Hastakshep.com-Uncategorized-

राजेंद्र शर्मा

इसे मोदी राज के अंत की शुरूआत कहना शायद जल्दबाजी होगी। पर मोदी राज के उस पाखंड के अंत की शुरूआत जरूर हो गयी है, जिसने न सिर्फ 2014 में मोदी को पूर्ण बहुमत दिलाया था बल्कि उसके बाद भी आरएसएस नियंत्रित सरकार के असली चेहरे को अब तक काफी हद तक ढांपे रखा था।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों के आर्य समाजी शास्त्रार्थों की याद दिलाते हुए, लेखकों ने ‘‘पाखंड खंडिनी पताका’’ गाढ़ दी है। मौजूदा राज के ‘‘विकास और सुशासन’’ के मुखौटे को अब खुरच-खुरच कर उतारा जाएगा। बिहार के विधानसभाई चुनाव के नतीजे इस प्रक्रिया को जबर्दस्त वेग देने वाले साबित होते हैं या नहीं, यह तो अगले महीने पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि इस पाखंड के अंत की बाकायदा शुरूआत हो चुकी है।

देश के विधिवत रूप से सम्मानित लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी तथा दूसरे भी सम्मान लौटाए जाने की जैसी बाढ़ आयी है, उससे इतना तो साफ ही है कि यह पिछले अर्से में लगातार जमा होते रहे विरोध और विक्षोभ का मामला है, जो आखिरकार एक विस्फोट के साथ ज्वार के रूप में सामने आया है। मौजूदा शासन के कुछ क्षमाप्रार्थी चतुराई से इस विस्फोट के लिए जिम्मेदार किसी आखिरी ‘‘चोट’’ की ओर ही बहस को भटकाने की कोशिश कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगर यह विक्षोभ कन्नड़ विवेकवादी लेखक कलबुर्गी की हत्या पर है, तब तो इसका निशाना कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार की ओर होना चाहिए। अगर यह विक्षोभ गोमांस खाने/ रखने के संदेह में दादरी के अखलाक की हत्या पर है, तो इसका निशाना उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार पर होना चाहिए। गुलाम अली के कंसर्ट के रद्द किए जाने से लेकर, सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर कालिख पोते जाने तक, सभी के लिए अपनी सरकार की कोई जिम्मेदारी न बनने

का दावा तो खुद प्रधानमंत्री, बड़ी मुश्किल से इन सब को ‘‘दु:खद और अस्वीकार्य’’ बताने के लिए अपना ‘‘मुंह खोलते’’ हुए कर चुके हैं।

यह भी संयोग ही नहीं है कि प्रधानमंत्री हफ्तों के बाद इन घटनाओं पर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए भी, इसकी शिकायत करना नहीं भूले कि उनकी पार्टी पर ऐसे सवाल पहले भी उठते रहे हैं। प्रधानमंत्री के इस बयान से ही संकेत ग्रहण करते हुए, सत्ताधारी पार्टी के विभिन्न प्रवक्ता टेलीविजनी बहसों में यह गिनाने में लग गए कि अगर लेखक वाकई जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति सच्चे होते तो इससे पहले भी किन-किन घटनाओं पर उन्होंने ऐसे ही अपना विरोध जताया होता। तब विरोध नहीं जताया और अब मोदी के राज में जता रहे हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि लेखकों का विरोध, नैतिक नहीं राजनीतिक है!

वास्तव में मोदी सरकार में कम से कम वैचारिक हैसियत से नंबर-दो दर्जे के दावेदार, अरुण जेटली ने तो बाकायदा सार्वजनिक रूप से यह दावा भी किया है लेखकों का विरोध, वास्तव में ‘दूसरे उपायों से विरोध की राजनीति करने’ का मामला है!

