शेष नारायण सिंह
आजकल अखबारों की सुर्खियों पर नजर डालने से ऐसा लगता है कि बलात्कार देश के हर कोने में लगातार हो रहे हैं। लखनऊ, भोपाल, जयपुर, बैंगलोर, मुंबई, कोलकाता कहीं का अखबार देखें, बलात्कार की खबरें लगभग रोज ही छप रही हैं। इन खबरों के बीच में सरकारों का रवैया सबसे ज़्यादा चिंता का विषय है। सरकारें इस तरह से बलात्कार के मामलों में रक्षात्मक मुद्रा में आ जाती हैं जैसे वे ही बलात्कार को उकसावा दे रही हों। सच्चाई यह है कि ऐसा नहीं होता। समाज के इस नासूर को पक्ष-विपक्ष के व्याकरण से बाहर निकल कर देखना आज की एक राजनीतिक और सामाजिक आवश्यकता है। जरूरत इस बात की है कि बलात्कार के मामले में विपक्ष की पार्टियां सरकारों को जिम्मेदार ठहराना बंद कर दें और सारी राजनीतिक जमातें उस मानसिकता के खिलाफ लामबंद हों जो बलात्कार जैसी जहरीली घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं।
अभी देखा गया है कि लगभग सभी बलात्कारी किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में कवर ले लेते हैं और राजनीतिक पार्टियां उनके बचाव में लग जाती हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता वाले घेरे में केंद्रीय और राज्यों की सरकारों के मंत्री तक अपने आपको छुपाते देखे गए हैं। इस प्रवृत्ति से मुकाबला करने की जरूरत सभी पार्टियों को है। दूसरी अहम् बात यह है कि अपराध हो जाने के बाद की स्थिति पर सारा ध्यान फोकस हो जाता है जिससे फांसी आदि की मांग उठने लगती है। कोशिश यह होनी चाहिए कि एक समाज के रूप में हम बलात्कारी को नामंजूर कर दें, उसका हुक्का पानी बंद करवा दें, जिससे अपराधी मानसिकता को रोकने में कामयाबी मिलेगी।
दूसरी बात यह है कि लड़कियों को उपभोग की सामग्री मानने की मानसिकता से एक समाज को जरूरी शर्मिन्दगी उठानी चाहिए। लड़कियां समाज के जिम्मेदार हिस्से के रूप में इज्जत पाएं इसके लिए सारी ताकत लगा देनी चाहिए।
अपनी बात को लखनऊ में हुए हत्या और बलात्कार के मामले से जोड़कर स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी। लखनऊ के प्रतिष्ठित अस्पताल संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट की महिला कर्मचारी की हत्या और उसके शरीर को जिस गैरजिम्मेदाराना तरीके से नुमाइश का विषय बनाया गया, वह सरकार और समाज की बीमार मानसिकता का उदाहरण है। सरकारी अफसर और बाकी लोग मिलकर एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे थे जिससे बर्बरता का शिकार हुई लड़की को ही पूरी तरह से अपराध के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाए और सरकारी अमला मामले को दफन कर दे। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। अब सब कुछ पब्लिक डोमेन में है। हालांकि यह भी सच है कि असहाय लड़की की हत्या के बहुत ही दु:खद मामले को मीडिया के एक वर्ग ने चटखारे का मामला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह तो मीडिया में कुछ जागरूक लोगों के प्रयास से आज हम इस स्थिति में हैं कि उत्तर प्रदेश के सामंती मानसिकता वाले समाज में जन्म लेने वाली लड़कियों के प्रति समाज के रुख के बारे में कुछ सवाल पूछ सकें। मोहनलाल गंज में महिला के साथ हुई बर्बरता के बारे में जो सवाल उठ रहे हैं, उनमें से किसी भी सवाल का जवाब हमारे पास नहीं है लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि सवाल सही उठाए जाएं। दुर्भाग्य यह है कि इस तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं कि उसकी हत्या की जांच को इतना विवादित कर दिया जा रहा है कि पुलिस अपने आप को पाक साफ साबित कर ले। लेकिन क्या ऐसा किया जाना चाहिए।
35 साल की जिस महिला की बर्बरतापूर्वक हत्या हुई है उसमें जो इंसानियत और सामाजिक असंगतियों के सवाल हैं उनको भी चर्चा का विषय बनाया जाना चाहिए।
