कल हमने लिखा था, अंबेडकर के बाद हिंदू साम्राज्यावदी एजंडा में गौतम बुद्ध को समाहित करने की बारी है और आज इकोनामिक टाइम्स की खबर हैः

'बुद्ध डिप्लोमेसी' से एशिया में पावरफुल बनेगा भारत

हम नहीं जानते कि आप हमारा लिखा पढ़ते हैं या नहीं।

हम यह नहीं जानते कि आप तक हमारा लिखा पहुंचता है या नहीं।

हमारे परम मित्र सहकर्मी गुरुजी ने इन दिनों गुगल ब्राउज करना सीख लिया है और उसी से कसरतें करते रहते हैं।

आदरणीय डाक्टर मांधाता सिंह ने उनका जीमेल और गूगल प्लस एकाउंट भी खुलवा दिया है।

मित्र मंडली में उनने गुरुजी के नेटवर्क से मुझे भी जोड़ दिया है और रोज वे रोते रहते हैं कि मैं इतना क्यों लिखता हूं। वाजिब सवाल है।

कल वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय के जुझारु छात्र नेता फिल्मकार कुमार गौरव ने मुझसे अपनी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के लिए सुझाव मांगे तो उसके वेब साइट पर जाकर मैं विमर्श धुंआधार के बीच चकाचौंध हो गया। हमारी समझ में नही आ रहा है कि यह विश्वविद्यालय की अकादमिक पत्रिका है या और कुछ।

बेशक बहुत उम्दा और अंतरराष्ट्रीय है कुमार गौरव का यह प्रयास। लेकिन शायद उनके किसी काम न आ सकूं मैं क्योंकि विमर्श की अकादमिक भाषा में मैं सिरे से अजनबी हूं और न कोई विमर्श हमारे सरदर्द का सबब है।

लोगों की छपास का इलाज भी मेरे पास नहीं है।

हम जनसुनवाई का जो मंच बनाना चाहते हैं, उसमें भागेदारी का इरादा किसी का हो तो हम उन्हें यकीनन बता सकते हैं कि हमने अपने अनुभवों और संघर्षों से क्या सीखा है।

पहाड़ों से भी अजीबोगरीब सवाल दागे जाते हैं। जब हम हिमालय और हिमालयी जनता की बातें करते हैं और राजनीति और अस्मिता को खारिज करके इंसानियत और कायनात को बचाने के लिए कयामतों के खिलाफ मोर्चाबंदी की बात करते हैं, तो टिप्पणी होती है कि यह कौन पार्टी है भाई।

जब हम वैकल्पिक मीडिया की गुहार लगाते हैं तो विद्वतजन कहते हैंःस्वयंभू।

अंग्रेजी में लिखता हूं तो कोई विद्वान सलाह देते हैं कि अंग्रेजी पहले सीख लीजिये।

यह सच है दोस्तों, हमने अंग्रेजी और दूसरी भाषाएं बसंतीपुर में अपने गाय बैल भैंसों से सीखी हैं, क्योंकि कोई दूसरा सिखाने वाला नहीं था।

पहली बात तो यह कि किसी महान विमर्श में मैं हरगिज नहीं शामिल हूं और न शोध पत्र मैं लिखता हूं। मेरा लिखा न सेमिनार के लिए है और न प्रकाशन के लिए है।

जब आप बातचीत करते हैं तो क्या कहे हुए को रिबाइंड करके एडिट करके फिर विशुद्ध उच्चारण के साथ दोहराते तो नहीं है।

हम सूचना वंचित अपनी जनता को सूचनाएं देने वाले हरकरा हैं। फौरी मुद्दों पर फौरी लेखन। परचा या पंफलेट जैसा है हमारा लिखा। पढ़िये, हाथोंहाथ बांट दीजिये।

पसंद न आये तो फेंक दीजिये।

यह सहेजने की चीज नहीं है।

मैं खुद नहीं सहेजता।

दरअसल सच यह है कि हमें भाषा, वर्तनी, व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र की कोई ज्यादा परवाह नहीं है और न भाषाओं या फिर इंसानियत की दीवारों से हमें कोई मतलब है और हम उन्हें गिराने की हरसंभव कोशिश करते हैं।

इस लिहाज से हम बेतहजीब बददतमीज हैं बेअदब हैं।

हमें याद करने या याद रखने की भी जरूरत नहीं है।

हम तो जन्मजात अछूत है।

पत्रकारिता में माननीय प्रभाष जोशी से लेकर माननीय ओम थानवी तक ने बियोंड डाउट इसे साबित किया है कि किसी लायक हम हैं ही नहीं।

सुमंतो भट्टाचार्य के शब्दों में कहें तो हम डफर हैं।

सत्ता वर्ग से जिनका रिश्ता है, जो इस स्थाई बंदोबस्त को बनाये रखना चाहते हैं, बेहतर हो कि वे हमें पढ़ने की तकलीफ ही न करें क्योंकि हम उनके मतलब का कुछ लिखते नहीं है।

