‘आप’ के उभार के मायने-1
अभिनव सिन्हा

अन्ततः आम आदमी पार्टी दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है। दिल्ली विधानसभा में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण पिछले करीब 16 दिनों से जारी अनिश्चितता ख़त्म हुयी जब अन्ततः आम आदमी पार्टी ने काँग्रेस का समर्थन स्वीकार किया और सरकार बनाने का फैसला किया।

‘आप’ सरकार बनाने को लेकर ऊहापोह में थी। इसका कारण यह था कि सभी की तरह स्वयम् ‘आप’ ने भी ऐसे चुनावी नतीजों की उम्मीद नहीं की थी। एक नयी पार्टी के तौर पर ‘आप’ का प्रदर्शन चौंकाने वाला था। चुनाव लड़ने से पहले भी ‘आप’ के ज़्यादातर ‘थिंक टैंक’ यही मानकर चल रहे थे कि एक लम्बे दौर में ‘आप’ भारतीय चुनावी राजनीति में अपनी जगह बनायेगी। लेकिन पुरानी मुख्य धारा की चुनावी पार्टियों से जनता का मोहभंग इतना ज़बर्दस्त था कि पहले ही प्रयास में ‘आप’ को 70 में से 28 सीटें हासिल हो गयीं! काँग्रेस ने अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और बिना शर्त ‘आप’ को समर्थन दे दिया। अब ‘आप’ के लिये एक ‘धर्मसंकट’ की स्थिति पैदा हो गयी। ‘आप’ के श्रीमान सुथरे अरविन्द केजरीवाल शुरू से यह दावा करते रहे हैं कि उनकी पार्टी ‘मुद्दा-आधारित’ राजनीति करती है और विचारधाराओं और ‘लेफ़्ट-राइट-सेण्टर’ से परे है! चूँकि काँग्रेस ने ‘आप’ को अपने चुनावी वायदे पूरे करने के लिये बिना शर्त समर्थन दिया इसलिये अब भागने का कोई रास्ता नहीं बचा था। एक प्रयास 18-सूत्रीय पत्र के रूप में ‘आप’ ने किया, जो कि उन्होंने भाजपा और काँग्रेस को भेजा। भाजपा ने तो जवाब देने से ही इंकार कर दिया, लेकिन काँग्रेस ने स्पष्ट जवाब दिया और कहा कि 18 माँगों में से 16 माँगें ऐसी हैं, जो कि प्रशासनिक मुद्दे हैं, और सरकार बनने के बाद ‘आप’ को उन विशिष्ट मुद्दों पर काँग्रेस के समर्थन की आवश्यकता नहीं है, और दो मुद्दे ऐसे हैं जो कि काँग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में भी थे और काँग्रेस उन पर ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन देगी। इसके बाद ‘आप’ ने कहा कि वह जनता के बीच जनमत सर्वेक्षण करेगी ताकि यह पता लगा सके कि जनता उनके द्वारा सरकार बनाये जाने के पक्ष में है या नहीं! सभी जनसभाओं में और मीडिया पोल में ‘जनता’ की राय यह सामने आयी कि केजरीवाल को सरकार बनानी चाहिए। कारण यह था कि जनता केजरीवाल द्वारा किये गये वायदों को पूरा करने का इन्तज़ार कर रही है; मसलन, बिजली का बिल 50 फीसदी कम करना और 700 लीटर प्रतिदिन मुफ़्त पानी हर घर में पहुँचाना, 500 नये स्कूल खोलना और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को निजी स्कूलों से बेहतर बनाना, सभी साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों को स्थायी करना, आदि।

इनमें से पहले दो वायदे ऐसे हैं जिनका पूरा होने का दिल्ली की आम जनता बेसब्री से इन्तज़ार कर रही है और केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे अपने चुनावी वायदों में आधे एक माह में पूरे कर देंगे और बाकी छह महीनों में। अब ‘आप’ के लोग काँग्रेस को कुछ नहीं कह सकते थे (मसलन, कि काँग्रेस की तो आदत ही सरकार गिराने की है, वगैरह) क्योंकि छह महीने से पहले संवैधानिक तौर पर काँग्रेस सरकार गिरा नहीं सकती और केजरीवाल ने अपने वायदे पूरे करने के लिये इतने ही महीने माँगे हैं!

