पलाश विश्वास
भाई रियाज ने साहिर की इन पंक्तियों से मौजूदा हालात का बेहतरीन बिंब संयोजन किया है। आप भी गौर करें।

ये जश्न जश्न-ए-मसर्रत नहीं, तमाशा है
नए लिबास में निकला है रहजनों का जुलूस
हजार शम्ए अखूवत बुझा के चमके हैं
ये तीरगी के उभरते हुए नए फानूस
साहिर लुधियानवी

भारत विभाजन के बाद विभाजन की बलि हो गये लोगों की कीमत पर अब तक वंशवादी सत्तासुख के चरमोत्कर्ष भोगते अरबपतियों की पार्टी के अरबों के घोटालों के खिलाफ भारतीय जनता के जनादेश हमारे सर माथे। कांग्रेस के जनविरोधी राजकाज के खिलाफ है यह जनादेश और वामपक्ष के निरंतर विचलन और विश्वासघात, बहुजन राजनीति के केसरियाकरण का संघी उत्पादन है यह आसण्ण रामराज और उसका यह सीतायण शूद्रायन।
कल्कि अवतार को संघ परिवार ने नहीं, बल्कि जनपक्षधर मोर्चे की मौकापरस्ती और पाखंड ने पैदा किया।
ग्लोबीकरण की साझेदार दोनो पार्टियों के हवाले है यह देश अब।
भाजपा बनाम कांग्रेस खेल में तमिलनाडु में जयललिता और बंगाल में ममता ने एकतरफा अभूतपूर्व जीत हासिल जरुर की है, लेकिन सर्वभारतीय राजनीति में उसका कोई महत्व है नहीं।
नतीजा आने से एक दिन पहले धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के प्रधानमंत्री बतौर कांग्रेस ने जो खेल रचने की कोशिश की, चुनाव नतीजे ने उसे गुड़ गोबर कर दिया।
संघी शुंगी सरकार फिर भी बेहतर है क्योंकि उसका अमित शाही एजंडा और उसके नस्ली पराक्रम से सारी दुनिया वाकिफ है।
वाम बहुजन छलावे का विस्तार धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की प्रधानमंत्री बतौर जयललिता या ममता की भूमिका फिर वही केजरीवाल परिदृश्य तैयार करता और बिना केसरिया सरार फिर मध्यावधि चुनाव मार्फत विश्वबैंकीय कांग्रेस सरकार की वापसी सुनिश्चित करती।
जनविरोधी कांग्रेस को पचास के आसपास सीमाबद्ध करके भारतीय जनता ने करारा जवाब दिया है जनसंहारी संस्कृति को लेकिन वि़डंबना यह कि फिर उसने सिक्के के दूसरे पहलू को ही अपनी किस्मत सौंप दी। इसके सिवाय कोई दूसरा विकल्प है नहीं।
कांग्रेस के पराभव, वाम सफाये और बहुजन पटाक्षेप पर आठ-आठ आंसू बहाते हुए हम अपनी दृष्टि इतनी भी धूमिल न कर दें कि एक मुश्त सत्य, त्रेता द्वापर के इस अभूतपूर्व संक्रमणकालीन महातिलिस्म में फंसकर रह जाये हम। वैदिकी हिंसा के सत्ययुगीन परिदृश्य में त्रेता का रामराज समय है यह तो सारा देश द्वापर का कुरुक्षेत्र भी है, जहां मूसलपर्व में जनसंख्या महाविनाश तय है।
रामराज में सामाजिक न्याय के सीतायन, शूद्रायन शंबूकगाथा का पारायण करने को वक्त बहुत बचा है लेकिन इससे पहले समझ लें कि आम आदमी पार्टी का विकल्प किस हद तक कामयाबी के साथ पूरे उत्तरभहारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का हाथ मजबूत करता रहा है। कांग्रेस विरोधी आम जनता के गुस्से को डायल्यूट ही नहीं किया केजरीवाल ने, बल्कि कांग्रेस भाजपा विरोधी जनता जनार्दन के वोट को केसरिया बना देने में उसने महती भूमिका निभायी। भाजपा के वोट काटने में केजरीवाल की कोई भूमिका नहीं थी।
अब विडंबना यह भी कि वामदलों और बहुजनराजनीति से मोहभंग के बाद भारतीय राजनीति में प्रतिरोध के नेतृत्व के लिए फिर वही एनजीओ नेतृत्व का ही विकल्प बचता है। केजरीवाल अगर ईमानदार होते तो सड़क पर मुद्दे उठाकर उन मुद्दों को अंजाम तक पहुंचाने में ईमानदार कोशिश भी करते। असंभव लोकपाल बिल पास कराने की जिद न करके सरकार में रहकर अंबानी जैसे कारपोरेटआकाओं को घेरने और उन्हें जेल तक पहुंचाने की दिसा में वे कुछ कर पाते तो यह केसरिया क्रांति ही होती नहीं। लेकिन यह मकसद उनका हरगिज नहीं था।
अब खतरा यह है कि कांग्रेस राजकाज के खिलाफ जैसे भाजपा खामोश सहयोगिता में थी, वही भूमिका अब कांग्रेस की होगी मुकम्मल दो दलीय अमेरिकी लोकतांत्रिक प्रणालीबद्ध। वामदलों और बहुजन राजनीति की वह ताकत नहीं है, जिसको उन्होंने सत्ता शेयर पर दांवबद्ध करने का प्रगतिशील संशोधनवादी मौकापरस्त कारोबार किया। अब उनके पाखंड से जनता का पूरा मोहभंग हो चुका है।
अब जनांदोलन के ठेकेदारों की एनजीओ शरण गच्छामि के तहत सड़क पर उतरी केजरी केसरी सेना के साथ खड़े होने के अलावा कोई विकल्प दीख नहीं रहा है। संपूर्ण क्रांति पर्व समाप्त होने के बावजूद वह पलटे जाते पन्नों की तरह फिर फिर लौट आता है क्योंकि सही दिशा में सोचने वाले, सही जनप्रतिबद्धता की समामाजिक उत्पादक शक्तियों को गोलबंद करने के कार्यभार से हम निरंतर मुंह चुराते रहे हैं और चुराते रहेंगे।
कांग्रेस, वामदलोंऔर बहुजन राजनीति के नाम विलाप करने के बजाय इस सत्यद्वापर त्रेता समन्वय समय के प्रतिरोध के लिए हम क्या कर सकते हैं, इस पर सोचें और राष्ट्रव्यापी जनपक्षधर एकता की मुहिम अभी से शुरु करें तो शायद बात कुछ बन भी जाये।
फारवर्ड प्रेस के प्रमोद रंजन और हमारे डायवर्सिटी मित्र एच एल दुसाध, झारखंडी शालपत्र के उत्तर आधुनिक वीर भारत तलवार मतादान प्रक्रिया के दौरान हरियाणा में भगाना में दलित कन्याओं से हुए अमानुषिक बलात्कार कांड के खिलाफ लगातार सक्रिय रहे। वीर भारत फेसबुक पर उपलब्ध नहीं हैं और वे हम लोगों की तरह तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले कभी नहीं थे। लेकिन प्रमोद रंजन और डायवर्सिटी मैन एचएल दुसाध जो कल तक उदित राज, राम विलास पासवान और रामदास अठावले की अगुवाई में भाजपा एजेंडे में डायवर्सिटी तत्व सामजित करने का सपना पाल रहे थे, आधिपात्यवात्यवादी सवर्ण हिंदुत्व के केसरिया लहर में बहुजन राजनीति के सफाये से बेहद निराश लग रहे हैं।
वामपक्ष का सफाया हो रहा है, बंगाल में केसरिया होती जमीन पर प्रतिबद्ध विचारधारा और संगठनों के अविराम विश्वासघात और पाखंड से यह हम शुरु से महसूस कर रहे थे और हम संभव तरीके से हम सचेत भी कर रहे थे वाम मित्रों को, मसलन वाम लोकसभा प्रत्याशियों के वाल पर जाकर लगातार पोस्ट कर रहे थे कि हालात संगीन हैं और आत्मसमर्पणी बलिदान से कुछ बदलने वाला नहीं है।
लेकिन बहुजन राजनीति के गढ़ों महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति और अंबेडकरी झंडेवरदारों के ऐसे सफाये की आशंका हमें भी नहीं थी।
उत्तर प्रदेश लंबे अरसे से जाना नहीं हुआ लेकिन महाराष्ट्र से लगातार जुड़ा हूं, केसरिये में नील के इस विलय को हम चिन्हित नहीं कर सकें, माफ करें।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए वैदिकी यज्ञ का आयोजन करने वालों ने एकमुशत बाम बहुजन असुरों महिषासुरों का वध करने में बेमिसाल कामयाबी हासिल की है।

