यह समय वामपंथ के विदाई समारोह का नहीं, उसकी प्रासंगिकता को पुनः रेखांकित किये जाने का है
यह समय वामपंथ के विदाई समारोह का नहीं, उसकी प्रासंगिकता को पुनः रेखांकित किये जाने का है
संभव ही नहीं वाम का खात्मा
वाम खुद को विसर्जित करने का भी फैसला ले ले तो भी जनता एक नया वाम सृजित-संगठित कर लेगी।
बादल सरोज
2014 के लोकसभा चुनाव अनेक मायनो में असामान्य चुनाव थे। एक तीव्र लहर उठी और सत्ता पार्टी को अब तक की सबसे गहरी डुबकी का अनुभव करा गयी। यह लहर बेकाबू महंगाई, उच्च स्तर पर भारी भ्रष्टाचार और जनता के प्रति अवज्ञापूर्ण रवैय्ये के खिलाफ थी। लहर जब भी आती है तो वह रत्न-माणिक्य नहीं लाती- अमूमन सतह पर तैरता हुआ कचरा-फेन-और कुछ तैरते फिरते सामान साथ लाती है। नयी लोकसभा में जीते सांसदों में से 442 यानि 85 % करोड़पति हैं। आपराधिक मामलों में लिप्त माननीयों की तादाद भी पहले से बढ़ी है। हारने वालों को हराने वाले 100 से ज्यादा सांसद पहले हारने वालों की पार्टी के ही हुआ करते थे। आदि-इत्यादि। शो-केस और गोदाम दोनों की हालत एक सी है।
इन चुनावो में वामपंथ को नुक्सान हुआ है। लोकसभा में उसकी शक्ति आज़ादी के बाद अब तक की सबसे कम हुई है। बंगाल की अभूतपूर्व हिंसा और मतदाताओं को वोट डालने से रोके जाने जैसे गुणात्मक असर डालने वाले पहलू के बावजूद वामपंथ की 13 सांसदों की उपस्थिति उसकी वास्तविक शक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इस धक्के की समग्र समीक्षा के पूर्व ही कुछ विद्वानों ने वाम राजनीति का मर्सिया पढ़ना शुरू कर दिया है। कुछ तो इतनी जल्दी में है कि समाधि के स्मृतिलेख की पट्टिका तक लिखवा लाये हैं। हड़बड़ी में निकाले उनके तुरतिया निष्कर्ष उन्हें बाद में शर्मसार कर सकते हैं। ऐसा मानने के पीछे न तो अति-आत्मविश्वास है ना ही खुद के सही होने का जड़सूत्रवाद; यह सामाजिक विज्ञान के दो बड़े पहलुओं पर टिका आंकलन है। एक तो यह कि ऐसा करने वाले, पूरी सदाशयता के साथ दुखी होकर इस तरह सोचने वाले, वाम को भी दीगर राजनीतिक पार्टियों की तरह कुछ लोगो का-कुछ लोगों के लिए-कुछ लोगो द्वारा समूह मानकर चलते हैं। यह आधार ही गलत है। राजनीतिक संगठन, प्रशासनिक तंत्र और नियम क़ानून आकाश से अवतरित नहीं होते- वे उस वक़्त के आर्थिक ढाँचे की नींव पर खड़े होते हैं। राजनीति को आर्थिक नीतियां संस्कारित करती हैं। जनाक्रोश दरअसल इन नीतियों के नतीजों के खिलाफ होता है। भले इसका तात्कालिक प्रकटीकरण किसी के खिलाफ-किसी के समर्थन में होता क्यों न दिखाई दे ।
दूसरा यह कि विकल्प वास्तविक चाहिए होते हैं, भावनात्मक नहीं। इस बार के चुनाव की मजेदार बात खुद हैजे के विषाणुओं द्वारा हैजे के खिलाफ माहौल का फायदा उठाने के रूप में सामने आयी। पिछले छह महीनो में कार्पोरेट और उसके पालित-पोषित मीडिया ने उन सब मुद्दों को ओझल रखने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, जिनसे उपजे गुस्से की सजा कांग्रेस और उसके यूपीए को मिली है। मगर मार्केटिंग का शास्त्र यह भी कहता है कि तेल-साबुन-शैम्पू के विज्ञापनों की आक्रामकता