योग का विरोध – पहले हिन्दू और हिंदुत्व का अंतर तो समझिए प्रभु
योग का विरोध – पहले हिन्दू और हिंदुत्व का अंतर तो समझिए प्रभु
रविन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की दलील है कि इक तरफ संघ परिवार भारत की बहुविध और संपन्न परंपरा का संकुचन करने तथा उसका विकृतिकरण करने पर तुला है , तथा परंपरा से जुड़े हर बात से राजनैतिक लाभ उठाना चाहता है, तो दूसरी तरफ यहाँ का अपने आप को प्रगतिशील तथा वामपंथी मानने वाला तबका उस की प्रतिक्रिया में हर परंपरा से नाता तोड़ता चला जा रहा है. वह हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के फर्क को नहीं समझता, ना तो संगठित धर्म और अध्यात्म के बीच की बारीकियां उसके समझ में आती है. आजका राजनैतिक संकट इसी जड़ता की देन है..... विचारोत्तेजक लेख
योग- ऐसा होता तो नहीं....
देश के जीवन में कभी कभार ऐसा होता है कि कुछ सादी-सी बातें जो आसानी से हो सकती थी, सब को सकून पहुंचा सकती थी, नहीं होती. कुछ लोग अपनी कलाबाजियों से बाज नहीं आते. और हम लोग (फिर एक बार) निराशा की गर्त में बरबस धकेले जाते हैं. २१ जून २०१५ के अंतर्राष्ट्रीय योग दिन को लेकर देश में जो सियासती तिकड़मबाजी हुई, उसे देख कर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को गुलज़ार सा’ब की ये पंक्ति-
ऐसा होता तो नहीं, ऐसा हो जाएं अगर
ज़रूर याद आयी होगी.
देश के सियासती रंगमंच पर घटे इस नाटक के पात्रों से मुखातिब होने से पहले नेपथ्य पर एक नज़र डालें. योग यह भारत ने विश्व को दी हुई अनमोल धरोहर है, इस बात से किसी को संदेह नहीं होना चाहिए. साथ ही साथ हम इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ न करें कि यह पूरी तरह ‘भारतीय’ है, सिर्फ हिन्दू नहीं. दिन इतिहास के पुनर्लेखन के हैं, उसी तरह अपने इतिहास और परंपरा से मुंह मोड़ने के भी. इसीलिए कुछ इतिहास बताना लाज़मी होगा. योग के दर्शन में जैन और बुद्ध दर्शनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. योग की परंपरा हजारों सालों तक अक्षुण्ण रखने में और उसे भारत के बाहर लोकप्रिय बनाने में बुद्ध भिक्खुओं की अहम् भूमिका रही है. सन १००० के आस पास पतंजलिकृत योग सूत्रों का प्रथम भाषांतर अरबी भाषा में किया गया. विख्यात अरबी विद्वान् तथा भारतीय ज्ञानपरंपरा के मर्मज्ञ अल-बिरूनी ने किया यह अनुवाद आज भी ‘किताब बतंजल’ नाम से विख्यात है. उस के बाद देश–विदेश में योग को फैलाने में सूफी संतों ने भरसक भूमिका निभाई. पिछले ५-६ दशकों में योगाचार्य बी के एस अय्यंगर जैसे गुरुओं के माध्यम से कई सारे पश्चिमी तथा पूर्वी देशों में विविध धर्मीय प्रशिक्षित योग अध्यापक तैयार हुए. २१ जून २०१५ को जब १९१ देशों में लोगों ने योगासन कर योगदिन मनाया, उसका श्रेय इस दीर्घ परंपरा को जाता है.
आज सारी दुनिया मानती है कि ‘एक्यूपंक्चर’ चीन के द्वारा विश्व को दिया हुआ उपहार है. उसी तरह से योग विद्या या योगशास्त्र किसी धर्मविशेष या राजनैतिक दल का नहीं, बल्कि समूचे भारत का ‘योगदान’ है, ऐसा ही विश्व मानकर चलता है. ‘योग’ शब्द का मूल अर्थ ही ‘जोड़ना’ है, इसीलिए उस के माध्यम से समूचे विश्व को भारत से जोड़ लेना यह एक सहज बात हो सकती थी. इसीलिए २१ जून को अंतर्राष्ट्रीय योगदिन संपन्न होना भारत देश और यहाँ के नेतागण इनके लिए एक सुनहरा मौका था. यह देश की बहुविध परंपरा का गौरव है ऐसा मान कर उस माध्यम से देश के सभी पंथ के उपासकों को इकठ्ठा करना सहज संभव था. अगर इसे मनाने में सभी सम्प्रदाय के उपासक तथा संप्रदाय न मानने वाले लोग इन सब को शामिल किया जाता, तो फिर २१ जून यह सरकारी उत्सव के बजाय जनोत्सव हो सकता था. (राजपथ पर उसे मनाने में भी एक संकेत छुपा हुआ है.) इस सन्दर्भ में धर्म या सरकार ये मुद्दे मूलतः अप्रस्तुत हैं.
