मोदी महाराज सोने की चिड़िया इंडिया को कितनी बार किस-किस के हाथों बेचने का इंतजाम कर रहे हैं
मोदी महाराज सोने की चिड़िया इंडिया को कितनी बार किस-किस के हाथों बेचने का इंतजाम कर रहे हैं

जीना है तो मरना सीखो, कदम कदम पर लड़ना सीखो
उद्योगपति वही जो पीएम मन भाये। आंकड़े वहीं, जो एफएम बनायें। बुलरन वहीं, जो आरबीआई की कटौती दर। विकास वही जो कहर बरपाये।
बीस ट्रिलियन डॉलर (Twenty trillion dollars) की चमचमाती इकोनॉमी में अंध मध्ययुग का पुनरूत्थान। भारत फिर वही सांप सपेरों, ओझा, साधुओं साध्वियों, जादू, तत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष और योग वियोग का देश, बाकीर सालाना चालीस बिलियन डॉलर की विदेशी पूंजी का अबाध निवेश...
हम तो अपने आसपास खूब देख रहे हैं कि एक मकान, एक दुकान, एक जमीन कई-कई दफा फर्जी कागजात के सहारे बिकते हुए।
तो मोदी महाराज ई सोने की चिड़िया जो इंडिया रहबै करै हैं, उसे कितनी बार किस-किस के हाथों बेचने का इंतजाम कर रहे हैं और ई का कि दुनिया भर के हुक्मरान भी वइसन बुरबकै बनेला है, जइसन हमार इंडिया इंक।
इस महानगरीय उपनगरीय जीवनगाथा और सीमेंट सभ्यता में अब भी कामगारों के हाथ और उनकी कड़ी मेहनत मशक्कत का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि वातानुकूलित सभ्यता के नागरिक नागरिकाओं को उनके जीने मरने से कुछ लेना देना नहीं है।
संगठित क्षेत्र के जो सात फीसद कामगार थे, मोदी के अश्वमेधी पराक्रम और एफडीआी राज में साल भर में सिमटकर वह दो फीसद कम होकर पांच फीसद के आसपास है। तमाम रंगबिरंगी विचारधाराओं के लोगों की फिक्र सिर्फ इन सिमटते हुए, मरते खपते हुए पांच फीसद सुखी मलाईदार तबके के लिए है।
बाकी पचानब्वे फीसद जो हिंदू राष्ट्र शत प्रतिशत बने या नहीं, लेबर रिफॉर्म और निजीकरण, ग्लोबीकरण, उदारीकरण की वजह से शत प्रतिशत अंसगठित क्षेत्र में समाहित संगठित क्षेत्र के ही कामगारों का कुनबा बनने जा रहा है, उसके नागरिक और मानवाधिकारों, बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं में कोई सुधार इस अश्वमेधी सुधार कार्यक्रम में होने नही जा रहा है।
जिस तेजी से ट्वेन्टी ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी (Twenty trillion dollar economy) बनाने के लिए पूरे देश को डिजिटल, बायोमैट्रिक, रोबोटिक बनाया जा रहा है, जिस अंधाधुंध तरीके से हम स्मार्ट सिटी बन रहे हैं, उसके तहत तो किसानों की छोड़िये, जिनकी हजामत मान्यवर शरद पवार दशकों से ऐसे बनाते रहे हैं कि चाहे हर किसान के घर बबुआ राहुल युवराज नहाये, खाये, भारत के खेत खलिहान में या तो हिमालयी जलप्रलय हैं या फिर विदर्भ का सूखा या मराठवाड़ा का दुष्काल- रीटेल एफडीआई और ईटेलिंग की महिमा से खुदरा कारोबार भी विदेशी पूंजी के हवाले है और इंडिया इंक भी अब फटेहाल इस तरह हो रहा है कि मुकेश अंबानी अब अव्वल नंबर है ही नहीं।
