यथार्थ की कसौटी पर "राष्ट्रवाद"
यथार्थ की कसौटी पर "राष्ट्रवाद"
राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जन समूह के रूप में की जा सकती है जो कि एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों।
भारत में अंग्रेजों के शासनकाल मे राष्ट्रीयता की भावना का विशेषरूप से विकास हुआ, इस विकास में विशिष्ट बौद्धिक वर्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। पाश्चात्य देशों का इतिहास पढ़कर उसमें राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि राष्ट्रवाद की जरूरत क्यों है ??
राष्ट्रवाद की जरूरत इसलिए है कि हम बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के स्वतंत्रता पूर्वक जी सकें, अपने विचार, संस्कृति और सभ्यता के लिए स्वतंत्र हों, जब राष्ट्र के भौगोलिक क्षेत्र के स्वतंत्रता के ऊपर अगर हमला हो तो सब एकजुट हो ताकि हमारी स्वतंत्रता बरक़रार रहे हैं और हम स्वतंत्र रह सके।
राष्ट्रवाद के मूलभूत तत्व की अगर बात की जाए तो वो स्वतंत्रता ही दिखती है, किसी भी राष्ट्र के एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए लोगों का उसके प्रति विश्वास बनाए रखना पड़ता है, जब लोगो में इसके कार्यो और बनावट में अपनापन झलकता है तो लोगों की भावना उससे जुड़ जाती है और लोग उसके साथ खड़े होते हैं यह ह्रदय से निकलने वाली हुक होती है, इसे ना ही खरीदा जा सकता ना थोपा जा सकता है।
राष्ट्रवाद की आलोचना के तीन प्रमुख आधार जो रविंद्रनाथ टैगोर ने प्रस्तुत किए, वे थे-
1) राष्ट्रीय राज्य की आक्रमक नीति,
2) प्रतियोगी वाणिज्य-वाद की विचारधारा, तथा
3) प्रजातिवाद.
रविंद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद के इसी पक्ष की आलोचना की, जिसमें नृशंसता, रुग्णता तथा पृथकता दिखाई देती है. वे राष्ट्रवाद को शक्तिका संगठित समष्टिगत रूप मानते हुए राज्य के शोषणकारी पक्ष को दर्शाते हैं. उनके अनुसार पश्चिममें वाणिज्य तथा राजनीति की राष्ट्रीय मशीन द्वारा मानवता की साफ-सुथरी दबाई हुई गाठें तैयार कीं है।
गांधी और पंडित दीनदयाल दोनों ही अलग नजरिये वाले राष्ट्रवाद की हिमायत करते थे, जो व्यष्टि से समष्टि तक जाता है। इसके मुताबिक आत्म-उत्थान के विभिन्न चरणों में राष्ट्रवाद भी एक पड़ाव भर है जिसकी परिणीति अंत में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के रूप में होती है।
गांधी की परिकल्पना का भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक उत्थान की सीढ़ी का पर्याय है और शायद टैगोर भी इस बात को समझ नहीं पाए। आध्यात्मिक उत्थान के बिना लाया जाने वाला, यूरोपीय सोच वाला राष्ट्रवाद आखिरकार फासीवाद की ओर ही ले जाता है।
राष्ट्रवाद की बहस काफी जटिलता को समेटता है, इसको शासक अपने दाग को ढकने के लिए प्रयोग करता रहा है,
फ्रेंच लेखक अल्बेयर कामू ने एक बार लिखा था, "मैं अपने देश को इतना प्यार करता हूँ कि मैं राष्ट्रवादी नहीं हो सकता",चुकी शासक वाद और राष्ट्रवाद की लकीर काफी पतली रही है और इस कारण लोग या तो इसकी कटु आलोचना करते है या समर्थन करते रहे है।
राष्ट्रवाद को थोपने की धारणा उसके मूल रूप को चोट पहुँचाता है, हम यह नहीं सोचते कि चेतना के कई स्तर होते हैं और प्रत्येक स्तर पर सोच की गुणवत्ता भी बदलती रहती है। जो हाथ झारखंड और छत्तीसगढ़ में आए दिन मानसिक बीमारी से पीड़ित औरतों को डायन बताकर पत्थरों से मार देते हैं उन लोगों से ‘भारत माता की जय’ का जयकारा तो बुलवाया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि जय-जयकार के लिए हाथ उठाने वाले उस शख्स में वास्तविक राष्ट्र चेतना का बोध भी हो।
यदि हमने वसुधैव कुटुंबकम या फिर सर्वधर्म सम्भाव को अच्छे से आत्मसात किया होता तो शायद आज भारत दुनिया को दिशा दिखा रहा होता और कौन सेक्युलर और कौन नहीं की बहस में नहीं उलझा होता। आज यह जिम्मेदारी उन निरपेक्ष बुद्धिजीवियों पर आ पड़ी है कि वे राष्ट्रवाद की गांधीवादी अवधारणा और पंडित दीनदयाल के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दोनों तरह के अतिवादियों से बचाएं। जितनी जरूरत गिरिराज सिंह सरीखे लोगों से बचने की है उतनी है खुद को ब्रांड सेक्युलर बुद्धिजीवी कहने वालों से भी। दोनों ही किसी न किसी स्तर पर भारतीय समाज को कमजोर कर रहे हैं। जबकि आज जरूरत इसकी है कि भारतीय समाज कैसे हर तरह से सशक्त हो।
Name - sachin jha shekhar
Radio and television department
Indian institute of mass communication