लुब्बोलुआब यह कि सरकार बनाने के अलावा केजरीवाल के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था और अब समस्या यह है कि जो वायदे केजरीवाल ने किये हैं, उन्हें पूरे कर पाना मुमकिन नहीं है। केजरीवाल अब इस उम्मीद में हैं कि अगर वे वायदों के 10 प्रतिशत को भी पूरा कर पाते हैं तो जनता के बीच में कुछ वाहवाही हो जायेगी और काँग्रेस इसी बात से थोड़ा डरी हुयी है। लेकिन दिक्कत यह है कि केजरीवाल जिस आदर्शवादी, श्रीमान सुथरा की छवि बनाकर और काँग्रेस और भाजपा को जिस भाषा में कोसते हुये सत्ता में पहुँचे हैं वह सब कुछ बड़े बारीक सन्तुलन पर खड़ा है, और एक हल्के धक्के से वह ज़मींदोज़ हो सकता है। यही कारण था कि सरकार बनाने के फैसले की घोषणा करने के लिये ‘आप’ ने जो प्रेस कान्फ्रेंस की उसमें केजरीवाल समेत सारे ‘आम आदमियों’ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

बहरहाल, एक बात तो तय है कि भारतीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति में ‘आप’ की विजय एक परिघटना है। ‘आप’ की विजय के क्या मायने हैं? ‘आप’ का राजनीतिक चरित्र क्या है? ‘आप’ की पूँजीवादी राजनीति में क्या प्रासंगिकता है? ‘आप’ क्या कोई लघुजीवी परिघटना है या फिर यह भारतीय राजनीति में एक दीर्घकालिक परिघटना के रूप में आयी है, यह भी एक चर्चा का विषय हो सकता है। इस लेख में हम इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करेंगे।
‘आप’ को पहले भी कहीं देखा है…
कई राजनीतिक विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि ‘आप’ का उभार भारतीय राजनीति में एक नयी परिघटना है। उनका मानना है कि इससे भारत में पूँजीवादी चुनावी राजनीति ज़्यादा साफ़-सुथरी बनेगी, ज़्यादा भागीदारीपूर्ण बनेगी, अन्य चुनावी पार्टियों को भी ‘साफ़’ राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ेगा, वगैरह। लेकिन हमें इस पूरे विश्लेषण पर गहरा सन्देह है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य इस विश्‍लेषण को ग़लत ठहराते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट के दौरों में हमेशा ही निम्न मध्यमवर्गीय आदर्शवाद और उच्च मध्यमवर्गीय प्रतिक्रियावाद का इस्तेमाल करती है। ‘आप’ के मौजूदा उभार के सन्दर्भ में हम पाठकों को सत्तर के दशक के जेपी आन्दोलन और ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के जुमले और उसके बाद जनसंघ के उभार और जनता पार्टी और उसके बाद भाजपा के उदय की याद दिलाना चाहते हैं।

सत्तर का दशक वह समय था जब नक्सलबाड़ी आन्दोलन को कुचलने की प्रक्रिया जारी थी, रेलवे की प्रसिद्ध हड़ताल हुयी थी, इन्दिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल लागू किया था और पूरे के पूरे पूँजीवादी शासन के प्रति एक गहरा अविश्वास, मोहभंग और नापसन्दगी का माहौल था। पूँजीवादी शासन के प्रति यह मोहभंग जल्द ही पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति मोहभंग में तब्दील हो सकता था। पाठकों को शायद यह भी याद हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी उस समय संकट का शिकार थी और बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्टाचार चरम पर था। पूँजीवाद को उस समय एक ऐसे सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन की ज़रूरत थी, जो कि आम मेहनतकश और निम्न मध्यमवर्गीय जनता के असन्तोष को सुरक्षित चैनलों में अपचयित कर सके। जेपी आन्दोलन ने इसी काम को अंजाम दिया। जेपी आन्दोलन ही राष्ट्रीय स्वयम्सेवक संघ को फिर से मुख्यधारा में लाया और उसके परिणामस्वरूप जनसंघ और फिर जनता पार्टी के उभार के बारे में सभी जानते हैं।