कभी नहीं लिखा है और न लिखेंगे और न हमें उनके इतिहास भूगोल में दर्ज होना है।

हम बेनागरिक शरणार्थी हैं।

बंगाल में पच्चीस साल बिता देने के बावजूद जनमजात बंगाली होने के बावजूद मुझे बंगाली कोई नहीं मानता।

तो हिमालय की गोद में पले बढ़े होने के बावजूद, शिराओं और धमनियों में मुकम्मल हिमालय होने के बावजूद मुझे कोई पहाड़ी मानने को तैयार नहीं है।

अमेरिका से सावधान पर लिखते हुए महाश्वेता देवी ने जो मुझे कुमायूंनी बंगाली कहा, शायद वही मुझे मिली एकमात्र मान्यता है।

इस बंगाल में मेरा कोई नहीं है।

उस हिमालय में मेरा कौन है, मुझे यह भी मालूम नहीं।

बसंतीपुर में जिन झपड़ियों में मेरे पिता, ताऊ और चाचा का साझा परिवार का बसेरा है, उसकी जमीन मैंने बंटने नहीं दी, यह मेरा सबसे बड़ा अपराध है शायद। क्योंकि अब मेरा कहीं कोई घर नहीं है।

वह बसंतीपुर जो मेरा है, सिर्फ मेरा है और बसंतीपुर वालों के लिए भी वह बसंतीपुर है नहीं, जो मेरा बसंतीपुर है। पुलिनबाबू और उनके साथियों के बिना वह बसंतीपुर बेमतलब है। हमारे साथ वे तमाम लोग आजू बाजू खड़े हैं जिन्हें बसंतीपुर वाले भी अब कभी महसूस नहीं करते।

भद्रलोक बंगाल से मेरी वापसी तय है जैसे हमारे पुरखों का पुनर्वास हुआ बंगाल के इतिहास और भूगोल से बाहर शरणार्थी उपनिवेश में।

वही उपनिवेश मेरा शरणस्थल बन सकेगा या नहीं, अभी हम कह नहीं सकते।

दिनेशपुर के जिला परिषद के जिस हाईस्कूल में हमारी पढ़ाई हुई, वहां तमाम विषयों के शिक्षकों के पद खाली होते थे और बाकी बचे खुचे टीचर ट्यूशन नहीं पढ़ाते थे।

उस शरणार्थी इलाके में ट्यूशन तो क्या इकन्नी महीने फीस देने लायक हैसियत भी हमारे लोगों के पास नहीं थी। न लोग पढ़े लिखे थे।

मेरे पिता पुलिन बाबू कक्षा दो पास थे।

मेरी मां तीसरी तक पढ़ी थी।

ताई छठीं तक।

चाची भी शायद तीसरी चौथी तक।

दादी एकदम अपढ़।

इनमें से किसी को फुरसत न थी कि हमारे होमवर्क साधे।

ताउजी संगीतकार थे। संगीत प्रेमी इसलिए सारा घर।

घर में संगीत शिक्षक जरूर रखा गया लेकिन हमसे सुर सधा नहीं।

चाचाजी उस वक्त पूरी तराई में साइकिल पर मरीज देखने दिन रात दौड़ा करते थे।

पिताजी अपढ़ हते हुए भी तमाम भाषाएं जानते थे और उन भाषाओं के अखबारों और साहित्य का जखीरा था हमारा घर।

चाचाजी को विश्व साहित्य का चस्का लगा था और उनकी दृष्टि वैज्ञानिक थी। वे कुछ भी कर सकते थे और उनके हम काम में मैं उनका शागिर्द।

अब भैंस की पीठ पर जो भाषाएं हमने सीखीं, कालेज विश्वविद्यालय लांघने के बावजूद उसमें अगर गोबर माटी की बदबू आती है, तो हम बुढ़ापे में उसे गंगाजल से पवित्र और विशुद्ध नहीं बना सकते।

हाल में हमने फिर एक दफा गंगा जमुना फिल्म फुरसत में देख ली।

गंगा जमुना का संवाद जिनने लिखा, संजोग से उनने ही मदर इंडिया औरमुगले आजम के संवाद भी लिखे।

संजोग से तीनों फिल्में भारतीय सिनेमा की अनिवार्य पाठ्य पुस्तकें हैं।

पर दुनियाभर की फिल्मों में मशहूर कैरेबियन पाइरेट्स से लेकर अपने यहां बनी शोले तक देख लीजिये कि गंगा जमुना का डकैत जो दिलीपकुमार बनबे करै हैं और उनकी जो धन्नों वैजंतीमाला कयामते हैं, ऐसा ठेठ देहात के गोबर माटी सने डकैती न मिलबै करै है।

