भारत माता की जय बोलना, भारत की जय के बजाए क्षय का ही साधन ज्यादा बनता जा रहा है।
यह भारत माता की जय नहीं क्षय है। वंदे मातरम को तो पहले ही विभाजन के नारे में बदला जा चुका था। अब भारत माता की जय की बारी है।
0 राजेंद्र शर्मा

भारत माता की जय बोलना, भारत की जय के बजाए क्षय का ही साधन ज्यादा बनता जा रहा है। श्रीनगर एनआइटी में और उससे भी बढक़र, उसे केंद्र में रखकर इस महीने के शुरू से जो कुछ हुआ है, उससे तो ऐसा ही लग रहा है। बेशक, शुरूआती दौर में कोई हफ्ते भर तक, केंद्र में सत्ताधारी भाजपा ने एनआइटी के गैर-कश्मीरी छात्रों के असंतोष व आंदोलन के मामले में मोटे तौर पर सरकारी स्तर पर हस्तक्षेप तक ही खुद को सीमित रखा था। वैसे इस मामले में आंदोलन कर रहे छात्रों के प्रति केंद्र सरकार ने जितना ‘अपनापन’ दिखाया, वैसा अपनापन जेएनयू या हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के साथ उसके आचरण में दूर-दूर तक नजर नहीं आया था। न तो लगभग उन्हीं दिनों में हैदराबाद में रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर करने के मामले में आरोपित, वाइसचांसलर के लंबी छुट्टी से वापस लौट आने पर छात्रों की विरोध कार्रवाइयासें पर हुए बर्बर पुलिस दमन पर केंद्र सरकार ने वैसी चिंता जतायी थी और न मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने और किसी उच्च शिक्षा संस्थान में आंदोलनकारी छात्रों की बात सुनने के लिए वैसे टीम भिजवायी थी, जैसे श्रीनगर एनआइटी में भिजवायी गयी थी। अपवादस्वरूप पुणे फिल्म व टेलीविजन इंस्टीट्यूट में जरूर ऐसी टीम भेजी गयी थी, लेकिन आंदोलनकारी छात्रों की बात सुनने के बजाए उन्हें यह बताने के लिए उनकी मांगें नहीं मानी जाएंगी। इस तरह, कम से कम इतना तो शुरू से ही साफ था कि हैदराबाद या जेएनयू या आइआइटी मद्रास या पुणे एफटीआइआइ के आंदोलनकारी छात्रों के प्रति अपनाए गए अपने ‘विरोधी’ रुख के विपरीत केंद्र सरकार, एनआइटी के आंदोलनकारी छात्रों के साथ थी। फिर भी, एनआइटी परिसर में राज्य पुलिस के बजाए बड़ी संख्या में सी आर पी एफ की तैनाती के बावजूद, यहां तक मुख्यत: सरकार के स्तर पर ही छात्रों के आंदोलन को संभालने की कोशिश की जा रही थी। यह दूसरी बात है कि यह ऐसी ममता का प्रदर्शन करते हुए किया जा रहा था, जो छात्रों-नौजवानों के आंदोलनों से निपटने के मामले में होनी तो नियम चाहिए, लेकिन पहले भी अपवाद थी और मौजूदा निजाम में अति-दुर्लभ अपवाद बन गयी है।
लेकिन, इस प्रकरण के विभाजनकारी निहितार्थों को प्रत्यक्ष रूप से दुहने के लालच को सत्ताधारी संघ परिवार ज्यादा समय तक नहीं रोक सका। जम्मू-कश्मीर सरकार में शामिल होने के बावजूद, भाजपा तथा संघ परिवार के अन्य संगठनों ने पहले जम्मू-ऊधमपुर आदि में आंदोलनकारी कार्रवाइयों के जरिए, अपने आंदोलनकारी ‘बाहरी’ छात्रों के साथ खड़े होने प्रदर्शन किया। इसके बाद इसी प्रदर्शन को अखिल भारतीय रूप देते हुए, श्रीनगर में एनआइटी के छात्रों को ‘तिरंगा झंडा’ देने के लिए, देश के बारह राज्यों से डेढ़ सौ युवाओं का जत्था भेजा गया। यह जत्था राजधानी दिल्ली से रवाना हुआ और उसे भाजपा के एक केंद्रीय सचिव ने बाकायदा झंडी दिखाकर रवाना किया। बेशक, इस जत्थे को समस्या बढऩे की आशंका से, जम्मू-कश्मीर की सीमा पर ही रोक दिया गया। फिर भी उसने खासतौर पर कश्मीर के खिलाफ पूरे देश को खड़ा करने के विभाजनकारी खेल का खुला एलान तो कर ही दिया। बची-खुची कसर अपने ‘उत्पीड़ित कश्मीरी’ होने के प्रति नये-नये जागे, संघ-वफादार अभिनेता अनुपम खेर के कूद पडऩे से पूरी हो गयी। अचरज नहीं कि विभाजन के इस खेल के दूसरे पहलू, कश्मीरी अलगाववादियों ने भी इस खेल में कूदने में देर नहीं लगायी।
शुरूआत में ‘बाहरी’ छात्रों की असुरक्षा की आशंकाएं दूर करने वाले बयान देने के बाद, वे भी जल्द ही देश के दूसरे हिस्सों में कश्मीरी छात्रों की ‘असुरक्षा’ के विरोध में ‘बंद’ आयोजित करने के अपने जाने-पहचाने रास्ते पर चल पड़े हैं। उधर कश्मीर विश्वविद्यालय छात्र संघ ने पूरे एनआइटी प्रकरण को एक ‘‘गढ़ा हुआ’’ प्रकरण करार दिया है और इसे इसका सबूत बताया है कि कश्मीरी, अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं!
