नरेन्द्र कुमार आर्य

नरेन्द्र मोदी प्रशासित गुजरात में न सिर्फ सरकारी मशीनरी बल्कि निजी संस्थान भी नरेन्द्र मोदी की नस्लीय सोच से ग्रस्त हैं, इसका खुलासा और प्रमाण टाइम्स ऑफ़ इंडिया (11 अगस्त 2013) में मुसलमानों के साथ किये जा रहे प्रतिक्रियावादी, भेद-भाव पूर्ण बर्ताव, दोयम दर्जे का व्यवहार, अपमान और बहिष्कार करने की हर संभव कोशिश में नज़र आता है। पूँजीवाद, भूमण्डलीकरण और आधुनिकता के घालमेल के प्रतीक माल्स में जानबूझकर और छाँट- छाँट कर मुस्लिम आगंतुकों से वसूलने की साम्प्रदायिक मानसिकता में देखी जा सकती है। ये फीस जिसे हम अगर अतीतवादी इतिहास के नज़रिए से देखें तो जजिया भी कह सकते हैं यद्यपि सिर्फ बिम्बात्मक है किन्तु ये एक स्टीरियोटाइपड दृष्टिकोण, मन:स्थिति में गहराई तक घुस चुकी पृथकतावादी नीति और नीयत तथा असमानता को बढ़ावा देनेवाले पूर्वाग्रहों से त्रस्त विचारों का अश्लील प्रदर्शन है। सार्वजनिक और विदेशी पूँजीनिवेश सिर्फ संगठित क्षेत्र में होता है जहाँ मुस्लिम और अन्य कमज़ोर वर्गों की पहुँच नहीं है उन्हें राज्य द्वारा प्रदान की जा रही सेवाओं का लाभ लगभग नगण्य है क्योंकि अधिकांश लोग स्वनियोजित हैं और छोटे-छोटे उपक्रमों में लगे हैं। पूँजीपंथी दाऊदी बोहरा और खोजा मुस्लिम जैसी व्यापारिक अस्मिताएं अवसरवादिता की राजनीति में मोदी के नरम मुखोटे में ज़रूर फिट बैठती हैं। (फरवरी 2011 में दाऊदी बोहरा समुदाय की नुमायन्दगी में बुरहानी उद्योग एक्सपो के उद्घाटन के लिये मोदी को बुलाया गया था और उसके एक संचालक ने कहा अतीत अब अतीत हो चुका है।) मगर वो व्यापारिक जातियाँ हैं और प्रारम्भ से ही कई पीढ़ियों से इसमें लगी हैं, आम तबके तक इसका कोई लाभ नहीं पहुँच रहा है।
नेशनल कौंसिल ऑफ़ ऐपलाएड इकॉनोमिक रिसर्च की एक रिपोर्ट (2011) के अनुसार शहरी मुस्लिम आबादी, जो की गुजरात की कुल आबादी का 6% है, उच्चवर्गीय हिन्दुओं के मुकाबले 80% एवं अन्य हिन्दू समुदायों के मुकाबले 20% तक गरीबी का शिकार हुये हैं। यानि न सिर्फ मुसलमान बल्कि आबादी का बहुसंख्यक वर्ग गुजराती विकास की अवधारणा और उसके फ़ायदों की परिधि में कहीं फिट नहीं बैठता। राजकीय संसाधनाओं और सेवाओं के बँटवारे में भी पक्षपात किया जा रहा है। माध्यमिक शिक्षा का स्तर सिर्फ अनूसूचित जातियों और जनजातियों के लगभग बराबर है जबकि अन्य हिन्दू वर्गों के मुकाबले केवल आधा है 41% के सम्मुख केवल 26%। उच्च शिक्षा में मुस्लिम सामजिक और आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा पिछड़े अनूसूचित जातियों और जनजातियों से पीछे है।

नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी के एक सशक्त नेता बना कर उभारे जा रहे हैं। इसकी एक वजह उनका पिछले कई सालों से गुजरात में मीडिया द्वारा सुनियोजित रूप से चलाये जा रहे एक तथाकथित सफल और विकासवादी मुख्यमंत्री की छवि का प्रचार-प्रसार भी है, जिस पर करोड़ों रूपये खर्च किये जा रहे हैं। मगर इस सारी कवायद के पीछे छुपा है उनके काल में घटित रक्त और अत्याचार का सांप्रदायिक खेल. मुसलमानों के साथ आज़ाद भारत में कभी इस तरह का भेद-भाव और नस्लीय सलूक नहीं किया गया जैसा समकालीन गुजरात में किया जा रहा है।

मोदी की नजर में मुसलमानों की वही स्थिति है जो नाजीवादी नेताओं की नज़र में यहूदियों, रोमा या जिप्सियों (पूर्वी यूरोप के घुम्मकड़ समुदाय जो मूलतः मध्य काल में भारत से वहाँ पहुँचे थे। हिटलर के गैस चैम्बरों और इरादतन हत्या का शिकार होने वाले लोगों में इनकी संख्या भी लाखों में थी मगर क्योंकि यहूदियों की तरह रोमा लोग न तो बौद्धिक और न ही आर्थिक क्षेत्र में वैश्विक रूप से प्रभुत्वशाली लोग हैं इसीलिए इसकी जानकारी तुलनात्मक रूप से अधिक-पढ़े लिखे लोगों को भी नहीं है) अथवा साम्यवादी लोगों जैसी है। मोदी को मुसलामानों के नरसंहार पर कोई ‘अफ़सोस’ नहीं सिर्फ ‘दुःख’ होता है जैसे किसी ‘पिल्ले’ के मरने पर और समाजवादी पार्टी के इस बयान से आहत नेता कमल फारूकी को कहना पड़ता है कि “मुस्लिम (मोदी की नज़र में ) जानवरों से भी गए –गुज़रे हैं।)

इससे पहले भी अपने एक आलेख में मैंने देखा है कि दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी संगठनों के सहयोग और अपनी सोच में उनके अन्दर फासीवाद प्रवृतियों की स्पष्ट छवियाँ देखी जा सकती हैं। एक संप्रदाय और समुदाय विशेष के प्रति उपरोक्त सोच में फासीवादी नेताओं और नरेन्द्र मोदी के विचारों में ये साम्यता सहज ही दृष्टव्य है। न इसमें समुदायों के प्रति सम्मान और समानता की भावना है न ही व्यक्तियों की संप्रभुता के प्रति आदर। इस भेदभाव पूर्ण नज़रिए को फ़ासीवाद शव्दावली में डी-ह्यूमेनैज़शन या अमानवीकरण कहा जाता है जिसमे समुदायों और व्यक्तियों को न्यूनतम मानवीय गरिमा और मूलभूत समानता के अधिकारों से सम्प्रक्त एक गैर-मानवीय वस्तु बना दिया जाता है। मुस्लिम बिरादरी के अलगाव, दबाब, अ-सशक्तिकरण और मानसिक रूप से मनोबल तोड़ने की चहुंतरफा रणनीति चला रही है ताकि इस समुदाय से इतिहास में हुई हार का बदला लिया जा सके और साथ ही साथ दोयम दरजे के नागरिक में तब्दील कर दिया जाये। एक लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए यह असंभव प्रकार की राजनीतिक स्थिति है कि कोई दोयम दरजे का नागरिक हो क्योंकि ‘नागरिकता’ एकल और सम्मान अधिकारों वाले वाले व्यक्तियों के के राजनीतिक अधिकारों की स्थिति है। ये गैर-संवैधानिक और मानवीय अधिकारों के खिलाफ भी है। नरेन्द्र मोदी की सरपरस्ती वाले हिन्दुत्ववादी संगठन इसी फासीवादी मुहिम के तहत काम कर रहे हैं। पहले उनके निशाने पर मुस्लिम हैं फिर इसाई होंगे फिर बौद्ध, दलित और न जाने कौन-कौन इस मानसिकता का शिकार बन सकता है। ये तथाकथित ‘राष्ट्रवादी’ संगठन अपनी विखंडनकारी राजनीति और सांस्कृतिक कट्टरता के कारण राष्ट्रीयताओं के कितने संस्करण खड़े कर देंगे इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है।