मोदी सरकार का एक साल
बेशक, यह संयोग नहीं था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव में अपनी जीत का और वास्तव में सरकार का भी एक साल पूरा होने पर, अपनी चीन यात्रा के आखिर में शंघाई से ही ट्विटर पर समारोही संदेश भेजे। इसके साथ ही प्रवासी भारतीयों के सामने अपने संबोधन में भी प्रधानमंत्री ने इसकी याद दिलायी कि उनकी सरकार लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाकर बनी थी और यह पूरे तीस साल बाद हुआ था। उन्होंने इसके साथ यह दावा भी जोड़ दिया कि इसीलिए बाकी दुनिया, उनकी सरकार आने से पहले तक भारत को गंभीरता से नहीं ले रही थी। उनके राज के एक साल में भारत के प्रति दुनिया का नजरिया बदल गया है। लेकिन, यह शायद संयोग ही था कि ठीक उसी मौके पर खुद देश में सत्ताधारी भाजपा, मोदी सरकार के ही ग्रामीण विकास मंत्री के इस एलान पर लीपा-पोती करने की कोशिश कर रही थी कि विवादित भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, तीसरी बार जारी किया जाएगा। इस अध्यादेश के चलते बन रही सरकार की किसानविरोधी छवि की चिंता को अगर अलग भी रख दें, तब भी एक अध्यादेश का तीन-तीन बार जारी किया जाना, मोदी सरकार की विफलता की ही नहीं, जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरों की भी याद तो दिलाता ही है। आखिर, अध्यादेश हमेशा होता तो आपात उपाय ही है। ऐेसे कडुए प्रसंग की याद दिलाकर, सालगिरह के उत्सव का मजा कौन किरकिरा करना चाहेगा।
मोदी सरकार का एक साल - क्या खुद सरकार इस मामले पर खुले दिमाग से विचार करने के लिए तैयार है?
ग्रामीण विकास मंत्रालय, भूमि अधिग्रहण कानून के मामले में प्रासंगिक मंत्रालय है। दूसरी बार अध्यादेश जारी करने के बाद भी, उसकी जगह लेने वाला विधेयक संसद में पारित कराने में विफल रही मोदी सरकार को, विधेयक विस्तृत विचार के लिए संसदीय संयुक्त समिति को भेजने के लिए तैयार होना पड़ा है। यह समिति मानसून सत्र के आरंभ में अपनी रिपोर्ट पेश कर देगी। संसद के उक्त निर्णय के दो दिन बाद ही चौधरी वीरेंद्र सिंह की तीसरी बार अध्यादेश जारी करने की घोषणा, संसद में अपनी मर्जी न चल पाने पर उनकी सरकार की खीज को ही ज्यादा दिखा रही थी, कानूनी मजबूरी को कम। बहरहाल, यह समझना मुश्किल नहीं है कि मोदी सरकार की सालगिरह के समारोही माहौल में सत्ताधारी पार्टी, विवादित भूमि अधिग्रहण कानून का जिक्र तक नहीं सुनना चाहती है। इसलिए, अचरज नहीं कि खुद चौधरी वीरेंद्र सिंह ऐन मोदी के शंघाई के संबोधन के दिन, अध्यादेश का जिक्र छोडक़र इस पर उपदेश देते नजर आए कि संसदीय संयुक्त समिति से रास्ता निकल आएगा, बस विपक्ष खुले दिमाग से विचार करने को तैयार हो! लेकिन, क्या खुद सरकार इस मामले पर खुले दिमाग से विचार करने के लिए तैयार है? कम से कम अब तक उसने ऐसे कोई संकेत तो नहीं ही दिए हैं। उल्टे उसकी तरफ से तो भूमि विधेयक समेत ऐसे हरेक मामले में संसद का संयुक्त सत्र बुलाने और उसमें लोकसभा के अपने भारी बहुमत के बल पर, अपने पक्ष में फैसला करा लेने की ही धमकियां दी जाती रही हैं। यह दूसरी बात है कि संसदीय नियम-कायदों ने कम से कम अब तक मोदी सरकार को यह रास्ता अपनाने का भी मौका नहीं दिया है।
मोदी सरकार का एक साल और अरुण जेटली का राज्यसभा पर हमला
इस संदर्भ में संसद के बजट सत्र के फौरन बाद, मोदी सरकार के बहुत ही ताकतवर मंत्री और इस सरकार के एक प्रमुख प्रवक्ता, अरुण जेटली का राज्यसभा पर हमला विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है। यह वाकई विडंबनापूर्ण है और इसलिए, इस मामले में मोदी सरकार की नीयत का और खुलकर बयान करता है कि जेटली, खुद राज्यसभा के सदस्य ही नहीं हैं बल्कि इस सदन के नेता भी हैं। लोकसभा चुनाव में हार के बाद राज्यसभा के रास्ते मंत्रिमंडल में पहुंचे जेटली ने इस सदन का ‘‘परोक्ष रूप से निर्वाचित सदन’’ के रूप में चरित्रांकन ही नहीं किया है बल्कि उस पर जनता द्वारा ‘‘प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन’’ यानी लोकसभा के बहुमत की इच्छा का रास्ता रोकने का भी आरोप लगाया है। बेशक, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि मौजूदा सरकार, जो लोकसभा में हासिल पूर्ण बहुमत के विपरीत, राज्यसभा में अपने सहयोगियों के साथ भी बहुमत के आस-पास तक नहीं पहुंचती है, शुुरू से ही राज्यसभा को एक अनावश्यक अड़चन की तरह देखती आयी है। जेटली ने अब संसद के इस सदन से, जिसकी परिकल्पना वास्तव में भारतीय संविधान में राज्यों के सदन के रूप में की गयी है, अपनी सरकार के झगड़े को बाकायदा एक सैद्घांतिक चोला पहनाने की कोशिश की है। तर्क बिल्कुल सीधा सा है-एक परोक्ष रूप से निर्वाचित सदन को, जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन की यानी जनता की इच्छा का रास्ता रोकने का क्या अधिकार है? जाहिर है कि यह तर्क पेश करते हुए बड़ी चतुराई से इस सचाई को छुपाने की ही कोशिश की जा रही होती है कि राज्यों के सदन की अपनी कल्पना में, परोक्ष रूप से निर्वाचित यह सदन भी अंतत: जनता की ही इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।
वास्तव में जेटली का तर्क बुनियादी तौर वही बहुसंख्यावादी तर्क है, जो अपने बहुसंख्यकवादी रूप में संघ परिवार को हमेशा से बहुत प्रिय रहा है। लोकसभा के बहुमत की इच्छा की निरंकुश वैधता से, बहुसंख्यकों की इच्छा की वैसी ही वैधता की दूरी ज्यादा नहीं है। लेकिन, यह तर्क ऊपर-ऊपर से जनतांत्रिक भले लगे, है यह जनतंत्र का प्रहसन ही। बहुमत की इच्छा से शासन, जनतंत्र की जरूरी शर्त तो है, लेकिन पर्याप्त शर्त नहीं है। मानवाधिकारों की व्यवस्था, व्यक्ति की स्वतंत्रताएं, कानून की नजरों में नागरिकों की समानताएं और भारतीय संदर्भ में, भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक, क्षेत्रीय समूहों की समानताएं भी, जनतांत्रिक व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा हैं। अपनी संसदीय प्रणाली समेत भारत का संविधान, ठीक इसी पूर्णतर अर्थ में जनतांत्रिक व्यवस्था सुनिश्चित करने की कोशिश करता है। और इसी के हिस्से के तौर पर भारतीय संविधान यह भी सुनिश्चित करता है कि बहुमत की इच्छा के प्रतिनिधि के रूप में लोकसभा का बहुमत, निरंकुश न हो जाए।
इसमें न्यायपालिका द्वारा विधायी निर्णयों की वैधता की समीक्षा की व्यवस्था भी शामिल है और दो सदनों पर आधारित व्यवस्था भी, जो ‘‘मनी बिल’’ की श्रेणी में आने वाले विधेयकों को छोडक़र, सभी विधेयकों के दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने का तकाजा करती है। अचरज नहीं है कि अपने पूर्ण बहुमत के बल पर लोकसभा में मोदी सरकार जिस प्रकार समुचित छान-बीन के बिना ही विधेयक पर विधेयक थोपती रही है, उसे विपक्षी हलकों में ‘‘बहुमत की निरंकुशता’’ ही कहा जाने लगा है। याद रहे कि मौजूदा सरकार ने एक साल में लोकसभा में पूरे पचास विधेयक, संसदीय समितियों द्वारा विस्तृत छानबीन को ताक पर रखकर पास कराए हैं, जिनमें से सात विधेयकों को राज्यसभा ने, ऐसी सर्वदलीय संसदीय समितियों में विचार के लिए भेजा है। यह निर्णयों की तेजी की चिंता से ज्यादा, बहुमत की हेकड़ी में सर्वानुमति की तलाश की अनिच्छा का ही मामला है।
एनडीए के राज के पिछले अवतार में शुरूआत ही संविधान समीक्षा से हुई थी। यह दूसरी बात है कि संघ परिवार की अपेक्षाओं तथा मांगों के विपरीत, वाजपेयी सरकार जनतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास कतर-ब्योंत का रास्ता नहीं खोल पायी थी। एनडीए सरकार के मौजूदा अवतार में एक साल में, द्विसदनीय संसदीय व्यवस्था बाकायदा निशाने पर आ चुकी है। द्विसदनीय संसदीय व्यवस्था से ही क्यों शीर्ष न्यायपालिका से भी मोदी सरकार का लगातार टकराव हो रहा है। वास्तव में मौजूदा सरकार का कमोबेश ऐसा ही टकराव दूसरी तमाम संस्थाओं से भी हो रहा है, जिनमें विश्वविद्यालयों तथा आइआइटी संस्थानों से लेकर, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद तक, तमाम अकादमिक तथा शोध संस्थाएं भी शामिल हैं, जिन्हें भगवा रंग में रंगा जा रहा है। रेंगते हुए बढ़ रही है, पर तानाशाही की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह एक साल, रेंगती तानाशाही का एक साल रहा है।
0 राजेंद्र शर्माराजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।