ज़रा सोचिये, किसी भी धर्मविशेष के चिन्ह और नेता इन को दूर रख कर, राजनैतिक पार्टियाँ तथा सरकारी तामझाम का सहारा न लेते हुए अगर यह कार्यक्रम किया जाता, तो कितने बड़े स्तर पर, कितने हर्षोल्लास के साथ वह मनाया जाता! वाकई, तब वह ‘इव्हेंट’ न रहकर राष्ट्रोत्सव बनता. किसी भी वर्ल्ड रिकॉर्ड के दायरे उस के लिए छोटे पड़ जाते.
लेकिन इतना व्यापक विचार करना यह संघ परिवार के बस की बात नहीं है, यह उस ने इस बार फिर से साबित कर दिखाया. एकदम शुरुवात से उन्हों ने अपना प्यारा खेल शुरू किया. याने कि मोदीजी सब धर्मों का नाम लें और भक्तगण हिन्दू धर्म और संस्कृति के नारे लगाएं. माहौल तो ऐसा बनाया गया गोया योग के इतिहास में पतंजलि से लेकर गुरु अय्यंगार तक किसी का नाम लेने की ज़रुरत नहीं; बाबा रामदेव की महिमा से योग पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ और मोदीजी के आदेश पर समूचे विश्व ने उसे अपना लिया! संघ-भाजपा ने जैसे ही अपनी यह चाल चली, नाटक के दुसरे पात्रों ने भी अपनी अपनी तयशुदा भूमिकाएँ निभाना शुरू किया.
योग इस्लाम की नसीहत के खिलाफ है ऐसा किसी मजहबी नेता ने ज़ाहिर किया. इतवार के दिन योग दिन का आयोजन यह ईसाईयों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला है, ऐसा बयान किसी ईसाई नेता ने जारी किया. (हमेशा की तरह अपना यह वक्तव्य ठीक रास्वसं ने लिखी हुई संहिता के अनुसार हो रहा है इसका ख्याल भी उन्हें नहीं आया.) उसके बाद भाजपा ने कुछ मुस्लिम योगशिक्षकों को ढूँढ निकाल अपना सर्वधर्मसमभाव साबित किया और उसी के साथ, योग का विरोध करने वाले लोग देश छोडकर चले जायें, यह ऐलान भी उन्हींके अन्य नेताओं ने किया. योग दिन का कार्यक्रम खत्म होने के बाद राम माधवजी ने उपराष्ट्रपतिजी के खिलाफ छींटाकसी कर यह दिखा दिया कि त्यौहार के बाद भी उनकी उमंग बाकी है.
यह नाटक मंचित होते वक्त अन्य कलाकार क्या कर रहे थे? कॉंग्रेस के बारे में तो सोचने की भी जरूरत नहीं. देश के राजनैतिक जीवन में अपनी कोई भूमिका है, इसका अहसास तक उसे नहीं रहा है और ‘अपनी’ राजनैतिक सोच बनाये बगैर वह आयेगा भी नहीं. नाटक का पर्दा गिरने के बाद उसे नेहरूजी का योगप्रेम याद आया. इसके बाद कहने को क्या रह जाता है? वामपंथियों ने क्या किया? इस सवाल का सीधा जवाब यह है कि वे जो कुछ करना जानते थे, वह सबकुछ उन्होंने किया. जैसे कि – यह भगवाकरण का एजेंडा आगे बढ़ाने की चाल है, यह हिन्दू विचारधारा अन्य धर्मियोंपर लादने का षड्यंत्र है, यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर हमला है, आदि. उसके बाद किसी को यकायक याद आया कि २१ जून यह रास्वसंघ के संस्थापक डॉ केशव बळिराम हेडगेवार का स्मृतिदिन है. तब तो उन्हें योगदिन के विरोध के लिये मानो हथियार मिल गया.
