मोदी के राज को संघ बिना किसी कठिनाई के अपने रास्ते पर चला रहा है
मोदी के राज को संघ बिना किसी कठिनाई के अपने रास्ते पर चला रहा है
आरएसएस के हृदय परिवर्तन की खोज में
गौरी लंकेश की कायरतापूर्ण हत्या के खिलाफ उठे विशेष रूप से मुखर तबकों के विक्षोभ के ज्वार में स्वाभाविक रूप से दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी राजनीति पर तीखे सवाल उठे हैं। प्रत्यक्ष तथा कानून में मान्य साक्ष्यों का सवाल अपनी जगह, इस आम धारणा को नकारा नहीं जा सकता है कि गौरी लंकेश की हत्या, कलबुर्गी, पानसरे तथा दाभोलकर की हत्याओं की शृंखला की ही अगली कड़ी है और इन हत्याओं के लिए न सिर्फ सत्तारूढ़ होने की हद तक हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार से बना पर्यावरण जिम्मेदार है बल्कि प्रत्यक्ष रूप से भी इन हत्याओं के तार कहीं न कहीं हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़ते हैं।
आखिरकार, यह संयोग ही नहीं है कि पानसरे तथा दाभोलकर की हत्या के सिलसिले में अब तक की जांच ने सनातन संस्था से जुड़े लोगों की ओर ही इशारा किया है।
और यह भी कोई संयोग ही नहीं है कि गौरी लंकेश की शारीरिक हत्या के फौरन बाद, तरह-तरह से इस हत्या को सेलिब्रेट करते हुए सोशल मीडिया पर हिंदुत्ववादी ट्रोल सेना ने हमला बोला है, जिसने परोक्ष रूप से ही सही, अपने मुखर वैचारिक विरोधियों की हत्या की राजनीति में संघ परिवार की संलिप्तता की पुष्टि जरूर की है। इस धारणा को और पुख्ता किया है इस तथ्य के उजागर होने ने कि गौरी लंकेश की हत्या को ‘सेलिब्रेट’ करने वाले ट्रोलों में ऐसे ट्विटर हैंडल शामिल हैं जो न सिर्फ उन कुछ सौ ट्विटर हैंडलों में आते हैं जिन्हें प्रधानमंत्री फॉलो करते हैं बल्कि जिन्हें संघ परिवार की डिजिटल सेना के योद्धाओं के रूप में खुद प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित किए जाने से लेकर, भाजपा के साइबर सैल का हिस्सा होने तक, भाजपा-आरएसएस का औपचारिक अनुमोदन भी हासिल है।
आरएसएस प्रमुख, मोहन भागवत ने पिछले हफ्ते राजधानी में एक संघ प्रायोजित आयोजन में, करीब पचास राजनयिकों की उपस्थिति में आरएसएस के सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग के पक्ष में नहीं होने की जो बात कही, उसे ठीक इसी पृष्ठभूमि में रखकर देखा जाना चाहिए।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
जाहिर है कि यहां से देखने पर आरएसएस प्रमुख, संघ परिवार की ट्रोल सेना की अति-सक्रियता से हुए नुकसान को कंट्रोल करने की कोशिश करते ही नजर आते हैं। यह उनके आरएसएस के ट्रोलिंग के खिलाफ होने के लिए यह सिद्धांत पेश करने के बावजूद है कि ट्रोलिंग का अर्थ कमर के नीचे प्रहार करना है और आरएसएस ऐसे आक्रामक बर्ताव को सही नहीं समझता है।
बहरहाल, यह अपनी ही ट्रोल सेना की करतूतों से सुरक्षित दूरी बनाने और डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश का ही मामला ज्यादा लगता है और यह मानना मुश्किल है कि भागवत ने संघ-भाजपा की ट्रोल सेना को अपनी दुकान बंद करने का ही निर्देश दे दिया है। इसमें, ‘समावेशीपन तथा सहिष्णुता’ के पक्ष में आरएसएस का किसी तरह का हृदय परिवर्तन खोजना, जैसाकि एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने अपने संपादकीय में किया है, और भी बेतुका है।
बेशक, अग्रेजी दैनिक ने आएसएस के हृदय परिवर्तन की अपनी खोज का आधार सिर्फ ट्रोलिंग के भागवत के जुबानी विरोध को ही नहीं बनाया है। विदेशी राजनयिकों के सामने अपने उसी संबोधन में भागवत के यह कहने को भी इस खोज का आधार बनाया गया है कि हिंदू धर्म, आहार तथा पोशाक की संहिताएं तय नहीं करता है। इसे सिर्फ संयोग मानना मुश्किल है कि इससे एक-दो रोज पहले ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी, स्वामी विवेकानंद के शिकागो संबोधन की 125वीं सालगिरह पर अपने संबोधन में, विवेकानंद के ही हवाले से ‘क्या खाना है, क्या नहीं खाना है’ के विवाद की निरर्थकता पर जोर दिया था। लेकिन, संघी ट्रोलों की तरह यह भी, संघी ‘गोरक्षकों’ की करतूतों से हुए नुकसान को कंट्रोल करने का ही मामला ज्यादा लगता है।
याद रहे कि प्रधानमंत्री के पिछले दो साल में कम से कम तीन बार ‘नकली गोरक्षकों’ और उनकी हिंसा के खिलाफ बोलने के बावजूद, मवेशी व्यापार तथा व्यापारियों पर शारीरिक हमलों से लेकर पाबंदियों तक का शोर घटने के बजाए बढ़ा ही है। मवेशी व्यापार पर विवादास्पद पाबंदियों की अधिसूचना इसी का एक सबूत है। भागवत के उक्त बयान के बाद भी इन तरह-तरह के ‘गोरक्षकों’ के उत्साह में कोई कमी होगी, यह मानना मुश्किल है।
