‘‘ यूनि. हंगामा 87 ’’
‘‘ यूनि. हंगामा 87 ’’
मित्रों, ‘‘यूनि. हंगामा 87’’, एक अजीबो गरीब शीर्षक से अपनी बात कहने जा रहा हूँ। ‘‘यूनि. हंगामा 87’’ कोई कहानी नहीं है बल्कि कह सकते हैं कि कहानी की शुरूआत है, कहानी की शुरूआत भी कैसे कहा जाये ? इस कहानी का ब्लैक एण्ड व्हाइट पार्ट तो आज से 28 साल पहले प्ले किया जा चुका है। तो फिर क्या यह एक प्रत्यावलोकन है वक्त की धारा को मोड़ने का महाप्रयास है या कि हवाओं के विपरीत चलने की कवायत है।
कुछ भी हो, किन्तु निःसन्देह यह एक रोचक शुरूआत है। जिस हंगामा 87 की चर्चा मैं आज कर रहा हूँ उसके बारे में बताता चलूँ कि यह कोई दसेक लोगों का ग्रुप है जो आज से 28 वर्ष पहले एक दोपहर आखिरी वार विश्व विद्यालय परिसर में मिले थे और यकायक हमेशा के लिये इस दुनियाबी भीड़ में गुम हो गये थे। उस दोपहर जब ये आखिरी बार एकत्र हुये थे तब की दुनिया में और आज की दुनिया में बहुत फर्क है तब से लेकर आज तक पृथ्वी की नदियों में कितना पानी बह चुका है और समन्दर के पानी को कितना और खारी बना चुका है किसी के पास इसका हिसाब नहीं है।
दोस्तों, यह कहानी कोई ‘‘यूनि. हंगामा 87’’ की ही नहीं है बल्कि हम सबकी है। 1987 में किसने जाना था कि दूरसंचार के क्षेत्र में इस कदर क्रांति होगी कि हम लोग एक दिन हजारों मील दूर रहते हुये भी एक दम करीब होंगे, छू नहीं सकते किन्तु स्पन्दनों को महसूस करने की अवस्था में होंगे। 1987 के सत्रावसान की वह आखिरी दोपहर सब ने एक-दूसरे की डायरियों में भावनायें उड़ेल दी थी। डबडबाई आखों से विदा ली थी। सभी युवा थे। भविष्य बाहें फैलाये आव्हान कर रहा था। उस गमगीन शाम के बाद कदाचित सभी ने उन रिश्तों को खूटियों पर टाँग दिया था और निकल पड़े थे उन राहों पर जिन रास्तों को तय करने के बाद मंजिलें मिलने वाली थीं।
ठीक अठ्ठाइस साल बाद यकायक एक शाम सभी मित्र व्हाट्सएप के माध्यम से एक जगह एकत्र हो गये। एक क्षण को वह भूल गये कि इतना वक्त गुजर गया है एक लम्बी दोपहर के बाद शाम को फिर एक साथ थे। खूँटियों पर टँगी पोटलियों को खोलकर बैठ गये और हिसाब करने लगे और हिसाब माँगने लगे। कितना जज्वाती आलम है यह। मैं यहाँ से कहानी की शुरूआत कर सकता हूँ लेकिन मुझे कोई जल्दी नहीं है मुझे कैनवास मिल गया है मेरे पास ढेरों रंग भरने के लिये पहले से ही मौजूद हैं। मैं लिखूगाँ बड़ी शिद्दत के साथ, सजाऊँगा, सवारूँगा एक-एक तिनके को बटोर कर सलीके के साथ निर्माण करूँगा यह तो बस शुरूआत है या, कह लीजिये कि किसी रिसर्च की सिनोप्सिस है।
मैं बात अट्ठाइस वर्ष बाद मिले मित्रों की कर रहा हूँ इसलिये यहाँ विषयान्तर उचित नहीं है। अट्ठाइस लम्बे वर्षों के बाद यकायक मिलना, खूँटियों पर टँगी पोटलियाँ भी एक साथ खुल गयी, इंटरनेट के सभी रास्ते जाम हो गये, या कह लीजिये कि इंटरनेट क्रैश कर गया। कितनी ऊर्जा !