योग दिन २१ जून को मनाया जाय यह बात ४ व ५ दिसंबर २०११ को हुए योगगुरु और धार्मिक नेताओं के परिषद में प्रस्तावित हुई, क्योंकि उस दिन दक्षिणायन का प्रारंभ होता है, जो योग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इसी कारण से संयुक्त राष्ट्रसंघ ने २१ जून को योगदिन मनाने की नरेंद्र मोदीजी की सूचना मान ली. वस्तुतः संयुक्त राष्ट्रसंघ को हेडगेवार कौन यह मालूम होनेकी कोई गुंजाइश नहीं. भारत में भी इस विवाद से पहले कितने लोगों को हेडगेवार और २१ जून का संबंध ज्ञात होगा? लेकिन इन बातों पर गौर किये बगैर वामपंथियों ने गलत मुद्दों पर बहस कर अपनी हार का रास्ता प्रशस्त किया.
भाई बर्धन जैसे ज्येष्ठ नेता ने “मैं रोज योगासन करता हूँ” यह कहा ज़रूर, लेकिन भगवाकरण के मुद्दे को लेकर उन्हों ने योगदिन का विरोध किया. वामपंथियों में से किसी ने भी योग यह भारत की महान परंपरा है और उस पर हमें गर्व है, ऐसा नहीं कहा. योग की परंपरा समूचे समाज की है, अखिल मानव मात्र के हित की है, उसका दायरा सिकुड़ कर उसे किसी धर्मविशेष से जोड़ना हमें मान्य नहीं. सरकार और पार्टी को दूर रखो, हम सब एक राष्ट्र के तौर पर यह उत्सव मनायेंगे, ऐसी भूमिका वे ले सकते थे, जो उन्होंने ली नहीं.
यह तो होने ही वाला था. हिमालय जैसी बड़ी गलतियाँ कई बार दोहराकर भी उनसे कुछ भी न सीखना यही वामपंथियों का इतिहास रहा है. भारत की सभी रंगच्छटाओं के वामपंथीय लोग अभी तक युरोपकेंद्री विचारों के व्यूह से मुक्त ही नहीं हुए हैं. वे भारतीय परंपरा से वाकिफ नहीं हैं. परिवर्तन की भी परंपरा होती है और उससे रिश्ता तोड़कर विद्रोह की कोई विचारधारा टिकने वाली नहीं, यह बात तो वे समझते हैं. लेकिन भारतीय परंपरा के साथ रिश्ता जोड़ने की प्रेरणा ही उन में नहीं है. इस देश की बहुविधता में परिवर्तन के लिये अपरिमित अवकाश है यह भी वे नहीं समझते. इसीलिये वे बुद्ध, चार्वाक से लेकर मीरा, कबीर, तुकाराम तक सभी लोगों की ओर पीठ फेरते हैं. आधुनिक काल के विवेकानंद को भी वे अपनाते नहीं (और इसीलिए संघ परिवार उन को तोड़-मरोड़ कर अपनाने में कामयाब होता है.) धर्म और अध्यात्म के फर्क को भारत के वामपंथी समझ नहीं पाते. बल्कि नास्तिकता के साथ अनेकेश्वरी पंथों को समा लेनेवाली व्यापक परंपरा यह संगठित धर्म (संप्रदाय) से अलग होती है, यह भी वे नहीं समझतें. फिर वे भगवा रंग, किसी देवता का नाम जैसे सतही प्रतीकों को देखकर अकारण उनका विरोध करते हैं. मूलतः भगवे रंग की परंपरा यह बौद्ध भिक्खुओं के चोले के गेरुए रंग से शुरू हुई, जिसे कालांतर से हिंदू संन्यासियों ने अपनाया. यह रंग त्याग का प्रतीक है, न कि वैदिक धर्म का, यह इतिहास वे नहीं जानते या उसे भूल जाते हैं. इसीलिए रा स्व संघ तथा भाजपा की सांप्रदायिकता का विरोध करते वक़्त वे हमेशा भगवाकरण शब्द का प्रयोग करते हैं. ऐसा करने से वे कई सारे ऐसे हिन्दुओं को संघ-भाजपा की ओर धकेलते हैं, जिन्हें संघविचार से कोई लगाव नहीं है, लेकिन जो सोचते हैं कि वामपंथियों का हमला उनके अपने धर्म पर है. इस विवेचन में मैंने वामपंथीय (मार्क्सवादी) व अन्य प्रगतिशील पन्थों में भेद नहीं किया है. क्योंकि जयप्रकाश और लोहिया ने अपने शिष्यों को भारतीय परंपरा के बारे में सचेत ज़रूर बनाया था, लेकिन इन शिष्यों ने भी अपनी विरासत भुलाकर रास्वसंघ का विरोध करते वक़्त वामपंथियों की घिसी-पीटी नीतीयों को ही अपनाया है.
