यह बेधड़क जय भीम लाल सलाम का समय है
यह बेधड़क जय भीम लाल सलाम का समय है

जय भीम लाल सलाम
डॉ. भीमराव आंबेडकर की सवा सौवीं जयंती (Dr. Bhimrao Ambedkar's 125th birth anniversary) के मौके पर, उनकी विरासत में वैसे तो हर तरफ से दिलचस्पी दिखाई जा रही है, जो कि स्वाभाविक भी है। दलितों के मसीहा (Messiahs of dalits) के रूप में, जो भारत के मौजूदा संविधान के निर्माता भी थे, आंबेडकर की विरासत आज भी न सिर्फ जिंदा है बल्कि शायद पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक है। इसे देखते हुए, प्रत्यक्षत: ‘दलित राजनीति’ (Dalit politics) करने वालों के अलावा अन्य ताकतों की ओर से भी इस विरासत पर प्रतिस्पर्द्धी दावे सामने आना स्वाभाविक है। बहरहाल, आज के संदर्भ में दो ऐसे विरोधी छोरों से आ रहे दावे खासतौर पर प्रासंगिक हैं, जिनके खुद आंबेडकर और उनकी परंपरा से रिश्ते विरोध के न भी माने जाएं तब भी, समस्यापूर्ण जरूर रहे थे।
इनमें एक दावेदारी तो संघ परिवार और उसके राजनीतिक बाजू के रूप में भाजपा तथा उसकी सरकार की ही है।
डॉ. आंबेडकर की सवा सौवीं सालगिरह मनाने में नरेंद्र मोदी की सरकार ने निश्चित रूप से अतिरिक्त उत्साह का प्रदर्शन किया है। देश-विदेश में आंबेडकर से संबंधित स्मारकों के निर्माण, संरक्षण, संवर्धन से लेकर, संसद के विशेष सत्र का आयोजन तक, इसमें शामिल हैं। लेकिन, यह प्रयास सिर्फ उत्सवधर्मिता तक ही सीमित नहीं है, जिसमें मोदी सरकार को खासतौर पर महारत हासिल है। इसके साथ ही साथ और शायद इससे कहीं बढक़र, पिछले काफी अर्से से संघ परिवार अपने ‘पूजनीय मंडल’ में आंबेडकर को भी खपाने की कोशिशों में लगा रहा है। इसके लिए आंबेडकर की छवि का खासतौर पर दुतरफा मेकओवर किया जा रहा है। एक ओर से उन्हें हिंदू समाज के सुधारक का रूप दिया जा रहा, तो दूसरी ओर उन्हें संदर्भ से कटे हुए चंद उद्धरणों के बल पर मुस्लिमविरोधी बनाया जा रहा है।
विडंबना यह है कि जाति की जकड़बंदी से मुक्ति के लिए, उसके आधार हिंदू धर्म का ही त्याग करने की आंबेडकर की महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक कार्रवाई को भी, इस आधार पर उनके हिंदू धर्म-संस्कृति का पैरोकार होने का सबूत बनाने की कोशिश की जा रही है कि फिर भी उन्होंने ईसाई धर्म या इस्लाम को नहीं अपनाया! उनका विद्रोह हिंदू धर्म से नहीं, उसकी विशेष रूप से जातिवादी विकृतियों से था।
‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के लिए आंबेडकर को हजम करना जितना जरूरी है, उतना ही मुश्किल भी।
ब्राह्मणवादी परंपरा का, अपने विरोधी विचारों को हजम कर जाने का इतिहास बहुत पुराना है। कबीर तथा उनके संत संगियों से लेकर, सिक्खी तक ही नहीं खुद जैन व बौद्ध धर्म को भी अंतत: इसी तरह पचाकर, उनके सामाजिक सार को खत्म किया गया है। अब आंबेडकर, फुले, पेरियार आदि की विचार परंपरा की बारी है। याद रहे कि उनकी नामलेवा राजनीतिक धाराओं को तो पहले ही मौजूदा व्यवस्था द्वारा हजम कर अपने लिए हानिरहित बनाया जा चुका है। बहरहाल, आज आंबेडकर को इस तरह हजम करने की कोशिशें तेज किए जाने का एक कारण और है।
