मौसम की मिसाल दूँ या नाम लूँ तुम्हारा, कोई पूछ बैठा है बदलना किसको कहते हैं
मौसम की मिसाल दूँ या नाम लूँ तुम्हारा, कोई पूछ बैठा है बदलना किसको कहते हैं
राजीव रंजन श्रीवास्तव
मौसम सर्दियों का है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि बारिश के मौसम ने दलबदल कर सर्दी के पाले में आने का मन बना लिया है।
यूं तो बदलना मौसम की फितरत है, लेकिन इस वक्त कई नेता इस मामले में मौसम को भी मात देते नजर आ रहे हैं। सर्दी और बारिश के मौसम के साथ-साथ जनता इस वक्त एक और मौसम से दो-चार हो रही है, और वो है चुनावी मौसम।
इस मौसम की खासियत यह है कि इसमें पतझड़ की तरह कभी पुराने नेता, अपनी पार्टी की शाख से गिर जाते हैं, तो कभी पके फल की तरह टपक कर दूसरे दल की टोकरी में जा गिरते हैं।
दलबदल की खेती इसी मौसम में होती है। सालों-साल एक दल में रहने के बाद जब टिकट नहीं मिलती, या पहले जैसा भाव नहीं मिलता तो विचारधारा का अचार डाल कर तुरंत दूसरे दल की राह पकड़ ली जाती है, फिर चाहे वह धुर-विरोधी ही क्यों न हो। देखिए ये रिपोर्ट-
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की दस्तक होते ही दलबदल के लिए सभी दलों के दरवाजे खुल गए हैं। युद्ध और प्रेम की तरह अब राजनीति में भी सब कुछ संभव माना जाने लगा है। ऐसा लगता है कि पार्टियों में नैतिकता और विचारधारा के लिए, प्रतिबद्धता और वफादारी जैसे शब्दों के लिए, अब कोई जगह नहीं बची है, टिकट मिलना ही एकमात्र कसौटी रह गई है।
कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा सभी दलों में नेताओं की अदला-बदली खूब चल रही है।
सोनिया गांधी का मजाक उड़ाने वाले और नरेन्द्र मोदी की तारीफ करने वाले नवजोत सिंह सिद्धू अब कांग्रेसी हो गए हैं और खुद को जन्मजात कांग्रेसी बता रहे हैं। उत्तरप्रदेश में अशोक प्रधान सपा से भाजपा में शामिल हो जाते हैं।
उत्तराखंड में कांग्रेसी मंत्री रहे यशपाल आर्या भाजपा में शामिल होते हैं तो उधर उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) से विधानसभा चुनाव टिकट की नाउम्मीदी मिलने के बाद मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल (कौएद) का बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में विलय ही हो जाता है और बदले में मिलते हैं, चुनाव के तीन टिकट। बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य और कांग्रेस से रीता बहुगुणा जोशी को भाजपा ने पहले ही अपने पाले में मिला लिया है।
वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता नारायणदत्त तिवारी ने भी अपने बेटे के राजनीतिक भविष्य के लिए दल बदलने की कोशिश की थी, लेकिन शायद भाजपा से उनकी बात बनी नहीं।
दल-बदल करने वाले हर दल और हर राज्य में मौजूद हैं और ऐसे नेताओं की सूची काफी लंबी है, जिनका जिक्र करें तो चर्चा के लिए वक्त नहीं बचेगा।
फिलहाल सवाल यह है कि क्या दलबदल लोकतांत्रिक राजनीति की दूषित अनिवार्यता बन गई है, जबकि इसे रोकने के लिए कानून भी बना, पर वह भी बेअसर साबित हो रहा है।