अपनी परंपरा के प्रति सचेत लगाव रखने वाले आखरी नेता थे महात्मा गांधी. इसीलिये उन्हों ने हिंदू परंपरा को अपनाते हुए अस्पृश्यता को पूरी तरह से नकारा. देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए परंपरा के बंधन त्यागकर स्त्रियों को रास्ते पर आने का आवाहन किया. आयुर्वेद जनसामान्यों से दूर जा रहा है, इस बात को लेकर उस की आलोचना की. लेकिन किसी भी परंपरा को उन्होंने नकारा नहीं, बल्कि उसे नया रूप दिया. इसीलिये वे संघ–हिंदू महासभा के संकुचित धर्म के विरोध में व्यापक धर्म की ताकत लेकर उतर सके. गांधीजी का रहीम से रिश्ता रखनेवाला राम जब तक भारतीयों के मन में बसा था, तब तक रामजन्मभूमि के आक्रमक श्रीराम को राजनीति के अखाडे में उतारने की हिम्मत संघ परिवार को नहीं हुई. वामपंथियों ने अगर गांधीजी से थोड़ा-सा राजनैतिक सयानापन उधार लिया होता, तो योग के बारे में गर्व जताकर भी योगदिन के संकोचन व सरकारीकरण का विरोध करने की भूमिका वे ले सकते थे. अगर मोदी सरकार अपनी जिद पर कायम रहती, तो सरकारी समारोह के समान्तर अलग से जनता का कार्यक्रम लेकर उसका राजनैतिक जबाब देना उनके लिये संभव था.
इस नाटकबाजी का लाभ फिलहाल तो संघ परिवार को ही होगा, यह जाहिर है. संघ ने अपने राजनैतिक विरोधकों की मानसिकता का जितना अध्ययन किया है, उससे एक दशांश भी काम उसके विरोधी दलों ने किया नहीं है, यह संघ अच्छी तरह जानता है. इसीलिये घर वापसी, लव्ह जिहाद, वैलेंटाइन डे-विरोध आदि नयी नयी गिमिक्स निकालकर विरोधकों की मजा लेना यह उसका प्रिय खेल रहा है.
चिंता इस बात की नहीं है कि राजनीति की हर बाजी में हार वामपंथियों की होती है. दुःख यह है कि ऐसे हर मुकाम पर हार होती है तो यहाँ की जनता की. ठेस पहुँचती है लोकतंत्र के प्राणतत्त्व को – हमारी संपृक्त बहुविधता को. भाजपा जब विपक्ष में था, तब इस तरह की विभाजन की राजनीति भले देशहित में न भी हो, कमसे कम उसे राजनैतिक लाभ दिलाती थी. लेकिन उसे यह याद नहीं रहता कि वह अब सत्ता में है. किसी भी सत्ताधारी पार्टी ने यह खेल खेलना पार्टी और और देश – दोनों के हित में नहीं, यह बात अभी भी उसके समझ में नहीं आयी.
सांप्रदायिकता और मूलतत्त्ववाद के शेर पर सवार होना आसान है, लेकिन सवार को और समूचे देश को उस की क्या कीमत चुकानी पड़ती है, इसका इतिहास हमारे अपने और पड़ोसी देश में अभी तक ताजा है. सत्ताधीशों की स्वार्थांधता और विरोधकों की मूर्खता इन दोनों का दुष्टचक्र भेदनेवाले ‘अच्छे दिन’ देश के भाग में कब आयेंगे? जब तक वे नहीं आते, ‘ऐसा होता तो नहीं, ऐसा हो जाये अगर’ कहते हुए अपना दिल बहलाने में क्या हर्ज़ है?
रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ


