मोदी राज के दलित प्रेम की खुलती कलई... दलितों की गर्जना ने मोदी राज की चूलें हिला दी हैं
मोदी राज के दलित प्रेम की खुलती कलई... दलितों की गर्जना ने मोदी राज की चूलें हिला दी हैं

राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।
दलित संगठनों का 2 अप्रैल का भारत बंद, हालांकि औपचारिक रूप से अनुसूचित जाति/ जनजाति अत्याचार निवारण कानून के पहले ही कमजोर अमल को और कमजोर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ था, व्यवहार में मोदी सरकार के खिलाफ और विशेष रूप से हिंदी भाषी राज्यों में भाजपायी राज्य सरकारों के भी खिलाफ, दलितों के गुस्से के अभूतपूर्व विस्फोट में बदल गया। बेशक, मुख्यधारा के मीडिया ने और जाहिर है कि सत्ताधारी भाजपा-आरएसएस के इशारे पर, जिस तरह इस बंद को ‘‘हिंसक’’ बनाकर पेश किया है, वह अनुपातहीन, पूर्वाग्रही और सरासर गलत है। मिसाल के तौर पर इस देशव्यापी बंद के दौरान हुई ग्यारह मौतों को उसके ‘‘हिंसक’’ होने के स्वयंसिद्ध सबूत के रूप में पेश करते हुए, बड़ी चतुराई से भुला दिया गया कि इन सभी मामलों में मरने वाले बंद के समर्थक या दलित थे। नौ मौतें मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा-शासित राज्यों में पुलिस की गोली से हुई थीं और दो मौतें भाजपा शासित मध्य प्रदेश में ही बंद-विरोधियों की गोलियों से। इसे तो दलितों के बंद पर सरकारी और गैर-सरकारी ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया के अति-हिंसक होने का ही सबूत माना जाएगा। दूसरी ओर, यह बंद कम से कम इस लिहाज से हिंसक हर्गिज नहीं था कि इसमें किसी भी बंद विरोधी की या तटस्थों की जान जाना तो दूर, न किसी को गंभीर चोटें आयी थीं और न ही उनके दूकानों या घरों के जलाए जाने जैसा कोई नुकसान हुआ था। प्रदर्शनकारियों का विक्षोभ, मुख्यत: सरकारी प्रतीकों तथा सरकारी संपत्तियों तक ही सीमित था। सही-गलत से परे, इसके पीछे छुपी निराशा तथा हताशा और उसके कारणों को पहचानना जरूरी है।
सभी जानते हैं कि हालांकि ताजा विस्फोट का फौरी कारण सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जुड़ा हुआ था, फिर भी इस मामले में मोदी सरकार की भूमिका भी कोई संदेह से परे नहीं रही थी।
मोदी सरकार पर लगे सुप्रीम कोर्ट केे फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने में देरी के आरोप निराधार ही नहीं हैं। सचाई यह है कि शुरूआत में सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले पर मोदी सरकार का रुख वाकई दुविधाग्रस्त था। और यह स्वाभाविक ही था। आखिरकार, यह कोई संयोग ही नहीं था कि उक्त निर्णय सुनाने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने जब केंद्र सरकार से उसका पक्ष जानना चाहता था, सरकार के वकीलों ने इस मामले में हस्तक्षेप करना जरूरी ही नहीं समझा था। जाहिर है कि उन्होंने सरकार के रुख को भांपकर ही ऐसा किया था। और मोदी सरकार का मूूल रुख संचालित था, संघ परिवार के बुनियादी तौर सवर्णवादी आग्रहों से। इन आग्रहों के अनुसार, दलित अत्याचार निवारण कानून जैसे हस्तक्षेप, दलितों के साथ अत्याचार की अतिरंजित शिकायतों के आधार पर, सवर्णों के साथ अनुचित रूप से अन्याय ही करते हैं और इसलिए, इस तरह के कानूनों से साथ कथित आरोपियों कि बचाव की जितनी व्यवस्थाएं जोड़ी जाएं, कम हैं।
वास्तव में यह भी संयोग ही नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की उसी बैंच ने इससे पहले, कानून के दुरुपयोग से निर्दोष आरोपितों का बचाव करने की ठीक इसी दलील के आधार पर, महिलाओं के साथ घरेलू हिंसाविरोधी कानून को कमजोर करने का भी ऐसा ही फैसला सुनाया था। वास्तव में उक्त महिलाविरोधी फैसले के खिलाफ तो मोदी सरकार ने अब तक कोई पुनर्विचार याचिका तक दायर नहीं की है। यह संघ परिवार के बुनियादी सवर्णतावादी, मर्दवादी मूल्यों का ही प्रभाव था-जिनके प्रभाव से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी अछूते नहीं लगते हैं-कि मोदी सरकार शुरू में इन दोनों ही फैसलों के साथ नजर आ रही थी। यह दूसरी बात है कि बाद में दलितों की नाराजगी की राजनीतिक कीमत के बारे में सोचकर, उसे अपने मूल आग्रह के साथ समझौता करना पड़ा। वास्तव में यह होते हुए भी पूरे देश ने देखा था। विपक्ष के और दलित संगठनों के यह प्रश्न उठाने के बाद, पहले सरकार में भाजपा के सहयोगी दलों के तथा खुद भाजपा के दलित सांसदों ने, पुनर्विचार याचिका के पक्ष में आवाज उठानी शुरू की। उसके बाद, सहयोगी पार्टियों के दलित मंत्रियों ने अपनी आवाज उठायी। यहां तक कि रामदास अठावले ने तो अपनी ओर से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिक भी डाल दी। उसके बाद भाजपा के दलित मंत्रियों ने आवाज उठायी। उसके बाद भी कानून मंत्री ने अगर-मगर जोडक़र ही जरूरी कदम उठाने की बात कही थी, जबकि ऐसे हरेक मामले की तरह इस मामले में भी प्रधानमंत्री चुप्पी ही साधे रहे थे।
