मोगा में अराजकता और सुविधा की राजनीति
मोगा में अराजकता और सुविधा की राजनीति
मोगा में अराजकता और सुविधा की राजनीति
मोगा, पंजाब में जो घटना घटी, वह भारतीय राजनीति का विकृत रूप है। जिस गाड़ी से दो महिलाओं को धकेला गया वह गाड़ी पंजाब के मुख्यमंत्री की अपनी गाड़ी थी। ऑर्बिट के नाम से चलने वाली गाड़ियाँ बादल परिवार की अपनी सम्पत्ति हैं। मुझे नहीं पता कि ऑर्बिट नाम के इस ट्रांसपोर्ट कम्पनी में कितनी गाड़ियाँ होंगी, किन्तु इतना तय है कि 1947 से चलने वाली इस ट्रांसपोर्ट कम्पनी के पास सैंकड़ों गाड़ियाँ तो अवश्य होंगी। क्योंकि पिछले 6 दशक से तो बादल परिवार पंजाब की राजनीति में अपनी धमक बनाये हुये ही है।
राजनैतिक परिवारों के लोगों का इस तरह व्यवसाय में सक्रिय होकर राजनीति करना बहुत आम बात है, किन्तु पिछली सदी के पचास के दशक में यह बात लोगों के गले से नहीं उतरती होगी कि एक बस का मालिक जनता की नुमाइन्दगी करे। यह वह दौर था जब राजनीति का मतलब समाज सेवा था ना कि व्यवसाय, जो कि आज सभी राज्यों के राजनैतिज्ञों के परिवारों में फल-फूल रहा है। 1947 में भी बादल आर्बिट ट्रांसपोर्ट कम्पनी के मालिक थे यानि कि पंजाब की जनता ने तभी स्वीकार कर लिया था, बड़े आश्चर्य की बात है। वैसे यह भी सच है कि पंजाब के लोग उसूलों के पक्के कम होते हैं, वे शुद्ध व्यवसायी होते हैं, काम निकालना उन्हें आता है। काम निकालने की प्रक्रिया में वे किसी भी हद तक समझौता करने के लिये आमादा रहते हैं। और यही कारण है कि पंजाब हर तरह के भ्रष्टाचार का जननी राज्य रहा है। उन्होंने पचास के दशक में ही ऐसे राजनैतिक व्यक्ति को स्वीकार कर लिया था जो व्यवसायी था। पंजाब की नकल दूसरे राज्य भी करते हैं। पंजाब से लगे प्रदेश जैसे हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राज्यों में यह रोग बड़ी तेजी के साथ फैलता है। फिर धीरे-धीरे करके पूरा देश इस रोग से ग्रसित हो जाता है। पंजाब के दूर के प्रदेशों की आम जनता चाहे इस रोग से अछूती रहे, किन्तु वहाँ के राजनैतिज्ञ अछूते नहीं रहते हैं। फलतः आलम यह है कि देश की पूरी की पूरी राजनीति ऐसे ही व्यवसाई लोगों के हाथ में चली गयी है। ऐसे बड़े-बड़े व्यवसाई अकूत सम्पत्ति दावँ पर लगाकर राजनीति में कूद पड़ते हैं। राजनीति में एक स्थान प्राप्त कर अपने व्यवसाय को निर्बाध गति से बढ़ाने का कार्य बखूबी करते हैं। इन व्यवसाइयों के राजनीति में प्रवेश करने का परिणाम यह भी सामने था कि जो राजनैतिक व्यक्ति समाज सेवा के उद्देश्य से राजनीति में आये थे उन्हें भी समझौते करने पड़ गये, वह भी समाज सेवा का उद्देश्य किनारे रख व्यवसाय में जुट गये। हिन्दुस्तान का व्यवसायी तो शुद्ध व्यवसायी होता है उसका व्यवसाय फलना फूलना चाहिये, व्यवसाय को यदि राजनैतिक संरक्षण मिला हुआ हो तो फिर क्या कहने मोगा की घटना आम बात है।