सबसे पहला सवाल तो यही है कि हुकूमत का इकबाल क्या रसातल में पहुंच गया है कि राज्य की राजधानी के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल में काम करने वाली महिला के साथ बर्बरता की सारी सीमाएं पार करने वाला अपराध को अंजाम दिया जाता है और सरकार की अॅथारिटी की कोई भी धमक किसी अपराधी के दिलोदिमाग में दहशत नहीं पैदा कर पाती। इस बीच एक अच्छी बात या हुई है कि राज्य के मुख्यमंत्री ने मृतका के बच्चों के नाम एक बड़ी रकम जमा करवाने के आदेश दे दिए हैं और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का सारा खर्च सरकार के जिम्मे डाल दिया गया है। यह उन अनाथ बच्चों के लिए बहुत बड़ा सहारा है लेकिन मामले की जिस तरह से जांच की जा रही है और जिस तरह से औरतपन का मजाक उड़ाया जा रहा है उसके खिलाफ सरकार को एक निश्चित राय रखनी चाहिए थी।
जहां तक पुलिस का रोल है उसने पूरे मामले को एक रूटीन क्राइम की तरह लिया है। पुलिस से और कोई उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए क्योंकि अपने देश में पुलिस राज करने का औजार भर है, नेताओं के आगे-पीछे घूमने वाली बावर्दी फोर्स के रूप में इसकी पहचान होती है। पुलिस ने ताजा जानकारी यह दी है कि मृतका ने 2010 में अपनी एक किडनी अपने पति को दान कर दी थी उसकी किडनी वास्तव में निकाली ही नहीं गई थी। जबकि जिस अस्पताल में वह काम करती थी, उसका दावा है कि उसकी किडनी बाकायदा निकाली गई थी।
पुलिस की इस एक कारगुजारी से अभियुक्तों की बचत का रास्ता बिल्कुल साफ हो गया है। अजीब बात यह है कि एक बहुत बड़े अधिकारी को किडनी प्रकरण की जांच करने का आदेश दे दिया गया है। लखनऊ रेंज के डीआईजी नवनीत सिकेरा इसकी जांच करेंगे। नवनीत सिकेरा ने बताया कि महिला की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक उसकी दोनों किडनी सुरक्षित मिली हैं। जबकि पीजीआई प्रबंधन से बात करने पर इस बात की पुष्टि हो गई है कि महिला के पति का अक्टूबर, 2011 में किडनी ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन हुआ था और महिला ही डोनर थीं। महिला के घरवालों ने भी किडनी ट्रांसप्लांट की पुष्टि के लिए वह सर्टिफिकेट पेश किया है, जो पीजीआई की तरफ से उन्हें दिया गया था। किडनी ट्रांसप्लांट के करीब एक माह बाद ही महिला के पति की मौत हो गई थी। अब पुलिस की सारी जांच किडनी जांच प्रकरण में तब्दील होती नजर आ रही है।
लेकिन हमारे समाज में महिलाओं की जो दुर्दशा है उस पर किसी के ध्यान में नहीं जा रहा है। इस केस में महिला के पिता का बयान अखबारों में छपा था कि उन्होंने लड़की की शादी कम उम्र में ही कर दी थी, जिस लड़के से शादी हुई थी उसकी किडनी में बीमारी थी और लड़की ने अपने पति का जीवन बचाने के लिए उसे किडनी दान कर दी थी। ट्रांसप्लांट सफल नहीं रहा और उसके पति की मृत्यु हो गई। यहीं पर परिवार के लोगों और समाज की जिम्मेदारी पर सवाल उठना शुरू हो जाता है। जब उस लड़की के पति की मृत्यु हो गई तो उसके सुसराल और मायके के परिवार वालों ने उसका साथ नहीं दिया। वह अपने दो बच्चों के साथ अपने भविष्य को संवारने के लिए खुद ही चल पड़ी थी। पीजीआई में नौकरी के साथ-साथ वह कुछ अतिरिक्त काम भी करती थी। हो सकता है कि किसी और अस्पताल में काम कर रही हो जहां वह एक अलग शिफ्ट करती रही हो और सबसे इस बात को छुपा रखा हो क्योंकि कोई भी सरकारी संस्थान कहीं और काम करने की अनुमति नहीं देता। लेकिन पुलिस ने जो खबरें मीडिया को दीं उसमें इस तरह की संभावना का जिक्र तक नहीं किया गया। जिस तरह की कहानियां पुलिस के सूत्रों से बाहर आई उनसे यह साबित करने की कोशिश की गई कि वह संदिग्ध चरित्र की महिला थी और रात को कहीं चली जाती थी।
एक कहानी यह भी चलाई गई कि उसका किसी राजीव नाम के व्यक्ति से सम्बन्ध था। समाज के रूप में हमारी इतनी सड़ी मानसिकता है कि किसी पुरुष से किसी तरह के सम्बन्ध को चटकारे का विषय बनाने में मीडिया ने कोई समय नहीं गंवाया और पुलिस को जांच में राहत के अवसर नजर आने लगे। सवाल यह है कि अगर किसी महिला का अपने स्वर्गीय पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध हैं तो क्या उसे बर्बरतापूर्वक मार डाला जाना चाहिए। क्या संदिग्ध चरित्र की महिला को मार डालने वालों को वीर पुरुष माना जाएगा?