से ग्राहक को एक बार खरीदने के लिए प्रलोभित किया जा सकता है। दूसरी बार वह तभी आता है जब उसे वह गुणकारी लगता है। राजनीति में इसका मतलब होता है जनाकांक्षाओं का पूरा किया जाना। ताजी लोकसभा इस मामले में कोई आश्वस्ति देती नहीं दिखाई देती। आर्थिक नीतियों के मामले में जीती और हारी पार्टियों के घोषणापत्र एक दूसरे की खराब कार्बनकापियां है- जिनके कॉपीराइट के लिए दोनों के बीच कोई ढाई दशक से तू-तू -मैं-मैं चल रही है। किसी को- खुद सरकार बनाने जा रहे नेताओं को भी-नहीं पता कि महंगाई कैसे रुकने वाली है, रोजगार कहाँ से सृजित होने जा रहे हैं और भ्रष्टाचार पर किस तरह अंकुश लगने वाला है, किसानों का पलायन और आत्महत्याएं और विराट बहुमत की थाली के कटोरी में बदल जाने का संत्रास कैसे सुलझेगा। कृष्ण और सुदामा के लिए एक ही गुरुकुल वाले देश में सबकी पहुँच में, सबके लिए एक सी शिक्षा किस तरह पक्की की जाएगी।
इन दोनों से इतर वामपंथ भारतीय राजनीति की ऐसी इकलौती धारा है जो सिर्फ मर्ज बताने तक सीमित नहीं रहती, निदान के साथ उसका उपचार भी बताती है। इन सारे मर्जो की दवा उसी के पास है। जब तक ऐसे हालात मौजूद हैं, तब तक वाम खुद को समाप्त और विसर्जित करने का भी फैसला ले ले तो भी जनता एक नया वाम सृजित-संगठित कर लेगी। सिर्फ चंद महीने बाद यह दीवार पर अमिट इबारत फिर सामने आ जायेगी कि यह समय वामपंथ के विदाई समारोह का नहीं, उसकी प्रासंगिकता को पुनः रेखांकित किये जाने का समय है।
हर खतरे में सम्भावना निहित होती है - हर चुनौती एक अवसर भी होती है। इस तरह हाल के चुनाव नतीजे वामपंथ के लिए नयी सम्भावनाओ तथा नए अवसर उपलब्ध कराने वाले हैं। मगर यह सब अपने आप नहीं हो जायेगा। इसके लिए आने वाले दिनों में उसे जनलामबंदी के अपने आजमाए तरीको को तो तेज करना ही होगा। विचार को व्यवहार में उतारने की जिद भी करनी होगी। संवाद के नए तरीके ढूंढने होंगे। नए मुहावरे और जरूरी हो तो नया व्याकरण भी गढ़ना होगा। छोटी छोटी जनकार्यवाहियों की धाराओं को एक दूसरे से जोड़कर उसे उत्ताल तरंग में परिवर्तित करना होगा। सुनामी का जाप करने वालों को याद दिलाना होगा कि इतिहास में आजतक किसी भी सुनामी ने ध्वंस के सिवा कुछ नहीं किया है। निर्माण और सृजन सुनामियों से नहीं जनबल के पसीने की बूंदों से होता है। जब तक इसकी अनदेखी जारी है तब तक वामपंथ की मजबूती प्रासंगिक भी है-जरूरी भी।
वाम के प्रति जनता का विश्वास अप्रतिम और अटूट है। वाम इन पर खरा उतरने और उन्हें पूरा करने के लिए अपनी ताकत झोंक कर ही देश और जनता को गाहे-बगाहे आने वाली सुनामियों से बचा सकता है। ऐसा करने के लिए उसे हर तरह की शिथिलता से उबरना होगा और यह हमेशा याद रखना होगा कि उसके प्रति जनविश्वास इतना प्रगाढ़ है कि किसी भी भूल-गलती-चूक के लिए अवाम एक बार राम को माफ़ कर सकता है, वाम को नहीं। क्योंकि राम उसकी अनुपलब्ध आस्था हैं-जबकि वाम को वह अपना सबसे सजग पहरुआ, शुभचिंतक और सदैव उपलब्ध संरक्षक मानता है। इतने जबरदस्त अपनापे का प्रत्युत्तर वाम को भी अपनी कुर्बानियों और निकटता बढ़ा कर देना होगा।