यहां पहुंचकर, श्रीनगर एनआइटी के आंदोलनकारी छात्रों की शिकायतों की वैधता-अतिरंजितता के सारे सवाल पीछे छूट जाते हैं। रह जाता है बस ‘बाहरी बनाम कश्मीरी’ का सवाल, जो खासतौर पर जम्मू में भाजपा तथा संघ परिवार के बढ़ते असर के साथ, ज्यादा ये ज्यादा हिंदू बनाम मुसलमान का ही सवाल बन जाता है। बाहरी छात्रों में इक्का-दुक्का गैर-हिंदुओं की उपस्थिति भी, इस संदेश को रोकने के लिए काफी नहीं है। वास्तव में ऐसा लगता है कि ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाने और तिरंगा लेकर चलने को देशभक्ति का सार्टिफिकेट बनाए जाने के इस दौर में, एनआइटी के आंदोलनकारी छात्रों ने भी सचेत रूप से ‘स्थानीयों’ के खिलाफ इन चिन्हों को हथियार बनाने की कोशिश की है। क्रिकेट विश्व कप में भारत की टीम की हार-जीत से भडक़े छात्रों के दो अपेक्षाकृत छोटे गुटों के मामूली झगड़े को, एक ओर ‘देशभक्त बनाम देशद्रोहियों’ के झगड़े में तब्दील कर दिया गया और दूसरी ओर इसमें ‘बाहरी बनाम स्थानीय’ समुदायों के झगड़े का पहलू भी जोड़ दिया गया। इस झगड़े में छात्रों के साथ फैकल्टी को भी समेेट लिया गया और एनआइटी को ही कश्मीर से बाहर स्थानांतरित करने या सारे गैर-कश्मीरी छात्रों को ‘सुरक्षित’ जगहों पर एनआइटी संस्थाओं में स्थानांतरित करने से लेकर, एनआइटी की स्थानीय फैकल्टी को परीक्षाओं से दूर रखने और परिसर में स्थायी रूप से सीआइपीएफ की चौकी कायम करने तक की मांगें उठायी गयीं। यहां तक शिक्षा परिसर में मंदिर बनाने की मांग भी बाकायदा उठायी गयी, हालांकि आगे चलकर इस मांग की जगह पर वह ‘तिरंगा वापस किए जाने’ की मांग को आगे कर दिया गया, जो स्थानीय पुलिस छीन ले गयी थी! यह क्षेत्रीय तथा धार्मिक विभाजन के नारों के आपस में अच्छी तरह से गूंथ दिए जाने को ही दिखाता है। अस्सी के दशक के कश्मीरी पंडितों के किसी हद तक प्रायोजित पलायन की याद दिलाते हुए, तत्कालिक रूप से ही सही गैर-कश्मीरी छात्रों की ‘घर वापसी’ करायी जा चुकी है।
बेशक, तिरंगे और भारत माता की जय के सहारे श्रीनगर एनआइटी प्रकरण को आसानी से ‘देशभक्तों बनाम देशद्रोहियों’ के टकराव का एक और उदाहरण बना दिया गया है। यह मोदी के राज में आमतौर पर सभी क्षेत्रों में और खासतौर पर उच्च शिक्षा परिसरों में स्थापित किए गए पैटर्न के अनुरूप ही है। लेकिन, यह समझने के लिए किसी राजनीतिक विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है कि इस झगड़े का विभाजनकारी संदेश, खुद जम्मू-कश्मीर में और विशेष रूप से कश्मीर तथा शेष देश के बीच की पहले से मौजूद खाई को और चौड़ा करने का ही काम करेगा। संयोग नहीं है कि यह घटनाविकास तीन महीने के उहापोह के बाद, महबूबा मुफ्ती के सरकार बनाते ही सामने आया है। मुख्यमंत्री बनते ही महबूबा मुफ्ती को गठबंधन सरकार में अपनी समयोगी भाजपा से अगर बाकायदा इसकी अपील करनी पड़ी कि ‘जम्मू-कश्मीर की संवेदनशील प्रकृति’ को ध्यान में रखकर चले, तो यह इस सरकार के अस्तित्व में ही निहित अंतर्विरोध को ही दिखाता है। जम्मू और कश्मीर पर आधारित, दो क्षेत्रीय से बढक़र सांप्रदायिक राजनीतिक टुकड़ों का यह गठजोड़, वैसे भी जम्मू-कश्मीर को एकजुट करने के बजाए, उसका विभाजन बढ़ा ही सकता है। फिर भी भाजपा समेत संघ परिवार अपने कश्मीर से बाहर के आधार को पुख्ता करने के लिए, इस विभाजन की बढ़ाने की और भी जल्दी में हैं। मेहबूबा मुफ्ती का तीन महीने आगा-पीछा करने के बाद, आंखों देखते मक्खी निगलने के लिए मजबूर होना, इस खतरे के और ताकतवर होने को ही दिखाता है, न कि इस गठजोड़ से जम्मू-कश्मीर में और कश्मीर तथा शेष देश के बीच विभाजन के बढऩे के अंदेशों के गलत होने को। श्रीनगर एनआइटी में भारत माता की जय बोलने-बुलवाने को उछालने के जरिए, भारत माता की संतानों की फूट को बढ़ाया जा रहा है और धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य को कमजोर करने के जरिए, कम से कम कश्मीर पर तो पाकिस्तान के दावे को वैधता प्रदान की ही जा रही है। यह भारत माता की जय नहीं क्षय है। वंदे मातरम को तो पहले ही विभाजन के नारे में बदला जा चुका था। अब भारत माता की जय की बारी है।
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