जहां तक पुलिस की बात है उसके बारे में सबको मालूम है कि वे बहुत ही संवेदनशील नहीं माने जाते। इस केस में मृतका के दोनों परिवारों के रोल की समीक्षा की जानी चाहिए। हमारे समाज में रिवाज है कि लड़की की शादी के बाद उसका सारा जिम्मा उसकी ससुराल वालों का हो जाता है। माता-पिता ने ससुराल को जिम्मेदार ठहरा कर अपनी जान छुड़ा ली और ससुराल वालों ने क्या किया। उन्होंने अपने स्वर्गीय बेटे की पत्नी को अपने दोनों बच्चों के साथ अपने रास्ते तलाशने के लिए लखनऊ के पुरुष प्रधान सामंती मानसिकता वाले शहर में छोड़ दिया। उनको अपने स्वर्गीय बेटे के बच्चों की सुध तब आई जब उन बच्चों को सरकारी खजाने से दस लाख का अनुदान मिला और अन्य कई स्रोतों से बड़ी रकम आनी शुरू हो गई। अगर ससुराल वालों ने अपने बेटे की मृत्यु के बाद उस लड़की के साथ खड़े होने का संकेत दिया होता तो, जो हुआ है, वह शायद कभी न होता। हमने यह भी देखा है कि इसी उत्तर प्रदेश में कारगिल युद्ध में शहीद हुए नौजवानों की पत्नियों को मिली बड़ी रकम को झटक लेने के लिए बहुत सारे रिश्तेदार खड़े हो गए थे। कई मामलों में तो यह भी साबित करने की कोशिश की गई कि शहीद जवान की पत्नी का दावा गलत है। सवाल यह है कि अगर कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलेगा तो क्या यह समाज अपनी बेटियों को इज्जत देना बंद कर देगा।
बहुत सारे ऐसे मामले मुझे मालूम हैं जहां 18-20 साल की उम्र में विधवा हुई लड़कियों के भाई उसके साथ खड़े हो गए और लड़की ने अपने रास्ते तलाश लिए। लेकिन जहां बाल विधवा को अनाथ छोड़ दिया गया और शिक्षा का औजार भी साथ नहीं था वहां जिंदगी बहुत ही मुश्किल हो गई। इन मुश्किलों का कोई स्वरूप नहीं तय किया जा सकता। मुसीबतें किसी भी रूप में आ सकती हैं। लखनऊ के आसपास के जिलों में ऐसी बहुत सारी औरतें रहती हैं जिनके पति की मृत्यु हो चुकी है और जो दूसरे दर्जे की नागरिक के रूप में जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं और इस सब के लिए पुरुष प्रधान समाज की वह सामंती मानसिकता जिम्मेदार है जो औरत को कोई भी अधिकार नहीं देना चाहती।
मोहनलाल गंज के मामले के बहाने से ही सही हमें एक समाज के रूप में अपनी मानसिकता की पड़ताल जरूर करनी चाहिए। हमें मालूम है कि यह काम सरकारें नहीं कर सकतीं लेकिन सामाजिक बदलाव सरकारों के जरिए नहीं होते। सरकारें तो एक बहुत ही साधारण जरिया होती हैं। राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि अपराधियों को सरकार न बनने दें, उनको टिकट न दें वरना निकट भविष्य में इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकारें अपराधियों की पक्षधर हो जायेंगी और एक जिम्मेदार समाज और राष्ट्र के रूप में हमारे अस्तित्व पर सवाल उठने लगेंगे।