रवीश जी ये सड़क संसद की ओर नहीं जाती, पर आप जिस राजमार्ग पर अड़े हैं वे राजयोग के प्राबल्य के प्रतीक ही हैं
रवीश जी ये सड़क संसद की ओर नहीं जाती, पर आप जिस राजमार्ग पर अड़े हैं वे राजयोग के प्राबल्य के प्रतीक ही हैं
रवीश कुमार के नाम स्वराज खबर के संपादक बाबा विजयेंद्र की पाती
प्रिय रवीशजी,
जनापेक्षी पत्रकारिता के कारण आपकी जनप्रियता अवश्य ही शिखर पर है। किसी सन्नी और सलमान को भी आप लोकप्रियता के मामले में पीछे धकेल सकते हैं।
मुझे आपके पहचान लेने या जान लेने का मेरा कोई दावा नहीं है। इसकी कभी जरूरत भी महसूस नहीं हुई। पहचान भी लेंगें तो शायद मुझे नहीं जान पाये होंगे? क्योंकि मैं आपकी तरह सिलेब्रेटी था या हूँ नहीं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप पॉपुलिस्ट कल्चर के पोषक हैं और सामान्य लोगों को अपनी यादों के करीब नहीं आने देते।
बावजूद न्यूनतम सदाशयता की अपेक्षा तो आप से हैं ही।
आपने प्रतीक के रूप में या हास-उपहास के लिए मेरी स्वराज खबर वाली गाड़ी का इस्तेमाल किया यह तो आप ही बताएँगे?
रवीशजी! अपने ढाबा से मिल रहे आस्वाद ने आपको लप्रेक की तरफ खींच लाया था। तब आपने कुछ लप्रेक को इसी स्वराज खबर के दफ्तर में जन्म दिया था। स्वराज को लेकर आप से लंबी बात भी हुई थी। स्वराज-संवाद उसी वक्त आपसे हो गया था। अविनाश दास की दिशा अगर फ़िल्म की ओर नहीं मुड़ी होती तो आप भी अपनी सरपरस्ती इस अखबार को दे रहे होते?
आप प्रयोगधर्मी पत्रकार हैं। अपने प्रयोजनमूलक पत्रकारिता के लिए किसी की प्रतिबद्धता को प्रश्न में परिवर्तित कर देना उचित नहीं है।
आज हर कथित बड़े मुँह में स्वराज व्याप्त है। पर मेरी आधी सदी का आधा समय इसी स्वराज के लिए समाप्त हुआ। यह सच है कि मैं ना तो पूरा तीतर हो सका ना ही पूरा बटेर। बाजार बहेलिया की तरह मेरे सपनों का शिकार करता रहा। जिसको संत समझा वही शिकारी निकला।
कागज़ काला करने के लिए स्वराज खबर की शुरुआत नहीं थी। गांधी के ताबीज का असर था। विकास के बनते टापू से धकियाये लोगों की जुबां बनने का ही सपना था। जिसकी लड़ाई उसकी अगुआई की समझ मौजूद थी। हर गरीब और आम लोगों ने अपना संसाधन झोंका। पर बात बन नहीं पायी। जमीर और जज्वात छोड़ जर्रा - जर्रा इसके लिए कुर्बान कर दिया। आप इसे आत्म - आहूति नहीं बेवकूफी ही कहेंगे जिसे आगे भी करने को मैं अभिशप्त हूँ।
समाजवाद की तरह स्वराज भी धीरे- धीरे आएगा या तेजी से, यह तो आप ज्ञानी ही ज्यादा बतायेंगे।
करमचंद से लेकर केजरीवाल तक स्वराज रोज नए अर्थ पाते शब्द रह गए हैं।
जो सवाल हैं उन्ही में आप स्वराज का समाधान खोज रहे हैं तो आपको स्वराज ट्रेक्टर, स्वराज प्रेस ही दिखेगा?
स्वराज के लिए आपका इलाका भी ऐतिहासिक रहा है। एक और चंपारण को आप ही क्यों नहीं घटित होने देते हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि एनडीटीवी में आप बापू के पोशाक में प्रोग्राम करें।
यह किसने कहा क़ि एक पत्रकार वक्त के प्रवक्ता नहीं हो सकते हैं। स्वराज को लेकर कोई निजी भी आपकी प्रतिबद्धता है या सब टाईम पास?
मैं जानता हूँ कि आधी ऊर्जा पत्रकारों को कलंक से बचने और लगे दाग को धोने में ही जाती है ?
खोजी पत्रकारिता का मतलव मनोरंजक- पत्रकारिता नहीं है। खोजी का मतलव किसी परिवर्तन से है। मीडिया में आपने केवल एकरसता और आस्वाद के खिलाफ ही लड़ाई शुरू की है जिसका समाज से क्या सरोकार है?
मुझ जैसे पत्रकार से अलग दिखना भी आपका एक अहंकार ही है। आप इस वहम् और अहम् से मुक्त हों तो इस समय और समाज के लिए शुभ होगा।
मैं तो सड़कछाप संपादक हूँ। यह सड़क संसद की ओर नहीं जाती। पर आप जिस राजमार्ग पर अड़े हैं वे राजयोग के प्राबल्य के प्रतीक ही हैं। रवीश का कोर्ट संसद की कुर्सी पर दिखने लगी है।
इस समय रवीश को साक्षी भाव में रहना चाहिए। रवीशजी ! जीवन के इस मंगल- काल में अपने कनिष्ठों और वरिष्ठों का इस तरह उपहास ना करें। गाय साथ ही चराए हैं। बस अंतर इतना है कि आपको गीता लिखने का मौका मिल गया है।
स्वराज खबर पर आपकी निगाह पड़ी, यह अच्छा लगा और यह निगाह में बना रहे तो और ही अच्छा लगेगा।
स्वराज के सवाल सनातन है। संघर्ष जारी है। आपका सहयोग सादर सम्प्रार्थित है।
आपका
विजयेंद्र