विदेशी राजनयिकों के सामने आरएसएस की छवि चमकाने और हिंदू धर्म के और इसलिए आरएसएस के आहार तथा पोशाक की संहिताएं थोपने के पक्ष में नहीं होने के अपने दावे को सच साबित करने की कोशिश में, आरएसएस प्रमुख ने कुछ वैचारिक-सैद्घांतिक करतब भी दिखाने की कोशिश की। ये करतब हालांकि नये नहीं हैं, फिर भी हिंदू धर्म को, उससे जुड़े धार्मिक आचार से ऊपर उठाकर, एक अमूर्त सांस्कृतिक पहचान बताने की आरएसएस की उन कोशिशों में कुछ बारीकी लाए जाने को जरूर दिखाते हैं, जिनके आधार पर विदेशी राजनयिकों से उक्त चर्चा के आस-पास ही, भागवत के ही यह दावा करने की खबर आयी थी, दुनिया भर में एकमात्र हिंदू ही धर्म है, बाकी सब संप्रदाय या रिलीजन हैं! कहने की जरूरत नहीं है कि हिंदू श्रेष्ठतावाद या बहुसंख्यकवाद और सांप्रदायिकता में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है।
बहरहाल, राजनयिकों के सामने बोलते हुए भागवत ने हिंदू-नैस या हिंदूपन और हिंदू-इज्म या हिंदूवाद में भेद बताने के जरिए, यह दिखाने की कोशिश की कि आरएसएस का हिंदूकरण का विचार, हिंदू धार्मिक आचारों से जुड़ी सीमाओं से, जो हिंदू-इज्म के दायरे में आती हैं, ऊपर है। इसी क्रम में भागवत ने यह भारी-भरकम लगने वाला सूत्रीकरण भी पेश किया बताते हैं कि, ‘हिंदूपन, हिंदू-इज्म (हिंदूवाद) का निरंतर परिवर्तनशील गुण है।’ लेकिन, भागवत की इस सारी बारीक कताई के बावजूद, कम से कम इसका कोई संकेत तक नहीं मिलता है कि संघ परिवार, कथित ‘गोरक्षा’ की ही तरह, कथित ‘घर वापसी’ से लेकर, ‘लव जेहाद’ तक के अपने अभियानों से किसी भी तरह से हाथ खींच रहा है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि हिंदू की संघ की परिभाषा की उदारता तथा उदात्तता का सारा पाखंड, वास्तव में हिंदू की उसकी परिभाषा के सांप्रदायिक चेहरे को ढांपने की ही कोशिश का हिस्सा है। संघ के वास्तविक आचरण की इस सचाई को भूलकर, उसकी शाब्दिक या मौखिक उदारता को ही ज्यादा गंभीरता से लेना, जान-बूझकर भ्रमित होना ही माना जाएगा, जिसके लिए कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया ने कोई कोशिश छोड़ी नहीं है।
आरएसएस प्रमुख, भागवत ने इसी आयोजन में ऐसा ही पाखंड, भाजपा और आरएसएस के रिश्तों के मामले में भी किया।
भाजपा के आरएसएस से स्वतंत्र होने के अपने पुराने झूठ को ही जरा नया मुखलेप लगाकर पेश करते हुए, भागवत ने दावा किया कि,
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
‘‘संघ, भाजपा को नहीं चलाता है, भाजपा भी संघ को नहीं चलाती है। स्वयंसेवकों के नाते हम परामर्श करते हैं, विचारों का लेन-देन करते हैं, लेकिन अपने काम-काज में स्वतंत्र हैं।’’
लेकिन, यह दावा इतना अविश्वसनीय है कि लगता है कि खुद संघ प्रमुख को ‘काम-काज में स्वतंत्रता’ के अपने ही दावे पर शायद विश्वास नहीं हुआ। इसलिए, आरएसएस से कुछ ही वर्ष पहले भाजपा में डेपुटेशन पर भेजे गए, उसके मीडियामुखी स्वयंसेवक, राम माधव द्वारा खुद ट्वीट कर दी गयी जानकारी के अनुसार, भागवत ने बाद में यह भी जोड़ा कि वैसे तो आरएसएस राजनीति से दूर रहता है, फिर भी सरकार के फैसले उससे प्रभावित भी हो सकते हैं क्योंकि बहुत से मंत्री संघ का हिस्सा हैं। अब अगर मंत्रियों के संघ का हिस्सा होने से सरकार की नीतियां संघ से प्रभावित हो सकती हैं, तो सरकार के नेता, प्रधानमंत्री के संघ का स्वयंसेवक होने से क्या होगा, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इसके बाद, भागवत भले ही इसके कितने ही दावे करें कि ‘उनकी अपने क्षेत्र में सत्ता है और प्रधानमंत्री की अपने क्षेत्र में’, उनके प्रधानमंत्री से ‘अच्छा संपर्क’ होने और उनके साथ ‘स्वतंत्र’ रूप से अनेकानेक मुद्दों पर चर्चा करने के बयान का सिर्फ और सिर्फ एक ही अर्थ होता है-मोदी के राज को संघ बिना किसी कठिनाई के अपने रास्ते पर चला रहा है।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
भागवत-मोदी जुगलबंदी ही आज का राजनीतिक सच है। और यह जुगलबंदी भारत के अपना धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक स्वरूप त्यागकर, एक असहिष्णु , सांप्रदायिक तथा तानाशाहीपूर्ण हिंदू राष्ट्र बनने की ओर तेजी से धकेले जाने का ही सबूत है न, कि आरएसएस के किसी हृदय परिवर्तन का। 0


