मोदी होने का मतलब

-अरुण माहेश्वरी

मोदी का पतन सबको साफ दिखाई दे रहा है और यह भी दिखाई दे रहा है कि उनका पतन किन्हीं बाहरी कारणों से नहीं, उनके अपने आंतरिक कारणों से ही हो रहा है। बाहरी परिस्थितियाँ तो उल्टे उन्हें सहारा दे रही है। तेल के अन्तरराष्ट्रीय मूल्यों में कमी ने भारत सरकार के आर्थिक संकट को क़ाबू में रखा हुआ है।

बहरहाल, सवाल यह है कि मोदी के इस लगातार तेज़ पतन को तत्त्वत: कैसे समझा जाए ?

हर द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में एक ऐसा पहलू उसकी मुख्य चालिका शक्ति के रूप में काम करता रहता है जो ग़ैर-द्वंद्वात्मक होता है। कहा जा सकता है भेदाभेद में अभेद की तरह ही। यह उस प्रक्रिया के किसी बाहरी प्रस्थान बिंदु में नहीं, उसके अंदर ही निहित होता है। हेगेल ने द्वंद्वात्मक विकास में इस ग़ैर-द्वंद्वात्मक तत्व को एक प्रकार का नकारात्मक या बाधक तत्व कहा है। फ्रायड मनोरोगियों के मामले में इसे उनकी मृत्युकांक्षा (death drive) बताते हैं। अंदर का एक ऐसा तत्व जो बार-बार परिस्थिति या आदमी को घेरता रहता है, उसे अपने वृत्त से निकलने नहीं देता। उसके इस दोहराव में, आवृत्ति में उन्नति का कोई लक्षण नहीं होता और चीजें उसीमें अटकी रह जाती हैं।

मोदी में इस नकारात्मकता अथवा मृत्युकांक्षा का तत्व है आरएसएस के उनके अपरिवर्तनीय, ग़ैर-द्वंद्वात्मक संस्कार। यही संस्कार जहाँ उन्हें जनता के विरुद्ध दक्षिणपंथी नीतियों से बांधे रखता है, वहीं उन्हें भारत के वैविध्य को अपनाते हुए आगे बढ़ने से भी रोकता है। यह कानाफूसियों, झूठे प्रचार, चालाकियों और चकमाबाजियों का भी संस्कार है। मोदी घूम-घूम कर उसी में फँसे रह जाते हैं। सच से दूर रहना उनकी नैसर्गिकता है।

उनकी अपनी इन अन्तरबाधाओं से मुक्ति नहीं है। इन्होंने बीमार मन में लगभग मृत्युकांक्षा का रूप ले लिया है। वे नोटबंदी, जीएसटी की तरह की बेहूदगियों के अतिरिक्त अंत में बार-बार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में फँस कर रह जाते हैं। इनके पास जन कल्याण की कोई मूलगामी अवधारणा हो ही नहीं सकती है, जो इन्हें व्यापक जनता के जीवन के हितों से जोड़े।

और, इसीलिये मोदी भारत के लिये उपयुक्त साबित नहीं हो रहे हैं। जैसे ट्रंप अमेरिका के लिये उपयुक्त नहीं है।