एंग्री यंगमैन तो दिलीपकुमारो था।

आजाद में भी वह डकैत ही था। लेकिन परदे पर वे चीखे नहीं, उनकी मौजूदगी में हालाकिं परदा चीखै हैं, दर्शकों के दिलोदिमाग चीखै है।

सत्तर के दशक की समांतर फिल्मों के सामाजिक यथार्थ और मुक्तिकामी जनता के जीवन संघर्ष के दौर को खत्म करने के लिए चीखू सुल्तान एक एंग्री यंगमैन का अवतार हुई गयो, जिनकी देह में कविता भले ही बसती हो, देहात का गोबर माटी हुआ करै हैं, ऐसा कोई दुश्मन भी कह न सकै है।

वही शताब्दियों का सर्वकालीन अभिनेता है और बाजार का सर्वकालीन आइकन भी वहींच।

जइसन तेंदुलकरवा।

उकर करिश्मा ऐसा कि समांतर फिल्मों के साथ साथ गांव देहात के किस्से और सामाजिक यथार्थ और देहात के मुहावरों से लिपटी भारतीय फिल्में अब सिर्फ गोल्डन एरा है।

हमरा कसूर ई है मालिक कि दुनिया ससुरी मुक्त बाजार भयो अउर हमउ अभी दिलीपोकुमार बैजंती के फैन बानी।

त गंवार की भाखा जइसन होई सकत है, वइसन है हमरी।

जैसा लिखा, मतलब समझ लीजै, शायद आपके मतलब का हो।

हमसे गिरदा मूसलाधार बारिश या हिमपात के मध्य मालरोड पर ताल किनारे आधी आधी रात कहा करते थे कि अगर अपनी जनता, अपने समय के लिए कुछ करना चाहते हो तो सबसे पहले अपने को खत्म करना सीखो। अपनी पहचान बनाने , अपने को कालजयी बनाने की कवायद में फंसना नहीं।

हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने अपनी जनता के लिए सत्ता से सत्ता की भाषा में जनता के मुद्दों पर टकराने के वास्ते अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए हमें घेरे रहे और उनकी घेरेबंदी में संजोग से ऐसा लिखते वक्त भी हूं कि हमेशा डर लगा रहता है कि कब फोने पर कान खेंच लेंगे।

पिछले जाड़ों में गिरदा के रचनाकर्म के प्रकाशन की बात उठायी राजीव दाज्यू के सामने हमने तो उनने साफ-साफ कहा कि गिरदा ने लिखा ही कहां है। वह तो परचा और चिरकुट पर लिखने वाला ठैरा। वो तो शेखर ने उनके लिखे को सहेज कर कुछ छाप दिया, बाकी तो उसने जनता से जो लिया जनता को लौटा दिया।

करीब चार दशक पत्रकारिता में बिताने के बाद, देश भर में नब्वे के दशक तक लघु पत्रिकाओं में नियमित छपते रहने के बाद, अंग्रेजी में दुनिया भर के अखबारों में छपते रहने के बाद, दो कहानी संग्रह और बजट पर एक किताब के प्रकाशन के बाद हम चिरकुट या परचा के मालिक बतौर अपना दावा ठोंक नहीं हो सकते।

उस मलबे के मालिक तो अपने गिरदा ही हैं।

अब हम जब इस चलाचली के बेला में लिख रहे हैं, जब प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हमारे लिए कोई स्पेस नहीं है और कला विधाओं से हमारा कोई संबंध नहीं है।

विधिसम्मत नेट निपेक्षता के दौर में जैसे हमारे ब्लाग गायब होते रहते हैं, वैसे ही हम भी किसी दिन सिरे से डिलीट होने वाले हैं।

यह समूची कायनात तुम्हारे हवाले दोस्तों।

इस कायनात की सेहत के वास्ते हमें असंख्य गिरदा चाहिए। जो परचा और चिरकुट लिखकर हाथों हाथ हिमालय के उत्तुंग सिखरों से लेकर समुंदर की हर लहर तक को खबरदार कर दें आने वाली कयामतों के खिलाफ, जो मोर्चाबंद कर सकें जुल्मोसितम की नस्ली जनसंहारी आदमखोर हुकूमत के खिलाफ समूची इंसानियत को।

गुरुजी से रोज हमारा झगड़ा होता है कि वे खुद क्यों नहीं लिखते। वे लिखना शुरु करें तो हम कम लिखना शुरु कर देंगे। हमें तो उनके हिस्से का लेखन भी करना होता है।