उधर, जैसे इसी के पूरक के रूप में, लेखकों के विरोध को दिग्भ्रमित साबित करने की कोशिश में, इसकी शिकायतें भी शुरू हो गयीं कि सम्मानों की वापसी के जरिए साहित्य अकादमी को क्यों निशाना बनाया जा रहा है? यह तो साहित्य से जुड़े लोगों की स्वायत्त संस्था है, उसका बाकी देश में जो कुछ हो रहा है उससे क्या लेना-देना है। कुछ वरिष्ठों ने यह भी इशारा किया है कि ऐसे समय में ऐसी स्वायत्त संस्था को कमजोर करना ठीक नहीं है! खुद अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष ने, जिनके बचाव में उनके निर्वाचित अध्यक्ष होने से लेकर एक हिंदी लेखक के इस पद पर कम ही पहुंचने तक की विचित्र दुहाइयां तक उछाली गयी हैं, अकादमी की स्वायत्तता की ऐसी ही दलील दी थी।

यह दूसरी बात है कि उन्हीं की अध्यक्षता में अकादमी की स्वायत्तता का वास्तव में यह हाल है कि इस अकादमी को लेखक संगठनों के तथा अनेक जाने-माने लेखकों के मांग करने के बावजूद, कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ विरोध/ शोक सभा का आयोजन तक करना मंजूर नहीं हुआ था, जबकि अपने विचारों के लिए हत्यारों की गोलियों का निशाना बने कलबुर्गी को, न सिर्फ उसी साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया था बल्कि वह इस अकादमी की कुल बीस सदस्यीय कार्यकारिणी के सदस्य भी रहे थे।

वास्तव में कर्नाटक से बाहर सम्मानों की वापसी और खासतौर साहित्य अकादमी के सम्मानों की वापसी की शुरूआत करते हुए जाने-माने कथाकार उदय प्रकाश ने तो अपना सम्मान लौटाते हुए, कलबुर्गी की हत्या और उस पर साहित्य अकादमी की चुप्पी का ही सवाल उठाया था। वास्तव में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखक, गणेश देवी को भी इस बात की खास नाराजगी थी कि कलबुर्गी की हत्या के एक सप्ताह बाद ही साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित एक सेमिनार में, जिसमें वह भी आमंत्रित थे, खुद अकादमी द्वारा सम्मानित साहित्यकार की हत्या के खिलाफ एक शब्द तक नहीं कहा गया था।

साहित्य अकादमी सम्मानों की वापसी के तूफान का रूप लेने के बावजूद, अकादमी बोर्ड की आपत बैठक न बुलाने के लिए अकादमी के अध्यक्ष ने उसमें ‘‘बहुत ज्यादा खर्चा’’ आने का तर्क भी दिया था! साफ है कि मौजूदा-शासन के संदर्भ में साहित्य अकादमी ने शायद ही किसी स्वायत्तता प्रदर्शन किया है और अकादमी के इस मोड़ ने लेखकों को निराश तथा नाराज ही किया है।

फिर भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि लेखकों की नाराजगी, सिर्फ या मुख्यत: साहित्य अकादमी से नहीं है। संगीत नाटक अकादमी से लेकर, कन्नड़ तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और देश के शीर्ष पद्म सम्मानों तक के लौटाए जाने से यह खुद ब खुद साफ हो जाता है। वास्तव में अपने पुरस्कार लौटाते हुए लेखकों द्वारा अलग-अलग जारी किए गए बयानों से भी साफ है कि उनकी नाराजगी और विरोध की वजह सिर्फ कोई कोई खास घटना भरनहीं है, फिर चाहे वह कलबुर्गी की या इखलाक हत्या जैसी घटनाएं ही क्यों न हों। लेखकों की चिंता और बेचैनी, जिसने अब विस्फोट का रूप ले लिया है, वास्तव में उस समूची परिस्थिति पर है, जो पिछले कुछ वर्षों में देश में बनी है और जिसने नरेंद्र मोदी के शासन के घोषित-अघोषित-अद्र्घघोषित अनुमोदन से, तूफानी तेजी पकड़ ली है। यह वह परिस्थिति है जिसमें एक उदार, जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, समताकामी समाज व संस्कृति के ताने-बाने तथा तत्वों को पलटते हुए कट्टïरपंथी, पश्चगामी, अलोकतांत्रिक, बहुसंख्यकवादी और समताविरोधी ताकतों, रुझानों, तत्वों का बोलबाला स्थापित करने की मुहिम, शासन के अनुमोदन से चल रही है।