बहरहाल, ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश से सपा-बसपा की एकता की बढ़ती चुनौती ने, मोदी सरकार को इस मामले में दुविधा छोडऩे पर मजबूर कर दिया। आखिरकार, सरकार की ओर से विवादित फैसले के खिलाफ उसी रोज पुनर्विचार याचिका दायर की गयी, जिस रोज दलित संगठनों ने इसी मुद्दे पर भारत बंद का आह्वन किया था।
इस बंद से न सिर्फ दलित खासतौर पर हिंदी-पट्टी के राज्यों में जुझारू तरीके से भाजापा की केंद्र तथा राज्यों की सरकारों के खिलाफ खड़े नजर आए बल्कि दलित-प्रेम के अपने सारे पाखंड के बावजूद, ये सरकारें और उन्हें चलाने वाली सामाजिक ताकतें भी, दलितों के खिलाफ खड़ी नजर आयीं। यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि न सिर्फ भाजपा-शासित मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश (खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में, पुलिस ने दलित प्रदर्शनकारियों के खिलाफ विशेष रूप से ट्रिगर हैप्पीनैस का प्रदर्शन किया बल्कि इन राज्यों में तथा खासतौर पर चंबल संभाग में तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, बंद विरोधी सवर्ण प्रभुत्ववादियों द्वारा बंद समर्थकों के खिलाफ हिंसा भी की गयी। मध्य प्रदेश में बंद के दिन दो मौतें इसी हिंसा में हुई थीं। और यह दलितविरोधी हमला इतने पर ही नहीं रुक गया। एक ओर अगर बंद की हिंसा के दोषियों की धर-पकड़ के नाम पर भाजपाशासित राज्यों की पुलिस ने बेहिसाब जुल्म तथा ज्यादतियों से अपने तथा अपने राजनीतिक आकाओं के दलितविरोधी चरित्र का नंगा प्रदर्शन किया, तो दूसरी ओर सवर्ण प्रभुत्ववादी गिरोहों ने सूचियां बनाकर दलित कार्यकर्ताओं को छांटकर निशाना बनाने का खेल शुरू कर दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसी ही सूचियों के आधार पर एक दलित कार्यकर्ता की हत्या भी की जा चुकी है। इसके साथ ही इन राज्यों में आंबेडकर की प्रतिमाओं के तोड़े जाने की भी लहर चल पड़ी है।
जाहिर है कि इन सचाइयों के सामने नरेंद्र मोदी सरकार का ‘आंबेडकर का सबसे ज्यादा सम्मान करने’ का स्वांग काम नहीं कर रहा है। इंग्लेंड तक आंबेडकर के स्मारक बनवाने के उसके कारनामे, उसके बुनियादी दलितविरोधी रुख अमल को ढांप नहीं पा रहे हैं। अचरज नहीं कि इसकी धमक दूर तक सुनाई दे रही है।
इसी सचाई को सामने लाते हुए, एक के बाद एक, खुद भाजपा के, खासतौर पर उत्तर प्रदेश के दलित सांसदों ने, दलितों के साथ न्याय नहीं होने के सवाल सार्वजनिक रूप से उठाने शुरू कर दिए हैं। इनमें खुद योगी के रवैये से लेकर, बंद के बाद धर-पकड़ में पूरे समुदाय के उत्पीडऩ तक के सवाल शामिल हैं, लेकिन ये सवाल यहीं तक सीमित नहीं हैं। उधर उत्तर प्रदेश में एसबीएसपी तथा अपना दल ने भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह के सामने बाकायदा अपना पिछड़ों के हितों का ख्याल रखे जाने का मांगपत्र पेश किया है, तो बिहार में नीतीश कुमार के जदयू समेत, राजग के सभी गैर-भाजपा घटकों ने एक दबाव समूह बना लिया है, हालांकि रामविलास पासवान ने यह साफ करना जरूरी समझा है कि उनमें से कोई भी राजग को नहीं छोड़ रहा है।
साफ है कि दलितों की गर्जना ने मोदी राज की चूलें हिला दी हैं। नरेंद्र मोदी सिर्फ दलित प्रतीकों के प्रति श्रद्धा के प्रदर्शनों तथा बयानबाजी से ही इसका मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं। उनके दुर्भाग्य से संघ-भाजपा की विचारधारा इससे ज्यादा की इजाजत ही नहीं देती है। यह मोदी के मिशन-2019 के लिए एक बड़ा खतरा है।
राजेंद्र शर्मा
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Web title : The Dalit love of Modi Raj is openly blown… The roar of the Dalits has shaken the heart of Modi's rule.