सत्ता आशार्वीद से रक्षा सौदों और रेडियोएक्टिव विकास के नये-नये सौदागर केसरिया गुजराती माडल पीपीपीपिया हैं। उद्योगपति वहींच जो पीएम मन भाये। आंकड़े वहीं, जो एफएम बनायें। बुलरन वहीं, जो आरबीआई की कटौती दर। विकास वही जो कहर बरपाये।
ऐसी है ट्वेन्टी ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी की वैदिकी सभ्यता।
मोदी सरकार ने कर दिया बालश्रम का कानूनीकरण
http://www.hastakshep.com/old/बालश्रम-का-कानूनीकरण
यह जलवा है सालाना चालीस बिलियन डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश का कि मुकेश अंबानी की हैसियत भी खतरे में और दसों दिशाओं में सनी लिओन की अनंत लीला का दिलफरेब जलवा।
लोकप्रियता में मुकाबला अब अपने बड़बोले फेंकू पीएम और जलवा बिखेरती सनी लिओन के बीच है, यही है वैदिकी सभ्यता का विकास।
हम तो दुर्मुख है कि अप्रियभाषण ही हमारा आचरण है, हनारे जो रामबिहारी नये नये नानाजी हैं, यानी नाना बन गये ठैरे जो भूलकर भी हमारा लिखा पढ़ते नहीं है और न हमसे तनिको प्रभावित हैं और नियमित पांचजन्य, आर्गेनाइजर बांचते हैं बाकी प्रिंट के अलावा, उनने पाइंट आउट किया जो वह माथापच्ची के लिए काफी है।
रामबिहारी का विश्लेषण हमारी भी आंखें खोल देता है अक्सर। नाना बन गया तो क्या, अबहुं जवान है चालीस छुआ है अभी। गुरुजी के वे भी असली चेले हैं। समझे बूझै बहुत है, पण लिखेंगे नहीं।
रामबिहारी को भी यह समझ में नहीं आ रहा है कि हर देश से थोक भाव से समझौते करके मोदी महाराज जो हर देश के साथ बुलेट ट्रेन, स्मार्टसिटी, न्यूक्लियर रिएक्टर, इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर वपावर सेक्टर तक में निवेश का न्यौता बांट रहे हैं तो आखेर जमीन पर ठेका मिलेगा किसे।
चीन जापान कोरिया से लेकर स्वीडन और कनाडा तक के साथ स्मार्ट बुलेट करार, तो आखेर फाइनल एग्रीमेंटवा किसके साथ हुई गवा रे बाप।
सुबह सवेरे बांग्लादेश क सबसे लोकप्रिय अखबार प्रथम आलो ने खबर दी है कि सऊदी अरब में और जल्लादों की जरूरत है -
আরও জল্লাদ লাগবে সৌদি আরবে
www.prothom-alo.com/life-style/article/532018
तनिक इंडिया के सत्तावर्ग से संपर्क साधें सऊदी के हुक्मरान, हमारे सफेद पोश सत्तावर्ग तो मुकम्मल जल्लादों का तबका है। आम जनता को सूली पर चढ़ाते हैं रोज तो जनता के हकहकूक की आवाज उठाने वाले लोगों को फांसी पर लटकाते हैं। और तो और कलेजा इतना सख्त है कि कन्याभ्रूण की हत्या हो या दहेज उत्पीड़न या कास्टिंग काउच, निर्मम बलात्कार संस्कृति में अव्वल नंबर है। उनकी सेवा भी लीजिये।
Voices against the Monsanto Green Revolution are being raised in Bangladesh
उधर बांगलादेश में लेकिन मोसांटो हरित क्रांति के खिलाफ आवाजें उठने लगी है और मोसमी फलों की सेहत खातिर सड़कों पर लामबंद होने लगे हैं लोग। न जाने हमारी नींद कब खुलेगी।
মৌসুমি ফল বিষমুক্ত করার দাবি
www.prothom-alo.com/bangladesh/article/532021