‘‘हिंदू राष्ट्र’’ की ब्राह्मणवादी परियोजना के लिए जैसा ‘हिंदू एकीकरण’ जरूरी है, संघ परिवार की नजरों में आंबेडकर की परंपरा उसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। इसीलिए, आंबेडकर को खासतौर पर मुस्लिम विरोधी बनाकर हजम करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन, ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के लिए आंबेडकर को हजम करना जितना जरूरी है, उतना ही मुश्किल भी। इसकी सीधी सी वजह यह है कि इस परियोजना के साथ, इसके पीछे काम कर रही ब्राह्मणवादी ताकतों के साथ, आंबेडकर का रिश्ता हमेशा से कट्टरविरोध का रहा था। यह कोई संयोग नहीं है कि 1925 से ही ‘मनुस्मृति दहन’ की शुरूआत करने वाले आंबेडकर यह बखूबी जानते, मानते और कहते थे कि, ‘‘अगर कहीं हिंदू राज सच में आ गया, तो यह देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी।’’
जेएनयू तक आते-आते, वामपंथी और आंबेडकरवादी, शासन की नजरों में एक ही हो चुके थे
दूसरे ध्रुव पर, वामपंथ की ओर से आंबेडकर की परंपरा पर दावा किया जा रहा है बल्कि कहना चाहिए कि उसके साथ अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश, ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ बनाने की परियोजना में लगी ताकतों के सत्ता तक पहुंच जाने और उसकी आंबेडकर की परंपरा को हजम करने की कोशिशों के संदर्भ में हो रही है। वास्तव में इसकी शुरूआत जितनी वैचारिक स्तर पर हो रही है, उससे ज्यादा जमीनी स्तर पर हो रही है। चेन्नई आईआईटी में अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल पर हमले (Attack on Ambedkar-Periyar Study Circle in Chennai IIT) ने, वामपंथी तथा आंबेडकर की परंपराओं की निकटता के जिस रेखांकन की शुरूआत की, उसे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन पर शासन के हमले और रोहित वेमुला की आत्महत्या (Rohit Vemula's suicide) के लिए मजबूर हो जाने के प्रकरण ने, गाढ़े रंग से रेखांकित कर दिया। जेएनयू तक आते-आते, वामपंथी और आंबेडकरवादी, शासन की नजरों में एक ही हो चुके थे। अब अफजल गुरु की फांसी का विरोध (Protest against hanging of Afzal Guru) करना और महिषासुर शहादत दिवस (Mahishasura Martyrdom Day) मनाना, शासन की नजरों में एक जैसा अपराध थे-देशद्रोह। यही वह जगह है जहां से जय भीम लाल सलाम का नारा निकला है, जिसे देशद्रोह के आरोपी जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष, कन्हैया कुमार ने खासतौर पर लोकप्रिय कर दिया है। वैसे इसकी शुरूआत के सूत्र भी कहीं महाराष्ट्र में ही मिलेंगे, तभी तो प्रसिद्घ प्रतिबद्घ फिल्म निर्माता, आनंद पटवद्र्घन ने अब से कई वर्ष पहले अपनी फिल्म को नाम ही दिया था-जयभीम कामरेड।
बेशक, आंबेडकर और कम्युनिस्टों के रिश्ते भी कोई हमेशा सहयोग या समर्थन के ही नहीं रहे थे। कम्युनिस्टों की समाजवादी समाज की कल्पना से और उससे भी बढ़कर उसे हासिल करने के क्रांतिकारी हिंसा के तरीके से भी आंबेडकर बहुत प्रभावित नहीं थे। इसके बावजूद, यह भी सच है कि आजादी के पहले और आजादी के बाद भी कम्युनिस्टों की ही तरह आंबेडकर भी, एक ऐसे समाज की स्थापना के लिए लड़ रहे थे, जो राजनीतिक के साथ ही साथ आर्थिक व सामाजिक शोषण और दमन से मुक्त हो।