लोग कहते हैं कि उम्र के साथ ऊर्जा घट जाती है, मैं इसे नहीं मानता, उम्र के साथ व्यक्ति अपनी ऊर्जा को खर्च करने के तरीके सीख लेता है युवावस्था की तरह वह फिजूल में फैलाता नहीं है उड़ेलता नहीं है। किन्तु यहाँ तो सब यही हो रहा था। एक-दूसरे को जान लेने की तीव्र उत्कंठा।
अट्ठाइस वर्ष का हिसाब भी कोई एक दो दिन में लिया जा सकता है ? किन्तु इतना बता दूँ कि इस ग्रुप के लोग बड़े शालीन हैं और हों भी क्यों न, आखिर उम्र का तकाजा भी है। सब एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं एक-दूसरे को साथ लेकर चलते हैं जो पीछे छूटने लगता है उसे पुकार कर धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हैं। मिलने के वायदे होते हैं जबकि यह भी सभी को अहसास है कि ये वायदों की इमारत वादा खिलाफी की नींव पर तामीर हो रही है। पुराने व नये फोटो शेयर करते हैं सेल्फी भी भेजते हैं पुराने और नये स्नेप्स को देखकर खुश होते हैं तो कभी मायूस भी, और तब उर्दू के मशहूर शायर फैज अहमद फैज का मशहूर शेर भी याद करते हैं कि ‘‘आयना मुझसे पहले वाली सूरत माँगे’’........।
मैंने पहले ही कहा कि यह तो मात्र सिनोप्सिस है एक बड़ी कथा तो लिखी जानी है, प्लेट फार्म तैयार है, कैनवास खाली है और मेरे पास ढेरों रंग हैं। यह उपसंहार नहीं है ये एक और शुरूआत है। मेरी डिक्सनरी में उपसंहार शब्द नहीं है। मैं उस क्षण भी एक नयी शुरूआत करना चाहूँगा जब मौत मुझे मेरी जिन्दगी का हिसाब मेरे हाथों में थमा रही होगी। मुझे कभी-कभी लगता है कि जो मैं सोचता हूँ वही मेरे इर्द-गिर्द खड़े हुये लोग सोच रहे हैं ‘‘यूनि. हंगामा 87’’ के लोग तो अवश्य ही यही सोचते हैं।
वास्तविक दुनिया में इस ग्रुप के लोग केवल दो वर्ष ही साथ रहे, किन्तु खूंटियों पर टंगी पोटलियों में सपने वखूबी सजा कर रखे थे जैसे उन्हें पता था कि एक दिन पोटली खोलनी पड़ेगी। और कमाल भी देखिये कि उन पोटलियों में ब्लैक एण्ड व्हाइट सपने ठूॅंसे गये थे, किन्तु जब उन पोटलियों को खोला तो उनमें रंगीन सजे हुये सपने पलक पाॅंवड़े बिछाकर स्वागत कर रहे थे। मुझे यकीन है कि यह सिलसिला रूकने वाला नहीं है। ये आगे जायेगा, बहुत आगे तक इसे एवरेस्ट की ऊॅंचाइयाॅं तय करनी है। मैं इस सिनोप्सिस को एक छोटी सी कविता के साथ विराम देता हूँ और हंगामा 87 को ढेरों शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ ।
जो ख्वाहिशें
टांग दी थीं खूटियों पर
बरसों पहले
हमने कभी ।
वे स्वप्न -
बीज बन झर गये,
वृक्ष बन गये ।
उन दरख्तों पर अब
कमल खिलने लगे हैं
गुलाब महकने लगे हैं ।
अनामदास