इस उभार के पीछे एक ओर धुर दक्षिणपंथी ताक़तें खड़ी थीं, तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के समाजवादी भी खड़े थे। यहाँ पर सामाजिक-जनवाद और फासीवाद के बीच के जैविक सम्बन्ध शायद इतिहास में सबसे खुले तौर पर उजागर हुये थे।

आज भी ‘आप’ के उभार के पीछे जो दिमाग़ काम कर रहे हैं उनमें से अधिकांश जेपी-ब्राण्ड समाजवादी हैं, या फिर लोहियावादी समाजवादी। मिसाल के तौर पर, योगेन्द्र यादव और प्रोफेसर आनन्द कुमार। वहीं दूसरी ओर इस उभार के पीछे तमाम भूतपूर्व मार्क्सवादी, ख़ास तौर पर कथित पूर्व नक्सलवादी, और पूर्व एमएल के लोग, जो अब बेशर्म किस्म के दलाल बन चुके हैं, भी इस उभार के पीछे हैं। मिसाल के तौर पर, अभय कुमार दुबे और सीएसडीएस (सेण्टर फॉर स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज़) में बैठे अन्य घाघ राजनीतिक चिन्तक-विश्लेषक। यह भी कोई इत्तेफ़ाक नहीं है कि सीएसडीएस के संस्थापक रजनी कोठारी थे, जो कि साम्राज्यवाद के एजेण्ट के रूप में भारत के वामपंथ में घुसाये गये व्यक्ति थे। यह भी अपवाद नहीं है कि सीएसडीएस द्वारा चलायी जाने वाली मीडिया पहल ‘सराय’ की फण्डिंग साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियों, विशेष तौर पर, डच फण्डिंग एजेंसी डीवाग से आती है। और अन्त में, यह भी अपवाद नहीं है कि विश्व बैंक ने भारत में शुरू हुये भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ को समर्थन दिया था, जिससे कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी ‘आप’ का जन्म हुआ।

इस समय पूँजीवादी संकट को विद्रोहों और क्रान्तियों की ओर जाने से रोकने के लिये ‘आप’ जैसी पार्टियों की ज़रूरत पूँजीवादी शासक वर्ग को है, और यही बात जेपी आन्दोलन और उसके नतीजे के तौर पर पैदा हुये राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है।

ज़ाहिर है, इतिहास कभी अपने आपको हूबहू दोहराता नहीं है। लिहाज़ा, ‘आप’ का जेपी आन्दोलन, जनसंघ और जनता पार्टी के साथ कोई सादृश्य निरूपण नहीं किया जा सकता है। न ही आज के पूँजीवादी संकट का सादृश्य निरूपण सत्तर के दशक के पूँजीवादी संकट के साथ किया जा सकता है। यहाँ तथ्यों, घटनाओं और दलों में समानता देखने की बजाय, पूँजीवाद की कार्यप्रणाली पर निगाह डालने की आवश्यकता है। इस रूप में ‘आप’ का उभार मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक ज़रूरत के रूप में समझा जा सकता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के विभ्रमों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन्हें बनाये रखने और दीर्घजीवी बनाने का काम करता है। आगे ‘आप’ की पूरी राजनीति को अनावृत्त करते हुये हम इस बात को पुष्ट करेंगे।

आगे भी जारी....

अभिनव सिन्हा, लेखक "मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आव्हान पत्रिका के संपादक हैं।

आव्हान के सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013 अंक से साभार