आर्थिक व सामाजिक असमानता के खत्म किए जाने के जरूरी होने का आंबेडकर का विश्वास इतना पक्का था कि संविधान सभा में संविधान प्रस्तुत करते हुए अपने अंतिम प्रसिद्ध भाषण में आंबेडकर यह चेतावनी देना नहीं भूले थे कि,
‘‘हम कब तक अपने सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे। अगर हम ज्यादा दिनों तक इसे नकारते रहते हैं, तो हम अपने राजनीतिक जनतंत्र को खतरे में डालकर ही ऐसा कर रहे होंगे। हमें इस अंतर्विरोध को जल्द से जल्द दूर करना होगा वर्ना जो असमानता को भुगत रहे हैं, राजनीतिक जनतंत्र के उस ढांचे को ही उखाड़ फैंकेंगे, जो इस (संविधान) सभा ने इतने श्रम से खड़ा किया है।’’
Differences between Ambedkar and Communists
यह एक तथ्य है कि संविधान सभा का अध्यक्ष चुने जाने से पहले आंबेडकर ने ‘स्टेट्स एंड मॉइनारिटीज़’ शीर्षक से संविधान सभा के सामने जो ज्ञापन रखा था, उसमें निहित समाज की कल्पना, कमोबेश कम्युनिस्टों जैसी ही थी, जिसकी आर्थिक व्यवस्था में उद्योगों और कृषि, दोनों का राष्ट्रीयकरण शामिल था।
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दूसरी ओर जैसा मुल्कराज आनंद के साथ एक बातचीत में आंबेडकर ने बताया था, वह संविधान में निजी संपत्ति के बुनियादी अधिकार बनाए जाने के खिलाफ थे और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि को बुनियादी अधिकार बनाने के पक्ष में थे। लेकिन, संविधान सभा ने उनकी कल्पना को ठुकराकर, सामाजिक व आर्थिक असमानाताओं को बनाए रखने वाले उस मॉडल को स्वीकार किया, जिसके असमानता को भुगतने वालों द्वारा पलट दिए जाने की आंबेडकर ने तभी चेतावनी दे दी थी जब संविधान को अंतिम रूप दिया जा रहा था।
इसलिए अचरज की बात नहीं है कि आंबेडकर और कम्युनिस्टों के बीच मतभेद, मानव मुक्ति की एक ही राह के दो राहगीरों के बीच के रास्ते के इस तरफ या उस तरफ चलने के मतभेदों से ज्यादा नहीं थे। बेशक, आंबेडकर सबसे बढक़र जातिगत उत्पीड़ऩ व भेदभाव के खिलाफ विद्रोह के आधार पर खड़े होकर दुनिया को देखते थे, लेकिन वह उस वृहत्तर सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को बदलने की जरूरत से भी बेखबर नहीं थे, जो सदियों से चले आ रहे सामाजिक भेदों के ढांचे को सहारा दे रही थी। इसी प्रकार, उनके समय के कम्युनिस्ट वर्गीय सत्ता को बदलने के जरिए समाज को बदलने पर केंद्रित होते हुए भी, सामाजिक भेदभाव की व्यवस्था पर प्रहार करने में किसी से पीछे नहीं थे। दोनों में अंतर था तो इसका कि एक का ज्यादा ध्यान जाति पर था और दूसरे का वर्ग पर। अगर ऐतिहासिक रूप से इस छोटी सी दूरी का नहीं पाटा जा सका था, तो आज की परिस्थितियां इसे पाटने का मौका और जरूरत, दोनों पेश कर रही हैं। आखिरकार आज तो स्वतंत्रता, बराबरी तथा भाईचारे के उन बुनियादी मूल्यों को ही बचाने का सवाल, जिन्हें आंबेडकर और कम्युनिस्ट समान रूप से एक आधुनिक समाज की अनिवार्य शर्त मानते हैं। और इन मूल्यों पर हमला मौजूदा व्यवस्था के आत्मरक्षा के उद्यम का हिस्सा है। इसीलिए, यह बेधड़क जय भीम लाल सलाम का समय है।
राजेंद्र शर्मा