अरूण शौरी को लेकर भाजपाई बौखलाये हुये हैं। भाजपाइयों की दुखती रग पर जब कोई हाथ रखता है तो उनके मुखर प्रवक्ताओं की तिलमिलाहट देखने वाली होती है। भाजपा एक उग्र संगठन है उनकी बयानबाजी में उग्रता स्वाभाविक है। अरूण शौरी, नटवर सिंह जैसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो राजनीति में सक्रिय रहते हैं। ये सुविधा भोगी राजनैतिज्ञ हैं। लच्छेदार बातें, अच्छी अंग्रेजी बोलना इनकी खासियत होती है। इनका अपना कोई जनाधार नहीं होता है, किन्तु जनाधार वाले सरल नेताओं को वेबकूफ बनाने की महारत इन्हें हासिल होती है। जिस पतरी में खाते हैं, छेद भी उसी पतरी में बखूबी करते हैं। राजनीति में इनके आने का उद्देश्य देश सेवा नहीं, बल्कि स्वयं की सेवा होता है। ये लोग दिल्ली की रंगीन शामों के चमकते सितारे होते हैं। इन लोगों से राजनैतिक दलों की फेस लिफ्टिंग होती है ऐसा ये लोग दावा करते हुये उस दल में प्रवेश पाते हैं। और प्रवेश पाते ही सालों से संघर्ष कर राजनीति की लाइन में लगे लोगों को धकियाते हुये मलाईदार कुर्सी पर जा बैठते हैं। लेकिन अरूण शौरी ने जो भी कहा उसमें अतिश्योक्ति नहीं है। यह बात अलग है कि मंत्रिमण्डल में स्थान न पाने की वजह से शौरी क्षुब्ध हों, लेकिन मोदी की आर्थिक नीतियों को बहुत सही आयना शौरी ने दिखा दिया है। चिन्तन की आवश्यकता है किन्तु जिस प्रकार मोदी पूरी तानाशाही के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं मुझे नहीं लगता कि उन्हें ऐसे निन्दकों की परवाह करने की आवश्यकता होगी। यही प्रवृत्ति तो व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती है।
लगता है कि राहुल गाँधी ने विदेश में 2 माह रहकर गहन चिन्तन किया है। वे ऊर्जा से भरे हुये लगते हैं और जब से उन्होंने केदारनाथ की यात्रा की है उनके बयान के मुताबिक वहाँ पर जो इलैक्ट्रिक शॉक भगवान शिव ने दिया है उससे तो वह ऊर्जा से पूरी तरह भर गये हैं। अब उनके सब्र का पैमाना छलक उठा है वह जहाँ भी जाते हैं क्षण में ही पूरी समस्या से वाकिफ हो जाते हैं फिर पूरी दुनिया को ललकारने लगते हैं। ऐसा ही विपक्ष का नेता देश को चाहिये था। लेकिन सोशल मीडिया पर जिस प्रकार टिप्पणियाँ जारी हैं उनको पढ़ने के बाद राहुल का चेहरा देखते ही हँसी फूटने लगती है। लोकसभा में बेचारे सांसद इस हँसी से कैसे निपटते हैं, यह भी शोध का विषय हो सकता है। किन्तु क्या हमारे राहुल भइया का मजाक ऐसे ही बनता रहेगा? एक संवेदनशील नेता का माखौल बनाना भी उचित नहीं है वरना काइयाँ राजनेताओं को मौका मिलता रहेगा, समझने की आवश्यकता है। विपक्ष में सबसे बड़ा दल काँग्रेस ही है प्रजातंत्र में विपक्ष बहुत महत्वपूर्ण होता है काँग्रेस की मजबूरी राहुल गाँधी हैं। देश की जनता को कांग्रेस की इस मजबूरी को समझना चाहिये उसे राहुल गाँधी को स्वीकार लेना चाहिये वैसे ये कोई घाटे का सौदा नहीं है सिर्फ समझने का फेर है।
0 अनामदास