आप जबतक खुदै नहीं लिखते तो तब तक हमें तो आपको झेलना ही पड़ेगा।

आप हमारे साथ हों या न हों, आपके पक्ष में आपके मोर्चे से तोपें तो हम दागेंगे ही।

हमारे गुरु जी कुंवारे हैं और दुनियाभर की अभिनेत्रियों , माडलों और सुपर माडलों से उनके मधुर संबंध हैं। उनमें से हर किसी के साथ उनके फोटू है। फोटू तो बाकी आइकनों के साथ भी हैं लेकिन अभिनेत्रियों के साथ फोटू खासमखास हैं, जिसका अलबम वे अमूमन साथ रखते हैं और उसीमें हम उनका दांपत्य खोजते रहे हैं।

हाल में सनी लियोनी से उनका आमना सामना हुआ और शायद संवाद भी हुआ। लौटकर बोले कि कितना भयानक सुंदर है। देखकर माथा खराब हो गया। उनका माथा इतना खराब रहा कि तसे लेकर हमारे यहां लीला की ही चर्चा है।

अभी हाल में फिर सनी लियोनी कोलकाता आयीं। खास मुहिम पर। कंडोम का कैसे इस्तेमाल किया जाये, यह सिखाने।

जाहिर है कि हम सबने गुरुजी को घेर लिया कि वे सनी लियोनी से सबक लेने क्यों मौके पर नहीं पहुंचे।

गुरुजी ने तड़ाक से कहाः मेरे पास मैन फोर्स नहीं है।

गुरुजी बहुत सत्य वचन बोल गये। यह मैन फोर्स किसके पास है और किनके पास नहीं है, पुरुष वर्चस्ववादी समाज में यह रहस्य अब चरम पर है। कोई जरुरी नहीं कि जिनके छप्पन इंच की छाती हो, उनके पास भी मैन फोर्स हो।

इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन मुश्किल यह है कि तमाम महापुरुषों के पास यह मैन फोर्स नहीं है और अपनी अधूरी दांपत्य का बदला वे दुनियाभर की स्त्रियों से ले रहे हैं। सुहाग रात से पहले पत्नी को छोड़ने वाले सीता को वनवास पर भेजने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही इस वर्चस्ववादी नस्ली समाज का सबसे बड़ा मिथक है।

हमारे ज्योतिष बन चुके पूर्व वामपंथी घनिष्ठ मित्र विनय बिहारी सिंह की उपलब्धि है कि उनने ओम थानवी को एक ईमेल किया कि कोलकाता में सबरंग तुरंत बंद कर दिया जाये और यहां भी रविवारीय छापा जाये।

कृपा शंकर चौबे और अरविंद चतुर्वेद के वीआरएस लेने के बाद विनयजी सबरंग निकाल रहे थे और उन्हें यह झमेला रास नहीं आ रहा था।

वे मानते थे कि कंपनी उन्हें नौकरी में लेकर फंस चुकी है और काम करें या न करें, पगार तो मिलेगी ही।

वे अमूमन कहा करते थे कि बूढ़ा तोता राम राम नहीं सीखता।

वे सबरंग के लिए मेहनत नहीं करना चाहते थे। तो ओम थानवी जी ने तुरंत उनका सुझाव मान लिया और बंद हो गया सबरंग।

इसी तरह चूंकि कंपोजिंग करने वाला कोलकाता में कोई बचा नहीं, यहां से वार्षिक अंक भी बंद करवा दिया थानवी ने।

हमने अपने मित्र शैलेंद्र जी के रिटायर होने पर चिंता जतायी तो उनने दो महीने पहले ही उनकी सेवा जारी रखने की घोषणा कर दी और कह दिया कि कोलकाता में किसी का प्रोमोशन करा पाते तो उनको बहुत अच्छा लगता।

वे हमारा प्रोमोशन न करा सकें, हमें इसकी शिकायत नहीं है।

माननीय प्रभाष जोशी और माननीय श्याम आचार्य ने ही जब हम सबको एक्सप्रेस के गोदाम में सहेजने का फैसला कर लिया तो हम थानवी जी की शिकायत नहीं कर सकते।

कल इलाहाबाद से हमारे मित्र शैलेंद्र रिटायर हो गये और दस दिनों की छुट्टी पर चले गये। वापस लौटेंगे तो फिर एक ब्रेक के बाद उनकी सेवा शुरु हो जायेगी।

ओम थानवी ने फिर वायदा निभाया है। ऐसा किसी संपादक ने इससे पहले किया नहीं है, इसके लिए आभार।

अगले साल बंगाल में विधानसभा चुनाव है। वामदलों की वापसी की कठिन लड़ाई है मोदी दीदी गठबंधन के खिलाफ। कम से कम एक अखबार में तो वाम प्रतिबद्ध संपादक है, जिस अखबार की साख भी है, यह निश्चय ही कामरेड महासचिव सीताराम येचुरी के लिए राहत की बात है और मेरे साथ उन्हें भी थानवी जी को धन्यवाद कहना चाहिए।

पलाश विश्वास