यह चुनाव किसी भी सूरत में न अप्रत्याशित है और न देश के मौजूदा हाल हकीकत के खिलाफ। हम शुरु से ही हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्ष विभाजन के खिलाफ लिखते बोलते रहे हैं।
ध्रुवीकरण का फायदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कारपोरेट पूंजी और कारपोरेट मीडिया भगवा सोशल मीडिया के मार्फत बेशक उठाया है, लेकिन संघ की रणनीति के प्रतिरोध में 1984 से अब तक लगातार हिंदुओं को गरियाने और मुसलिम सांप्रदायिकता को हवा देने के सिवाय जनपक्षधर मोर्चे ने कुछ भी नहीं किया जनसंहारी कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों को जबरन धर्मनिरपेक्ष साबित करने और उसके हक में जनता को खड़ा करने की वाहियात मुहिम चलाने के सिवाय।
हम 1984 में राजीव गांधी को हिंदुत्व सुनामी से जिताने वाले संघ परिवार की रणनीतिक दक्षता और अपने एजंडे को अंजाम तक पहुंचाने की निर्मम सक्षमता को फिर एक बार राष्ट्रीय राजनीति के कारपोरेटीकरण एनजीओकरण और केसरियाकरण के मार्फत अभिव्यक्त होते देख रहे हैं।
लेकिन तब भी वाम राजनीति का वजूद कायम था और बहुजन राजनीति मुकाबले में खड़ी हो ही रही थी।
संघ परिवार ने अबकी दफा भारतीय जनता पार्टी को एक बहुमत दिलाकर 1984 के वाद देश की सत्ता पर कब्जा ही नहीं दिलाया, बल्कि हिंदू राष्ट्र के दो सबसे बड़े परस्परविरोधी एक दूसरे के खून के प्यासे वाम और बहुजनपक्ष का हिसाब भी हमेशा के लिए बराबर कर दिया।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल रपट लागू करके जो भस्मासुर पैदा कर दिया अस्मिता राजकरण का, उसका कमंडली केसरिया कायाकल्प से कल्कि अवतार का राज्याभिषेक निर्बाध संपन्न हो गया।
भारत मुक्ति मोर्चा के मंच से रंग बिरंगे केसरिया जमावड़ा जो ओबीसी की गिनती की मांग कर रहा था, वह ओबीसी गिनती के लिए कम,ओबीसी के भगवेकरण के लिए कहीं ज्यादा साबित हुआ, जिसका चरमोत्कर्ष ओबीसी प्रधानमंत्रित्व हुआ।
कम से कम उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में, कुछ हद तक समूची गायपट्टी में इस ओबीसी बाहुबल के केसरियाकरण का नतीजा वाम पक्ष के साथ साथ बहुजन राजनीति के सफाये के जरिये संघ परिवार की निरंकुश सत्ता में निकला। गुजरात नरसंहार के बाद असम दंगों से लेकर यूपी के मुजप्फरनगर दंगों और शरणार्थी घुसपैठिया मुद्दे पर ममता मोदी वाक्युद्ध ने इस महती ध्रुवीकरण को राष्ट्रव्यापी बना दिया, जिससे केसरिया सर्वत्र अस्मिताओं के टूटने का भ्रम पैदा कर रहा है।
जो सरकार मनुस्मृति अनुशासन पर राजकाज चलाने को संकल्पबद्ध है और संस्थागत महाविनाश की सर्वोच्च संस्था जो नस्ली भेदभाव और जाति व्यवस्था के तहत देश बांटने का काम करती रही है, वह अस्मिताओं और पहचान को तोड़ने में कामयाब है, वाम बहुजन पराभव का यह मीडिया नतीजा सचमुच हैरतअंगेज है।
नस्लभेद और जीति व्यवस्था के खात्मे के बिना अस्पृश्यता को समरसता में बदलने के छलावा, बहिस्कार को डायवर्सिटी में तब्दील करने के पाखंड से न समता संभव है और न सामाजिक न्याय जो रामराज के वर्णवर्चस्व में मूल लक्ष्य हैं।
संसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण बंटवारा तो एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा है या फिर शंबूक के तपस्यारत मस्तकदिके मर्यादा पुरुषोत्तम का शरसंधान है है या सीता का अग्निपरीक्षा के बाद भी वनवास और अंततः पाताल प्रवेश।
जो बहुजन पार्टियां इस चुनाव में केसरिया एजंडा को लागू करने की सहयोगी इकाइयां बनकर सक्रिय रहीं, उन्हीं की कमरतोड़ मेहनत का नतीजा, बहुजन समाज पार्टी का यह सफाया। जिसका मर्सिया पढ़ते पांच साल और गुजारने की तैयारियां कर रहे हैं प्रगतिशील और बहुजन शिविर के तमाम सिपाहसालार प्रतिबद्धजन और अब भी अंतरराष्ट्रीय पूंजी के प्रायोजित जनसंघर्ष के महामसीहा अरविंद केजरीवाल के मुकाबले सड़क पर जनता के मुद्दे लेकर संघर्ष का संकल्प लेने की उनकी कोई योजना भी नहीं है।
अपने प्रमोद रंजन ने लिखा हैः

ओबीसी जीत कर भी हार गया। यह हार उसके अगुवों की विचारधारा की है। कुछ समय के लिए ही सही उनकी विरोधी विचारधारा ने बड़ी चुनावी जीत हासिल की है। लेकिन, यह ओबीसी राजनीति का ही का आगाज है। यह शुरूआत भर है, जिसके नतीजे क्‍या होंगे, अभी कहना कठिन है। लेकिन यह शुरूआत तो है ही।

उन पर नजर रखिए, जो यह मानने से इंकार करते हों कि मोदी की यह जीत उनके ओबीसी होने के कारण नहीं हुई है। वे दरअसल, सवर्ण वोटों को ही इस जीत का श्रेय देने की कोशिश करेंगे।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।