0 राजेंद्र शर्मा

नेशनल कान्फ्रेंस ने गलत नहीं कहा। एक कश्मीरी नागरिक को सुरक्षा कवच बनाकर, जीप के आगे बांधने के आरोपी मेजर, लीतुल गोगोई को ‘‘सेना प्रमुख के प्रशस्ति पत्र’’ से सम्मानित किया जाना, वाकई कश्मीर के मुंह पर तमाचा है। लेकिन, क्या यह तमाचा सिर्फ कश्मीरियों के ही मुंह पर पड़ा है? क्या यह शेष भारत के मुंह पर, भारत की उस धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक कल्पना के मुंह पर ही तमाचा नहीं है, जिसके बल पर ही भारत 1947 में देश के विभाजन के समय, मुस्लिम बहुल कश्मीर को, मुसलमान पाकिस्तान के साथ न जाकर, अपने साथ रहने के लिए तैयार कर पाया था। बेशक, यह संयोग ही नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत के मुंह पर यह तमाचा, मोदी सरकार की तीसरी साल गिरह की पूर्व-संध्या में मारा गया है।

विडंबना यह है कि अपनी बहुत भारी विफलता को दर्शाने वाली इस तस्वीर को, वर्तमान सरकार अपनी राष्ट्रवादी ‘‘उपलब्धि’’ की तरह प्रदर्शित करती नजर आती है। बेशक यह तस्वीर दिखाती है कि मोदी राज के महज तीन साल में हम, राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई से निकली, देश के संविधान निर्माताओं की भारत की कल्पना से कितनी दूर आ गए हैं।

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मेजर गोगोई के इस ‘‘अलंकरण’’ के जरिए मोदी सरकार ने जो संदेश दिया है, स्वत:स्पष्ट है। सुरक्षा बलों को कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाए रखने के नाम पर कश्मीरियों के साथ किसी भी तरह का सलूक करने की खुली छूट है। अफस्पा के तहत अब तक जो छूट हासिल थी, उससे भी आगे तक की छूट। सचमुच किसी भी तरह का सलूक करने की छूट। आम नागरिकों की परवाह करने के किसी भी तरह के दिखावे से भी आजादी। याद रहे कि यह संदेश कोई फौज ने नहीं दिया है बल्कि उसे तो यह संदेश दिया गया है और जाहिर है कि शेष देश भर को भी यह संदेश दिया गया है।

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गोगोई का ‘‘अलंकरण’’ सेना प्रमुख द्वारा किया गया जरूर है, लेकिन अंलकरण वास्तव में किया है सरकार ने। सरकार की हरी झंडी के बिना सेना प्रमुख इस तरह का फैसला नहीं ले सकते थे, इस दौर में भी नहीं जब सीमाओं पर समस्याओं से भी निपटना ‘‘सेना पर छोड़ देने’’ की पुकारों का बोलबाला है।

बेशक, सेना के अनुसार, मेजर गोगोई के उस कारनामे पर बैठायी गयी कोर्ट ऑफ एंक्वायरी की रिपोर्ट सेना को मिल गयी है और इस जांच में उनकी करनी को सही ठहराया गया है। हां! उक्त जांच के फैसले का पूरा विवरण देना सेना ने जरूरी नहीं समझा है। लेकिन, पहली नजर में जांच के लायक समझी गयी करतूत को, फौजी की छाती पर टांगा जाने वाला मैडल बनाना एक ऐसा दूरगामी संकेत देना है जिसका फैसला सिर्फ या मुख्यत: सेना का फैसला नहीं हो सकता है।

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याद रहे कि उसी करतूत के लिए मेजर गोगोई के खिलाफ पुलिस की एफआइआर अब तक खत्म नहीं हुई है। यह दूसरी बात है कि सेना की इजाजत के बिना इस मामले में राज्य की पुलिस तो कोई कार्रवाई कर ही नहीं सकती है।

जैसे मोदी सरकार की तीसरी सालगिरह पर इतना इशारा भी काफी न हो, सिने अभिनेता और भाजपा सांसद, परेश रावल ने यह सुझाव देकर इस संदेश को और खतरनाक बना दिया है कि, ‘थलसेना की जीप पर पत्थरबाज के बजाए अरुंधति रॉय को बांधें।’

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खबरों के अनुसार, रावल के एक समर्थक ने जब उसी तरह एक महिला पत्रकार को बांधने का सुझाव दिया, भाजपा सांसद का जवाब था: ‘हमारे पास काफी विकल्प हैं।’