मोदी जो फेंक रहे हैं अपनी विश्व परिक्रमा के मीडिया चकाचौंध में और विकास के ट्रिकलिंग ट्वेंटी ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी से सारी समस्याओं का हल निकालने की बात कर रहे हैं, उससे हमारी तो क्या अडानी अंबानी और मित्तल जैसे लोगों को छोड़कर भारतीय उद्योग जगत को क्या फायदा हो रहा है, साल भर के मीडिया ब्लिट्ज के बाद इंडिया इंक को भी समझ में नहीं आ रहा है।
अब संघी खेमे के इतिहासकार, अर्थशास्त्री वगैरह-वगैरह मैदान में हैं और जगदीश भागवती जैसे विश्वश्रेष्ठ वैदिकी अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि फेंकू महाराज कुछ ज्यादा ही फेंक रहे हैं बीस ट्रिलियन इकोनॉमी की हांककर और सुधार रातोंरात लागू हो नहीं सकते। यकीन न हो तो कल के इकानोमिक टाइम्स के पहले पेज पर बुल रन का किस्सा ए तिसलिस्मो बांच लीजिये।
सुधारों का जलवा यह है कि हमारे आसपास तमाम पचास लाख टकिया करोड़ टकिया फ्लैटों का बहुमंजिली जंगल घनघोर है। कांचकल की मजदूर बस्ती अभी उखाड़ी जानी है और कांचकल में सुपर शापिंग कांप्लेक्स वैसे ही बनना है जैसे बंगाल के मैनचेस्टर हुगली के आर पार और बीटी रोड को दोनों तरफ बन रहे हैं।
कुछ लोगों के पास इफरात पैसे हैं तो अनेक लोगों के पास सर छपाने की जगह तक नहीं है। जो जलजंगल जमीन नागरिकता आजीविका से लगातार बेदखल होते जा रहै हैं और जिनके हिस्से में आपदाओं के सिवाय कुछभी नहीं है। जैसे हिमालयी गैरनस्ली जनता, जैसे पूरा का पूरा आदिवासी अस्पृश्य भूगोल।
गायपट्टी की सवर्ण आर्यसंततियों को यह रसायनशास्त्र समझ में नहीं आयेगा कि गाय पर निबंध न लिखा पाना अपराध है, गोहत्या के लिए दस साल की सजा है, तो कानून के राज से वंचित क्यों हैं इस देश के बहुजन। मिथकीयआस्था के ताने बाने में सलवाजुड़ुम और आफसा बाकी देश के लिए सरदर्द है ही नहीं कि इस अनंत बेदखली अभियान के खिलाफ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कोई हलचल हो जबकि खुलेआम शत प्रतिशत हिंदुत्व का अंध मध्ययुगीन अतीत के महिमामंडन के साथ पूरा भारत महाभारत है।
कुछ लोग हैं जिनके बच्चे पहली में दाखिला लें तो इसी सोदपुर में पचास लाख तक डोनेशन हैं। डोनेशन दीजिये, लाखों की फीस भरिये, फिर चाहे जो बनाना है, डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर से लेकर सफेदपोश मजदूर या आईटी बंधुआ, बनते रहिये।
गरीबों के बच्चों को रइस तबके के बराबर शिक्षा नहीं मिलती जाहिर है और सर्वशिक्षा की खिचड़ी ही उनकी नियति है, यह भी सही है। लेकिन जो काबिल बच्चे तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करते हुए परीक्षाओं में निनानब्वे फीसद तक नंबर ला रहे हैं, उन्हें आगे रोजगार मिले या न मिलें, फिलहाल उनके दाखिले की भारी समस्या है।
चिकित्सा तो फिर भगवान भरोसे हैं। हर हाथ में स्मार्टफोन। गले में रंगबरंगे यंत्र। उंगलियों में ग्रहों को साधने वाले रत्न। फिरभी जिंदगी फजीहत हुई जाती है।
फिर भी हिंदुत्व की नरक यंत्रणा में दाखिले के लिए बहुजनों की भागदौड़ केसरिया सत्ता के जूठन के खातिर।
पलाश विश्वास


