का दर्शन ज़रूर किया जाता था, लड़के की शादी के लिए जब बारात तैयार होती थी तो सबसे पहले काली माई का दर्शन होता था। लड़कियों की शादी में गाँव की इज्ज़त की रक्षा वही कालीमाई करती थीं। शादी व्याह के अनिवार्य कार्यक्रमों में काली माई के स्थान पर जाना प्रमुख था।

यह परम्परा अब तक चली आ रही है।

नीम का यह पेड़ मेरे गाँव के लोगों के लिए एक दैवीय शक्ति है और वही मेरे गांव की सामूहिक आस्था का केन्द्र है।

काली माई का स्थान मेरे मन से कभी बाहर नहीं जा सका। वह मेरे उस बचपन की आस्था का केंद्र बिंदु है जिसमें मेरी माँ, मेरी बड़ी बहन और कालीमाई के अलावा मेरा कोई भी रक्षक नहीं था।

सुल्तानपुर जिले के शोभीपुर गाँव में काली माई का यह स्थान अमिलिया तर के बाबू साहेब की ज़मीन में है, लेकिन उनके परिवार के किसी व्यक्ति ने कभी भी किसी को भी वहां जाने से नहीं रोका। यहाँ की पूजा में भी किसी पंडित या पुजारी की मध्यस्थता का प्रावधान नहीं था। जो भी वहां जाता था, अपने तरीके से पूजा कर लेता था। पूजा की भाषा भी वही होती थी जिसमें वह गाँव का व्यक्ति आम तौर पर बोलता था। अगर उस भाषा को नाम देना है तो अवधी कहा जा सकता है, लेकिन वह अवधी उसी शोभीपुर वाली थी, दर्द को बयान कर देने वाली अपनी तकलीफ और खुशी की भाषा।

मेरे गाँव के पड़ोस के गाँव वालों की अपनी काली माई थीं

नीम के पेड़ का सामाजिक जीवन में महत्व | Importance of Neem tree in social life,

हर गांव में एक ख़ास नीम के पेड़ की पूजा होती थी और वही उस गाँव की देवी थीं, अपनी गार्जियन देवी, काली माई। कुछ गांवों में शंकर जी भी देवता के रूप में पूजे जाते थे, उनका निवास उस गाँव के एक विशेष पीपल के पेड़ में हुआ करता था।

काली माई का महत्व (Importance of Kali Mai) सबसे ज्यादा था, हालांकि धार्मिक कार्यों में एक अन्य कार्य भी होता था, एक पंडित जी आकर सबके घरों में सत्यनारायण की कथा (Story of satyanarayan) सुनाते थे। सत्यनारायण की कथा थोड़ा खर्चीला काम था। देवताओं का आह्वान पंडित जी वहीं वेदी पर कर देते थे। पूजा पाठ हवन आदि सब वहीं होता था। अब भी होता है, आस पड़ोस के लोग भी कथा सुनने आते हैं, चनामृत मिलता है, पंजीरी मिलती है और कथा पूरी हो जाती है। सारी विधि संस्कृत में होती है। जबकि काली माई की पूजा लोग अपनी भाषा में अपने तरीके से करते थे।

आम तौर पर केवल जल चढ़ाकर, अगर कोई फूल मिल गया तो उसको भी चढ़ा दिया जाता था।

हर इंसान, अधिकतर माहिलायें अपना और अपने परिवार का कष्ट अपनी बोली में आराध्य को बता देती थीं और निश्चिन्त हो जाती थीं कि अब काली माई सब कुछ ठीक कर देंगीं।

इस बार जब मैंने अपने गाँव में नए मंदिर को देखा तो मुझे एक आशंका ने घेर लिया कि जिस गाँव में अब तक आराध्य से डायरेक्ट सम्पर्क का प्रावधान था , वहां कहीं कोई कमर्शियल पुजारी (Commercial priest) बिचौलिए के रूप में न हाज़िर हो जाए।।

शेष नारायण सिंह