यानी जानी-मानी लेखिका अरुंधती रॉय का नाम तो एक इशारा है।

वास्तव में हिंस्र निशाने पर असहमति की हर आवाज है।

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यह दिलचस्प है कि मोदी सरकार की तीसरी सालगिरह पर भाजपा पार्टी की ओर से ‘मोदी उत्सवों’ की मीडिया को जानकारी दे रहीं, केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी से जब भाजपा सांसद के उक्त सुझाव देेने के बारे में पूछा गया, उन्होंने ‘‘हिंसा’’ के सुझावों से तो अपनी पार्टी को अलग करना जरूरी समझा, लेकिन असहमति और विरोध की आवाजों के खिलाफ इस हमलावर प्रवृत्ति पर कुछ भी कहना उन्हें मंजूर नहीं हुआ। आखिर, यह बढ़ती प्रवृत्ति उनकी पार्टी द्वारा अनुमोदित है और वास्तव में उनके राज के तीन साल का नतीजा है। अचरज नहीं कि इस हल्ले के बल पर ऐसे न्यूनतम सवाल पूछना तक जुर्म बना दिया गया है कि जिसे मेजर गोगोई ने सेना की जीप के बोनट पर बांधकर गांव-गांव घुमाया था, उसे बिना किसी सबूत या आधार के सिर्फ इसलिए पत्थरबाज कैसे करार दे दिया गया ताकि उसके खिलाफ दरिंदगी को सही ठहराया जा सके? वास्तव में वह पत्थरबाजों का नहीं, साधारण कश्मीरी नागरिक का प्रतीक है।

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याद रहे कि ‘राष्ट्रवाद’ का भेस धरकर सामने आ रही यह हमलावर प्रवृत्ति कोई कश्मीर के या फौज के मामलों तक सीमित नहीं है। यह हमला कोई असहमति की आवाजों, मानवाधिकार की पुकारों, प्रत्यक्षत: जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता की चिंताओं तक ही सीमित नहीं है। मोदी राज के तीन साल में आम तौर पर देश भर में और खासतौर पर भाजपा-शासित राज्यों में इस बढ़ती प्रवृत्ति ने कानून और व्यवस्था के बढ़ते पैमाने पर बैठते जाने का ही रूप ले लिया है। अगर भाजपा-शासित राजस्थान में ‘गो-तस्करी’ रोकने के नाम पर हिंदूवादी स्वंयभू गोरक्षक गिरोह ने, मेवाती पशुपालक किसान पहलू खान को देश के सबसे व्यस्त राष्ट्रीय राजमार्गों में से एक पर पीट-पीटकर मार डाला, तो झारखंड में ‘बच्चा चोरी’ की संगठित अफवाह के बल पर दो अलग-अलग घटनाओं में, भीड़ जुटाकर पूरे छ: लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। इससे पहले, इस राज्य में भाजपा के ही राज में, स्वयंभू गोरक्षक गिरोहों ने दो मुसलमान पशु व्यापरियों को मारकर पेड़ से लटका दिया था। उधर उत्तर प्रदेश में, जहां भाजपा की योगी सरकार को आए मुश्किल से दो महीने हुए हैं, खुद मुख्यमंत्री द्वारा सांसद रहते हुए खड़ी की गयी हिंदू युवा वाहिनी, बुलंदशहर में एक बूढ़े किसान की सिर्फ इसलिए हत्या कर चुकी है कि पड़ोस के एक गांव में एक मुसलमान युवक के साथ एक हिंदू महिला भाग गयी थी, जो जाहिर है कि इस हिंदुत्ववादी वाहिनी के लिए ‘लव जेहाद’ विरोधी जेहाद का न्यौता था।

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वास्तव में उत्तर प्रदेश में तो नयी-नयी बनी भाजपा सरकार और उसके ऊपर से हिंदू युवा वाहिनी के सरपरस्त के मुख्यमंत्री होने के चलते, अराजकता के से हालात पैदा हो गए हैं। हिंदू युवा वाहिनी के साथ और कई बार उसकी होड़ में भी, तमाम हिंदुत्ववादी संगठन अपनी हिंसक क्षमता का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं। अचरज नहीं कि योगी राज के दो महीने, इस प्रदेश में पुलिस वालों पर भी हमले के लिहाज से अभूतपूर्व साबित हुए हैं, हालांकि आगरा और सहारनपुर में पुलिस उच्चाधिकारियों पर तथा पुलिस थानों आदि पर हुए हमले खासतौर चर्चा में आए हैं। हिंदुत्ववादी स्वयंभू गिरोहों और उनकी उकसायी भीड़ की हिंसा वह नया नॉर्मल है जो मोदी के राज के तीन साल में रचा गया है।

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मेजर गोगोई के अलंकरण की ही तरह, मोदी के राज के तीसरे साल में एक और बड़ा संकेत, योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री पद सौंपने का किया गया है। अगर गोगोई का अलंकरण कश्मीर जैसे मामलों में, सेना या अन्य बलों को कुछ भी करने की खुली छूट देने का संकेत है, तो खुद सांप्रदायिक सेना चलाते रहे और खुद सीधे सांप्रदायिक दंगे व उकसावे के अनेक मामलों में आरोपित, योगी का मोदी की भाजपा का स्वयंवर, मोदी राज के धर्मनिरपेक्षता के स्वांग की भी जरूरत से मुक्त हो जाने का संकेतक है। तीन साल का एक ही संदेश है। अब मुखौटे उतर रहे हैं। नये भारत में होगा संघ-भाजपा राज का असली हिंदुत्ववादी चेहरा! 0