कलबुर्गी की हत्या सिर्फ एक तर्कवादी लेखक की हत्या भर नहीं है। यह तर्कवादी लेखकों की हत्याओं की पूरी शृंखला की कड़ी भर भी नहीं है, जिसमें उनसे पहले पानसरे तथा दाभोलकर को हत्या के जरिए चुप कराया जा चुका है। यह ऐसी हत्या भी है, जिसके बाद व्यापक रूप से इस हत्या के लिए जिम्मेदार मानी जा रही ताकतें, एक और वरिष्ठï लेखक भगवान को यह ‘संदेश’ भी दे चुकी हैं कि अगला नंबर उनका है और सत्ताधारी भाजपा के अपने संघ परिवार का एक घटक, बाकायदा उनके खिलाफ सौ अलग-अलग जगह मुकद्दमे करने की धमकी दे चुका है और उसी परिवार के बाजू कलबुर्गी की हत्या का विरोध करने वाले लेखकों को उनके घर जलाने की सार्वजनिक रूप से धमकियां देने से लेकर, इस हत्या का विरोध करने वाले लेखकों को सम्मानित करने के खिलाफ कन्नड़ अकादमी को धमकाने तक के लिए स्वतंत्र हैं।

इसी प्रकार, अखलाक की हत्या या गुलाम अली के कंसर्ट का रोका जाना या कुलकर्णी के चेहरे पर कालिख पोता जाना या पुणे फिल्म तथा टेलीविजन इंस्टीट्यूट के छात्रों की सवा सौ दिन से ज्यादा से जारी हड़ताल की अनुसुनी करते हुए गजेंद्र चौहान को संस्थान का अध्यक्ष बनाने की जिद पर सरकार का अड़े रहना या आइआइटी मद्रास में फुले-अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश करना, पड़ोसी देशों के साथ दादागीरी और बड़ी ताकतों की जी-हजूरी किया जाना, आदि आदि, कोई अलग-थलग घटनाएं नहीं हैं। ये सभी देश की स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान उन्मुक्त हुईं नवजागरणकालीन मूल्यों पर आधारित प्रगति की धाराओं का गला घोंटने की एक समग्र, फासीवादी ढंग की परियोजना का हिस्सा हैं। यह परियोजना नयी नहीं है, शासन के  बढ़ते अनुमोदन से इसका संघातिक बना दिया जाना नया है। लेखक किसी न किसी रूप में ठीक इसी परियोजना के अपने चारों ओर कसते शिकंजे पर अपनी छटपटाहट का इजहार कर रहे हैं।

संस्कृति मंत्री से लेकर वित्त मंत्री और यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री तक की प्रतिक्रियाओं से साफ है कि वे इन लेखकों के साथ शत्रु का जैसा ही बर्ताव कर सकते हैं, करने जा रहे हैं। ठीक यही चीज है जो मोदी राज के पाखंड के अंत की शुरूआत करेगी।

कैमरे के हरेक फ्रेम में अपना ही चेहरा देखने को ही कम्युनिकेशन का अंत मानने वाले मोदी और मोटी-टोडियों को यह लग सकता है इस तरह बाकायदा शत्रु बनाए जाने के बाद भी लेखक और उसमें भी रचनात्मक लेखक, उनका क्या बिगाड़ लेंगे? इमर्जेंसी लगाते हुए इंदिरा गांधी ने भी ऐसा ही सोचा था। इनकी फासीवादी गलतफहमी के तो उतने भी पांव नहीं हैं। लेखकों के शब्दों के विकास और सुशासन का इनका मुखौटा नोचने की देर है, बाकी काम मेहनतकश जनता खुद कर लेगी। कौन जाने बिहार में जनता ने शुरूआत भी न कर दी हो।