राजनीति की ताकत से ज्यादा बड़ी ताकत है रंग कर्म की ताकत
राजनीति की ताकत से ज्यादा बड़ी ताकत है रंग कर्म की ताकत
बंगाल अगर हिंदुत्व की सुनामी से बच निकला तो बंगाल के ग्रुप थियेटर की उसमें सबसे बड़ी भूमिका होगी,
लखनऊ के मित्रों से एक विनम्र निवेदन है।
कृपया गौर करें।
हमारे सहकर्मी गौतम नाथ के छोटे भाई प्रबीर नाथ महानगर लखनऊ में एक नाटक का मंचन करने वाले हैं, कुंजपुकुर कांड। अगर बांग्ला ग्रुप थिएटर में आपकी दिलचस्पी हो, तो यह नाटक अवश्देय देखें जो बांग्ला के अत्यंत लोकप्रिय कथाकार शीर्षेंदु बंदोपाध्याय की कथा पर आधारित मौजूदा परिप्रेक्ष्य में समाजिक यथार्थ का दर्पण है।
बंगाली क्लब के नाट्य उत्सव में बंगाली क्लब में सोमवार को शाम सात बजे इस नाटक का मंचन होना है। 29 दिसंबर की सर्द शाम को बंगाल के पिछड़े जनपदों में शायद अव्वल नंबर दक्षिण 24 परगना के सोनारपुर के ग्रुप थियेटर सोनारपुर चेना अचेना की तरफ से।
गौरतलब है कि सोनारपुर दक्षिण 24 परगना में सुंदरवन का सिंहद्वार है।
कभी सुंदरवन वहां से गुजरकर कोलकाता में शामिल हुआ करता था और अब शायद सुंदरवन के सुंदर वन में रहने की जगह भी नहीं है।
शीर्षेंदु ऐसे कथाकार हैं भारतभर में अकेले जो शब्दों के मायने परत दर परत परस्परविरोधी मायने में भी बेहद खिलंदड़ी तरीके से उजाकर करते हैं, वहीं वे बच्चों, बूढ़ों और औरतों के बीच अपना अड्डा जमा लेते हैं।
अपने नवारुणदा के फैताड़ु बोम्बाचाक और कांगाल मालसाट जैसे उपन्यासों में भी उड़ने वाले अंत्यज हाशिये के लोगों का गुरिल्ला युद्ध है।
शीर्षेंदु उस तरह किसी गुरिल्ला युद्ध के योद्धा हरगिज नहीं हैं।
सामाजिक यथार्थ के निकष में वे माणिक और महाश्वेती की पांत में भी कभी खड़े नहीं होते। हम इस मामले में बेहद निर्मम हैं।
बचपन में कभी गुलशन नंदा हमारे लोकप्रिय पसंदीदा कथाकार थे और गुरुदत्त को शरणार्थी नजरिये से खूब पढ़ते थे। लेकिन हम उन्हें शरत और प्रेमचंद की पांत में तो रखने से रहे।
अब उत्तर आधुनिकता के मुलम्मे में भारतीय साहित्य और भाषाओं पर इन्ही गुलशन नंदा और गुरुदत्त का दौर चालू है।
इसीलिए हमने शीर्षेंदु की करीब-करीब हर रचना को दशकों से पढ़ते रहने की आदत के बावजूद उन पर लिखा कभी नहीं है।
सोनारपुर के इस ग्रुप थियेटर ने शीर्षेंदु पर लिखने के लिए और उनको मंचन के लिहाज से समझने के लिए मुझे मजबूर कर दिया है। उनका आभार कि वे समझा सके कि हमने वक्त बरबाद नहीं किया है।
बंगाल अगर हिंदुत्व की सुनामी से बच निकला तो बंगाल के ग्रुप थियेटर की उसमें सबसे बड़ी भूमिका होगी, मुझे पक्का यकीन है क्योंकि पार्टीबद्ध समाज में धार्मिक ध्रूवीकरण की सामूहिक आत्महत्या के दौर में भी बंगाल के हर जनपद में ग्रुप थियेटर साहित्य, लोक और संस्कृति की जड़ों से बेहद मजबूती से जुड़ा हुआ है और उन जड़ों से उन्हें बेदखल करना संघ परिवार के बस में नहीं है।
प्रतिबद्ध रंगकर्म ही इस भारत वर्ष को और सीमा आर-पार इस महादेश में उम्मीद की आखिरी किरण है।
आइये, हम उसकी रोशनी और धारदार बना दें।
अभी दिनेशपुर में हमने वहां के स्थानीय रंगकर्मियों को भाई सुबीर गोस्वामी, शिव सरकार, मनोज राय वगैरह को लंबा प्रवचन झाड़कर आये हैं कि उत्तराखंड के हर इंच पर युगमंच की हरकतें चाहिए और हमें हर इंच पर जहूर आलम चाहिए तो शायद सीमेंट के जंगल में खोते हुए प्रकृति, पर्यावरण, इंसानियत के साथ साथ हम अपने गांव, खेत खलिहान बचाने की कोई जुगत कर सकें।
इस ग्रुप में मेरा भाई पद्दोलोचन भी सक्रिय है।
हमने उनसे कहा था कि कोई साथ न हो तो अकेले भी रंगकर्म संभव है कि बीच बाजार में कबीर की तरह खड़े होकर चीखो, जिसको फूंकना है घर आपना, वे चलें हमारे साथ।
यही रंगकर्म है और यही रंग कर्म की ताकत है जो राजनीति की ताकत से ज्यादा बड़ी ताकत है और हम इस ताकत को जितनी जल्दी आत्मसात करें, भारत के हिंदू जायनी साम्राज्यवाद के शिकंजे से बच निकलने की उतनी प्रबल संभावना है।
हमने उन्हें मुक्तिबोध के अंधेरे को बीच बाजार में जनता की आंखों में घुसेड़ने की सलाह दी थी, जो सलाह भारत में सक्रिय और सीमा के आर पार सक्रिय हर रंगकर्मी के लिए है।
हम रंजीत वर्मा और अभिषेक श्रीवास्तव और उनके तमाम साथियों के आभारी है कि वे कविता को अभिजनों की मिल्कियत से बाहर निकाल रहे हैं और उनके साथ कवियों का लंबा चौड़ा गंभीर प्रतिबद्ध प्रतिभाशाली हुजूम है जो कविता सोलह मई को ग्रुप थिएटर का मंचीय शक्ल देने लगा है जिसे कविता को बदलाव का सबसे धारदार हथियार बनाया जा सकें।
हम कविता सोलह मई को हर भारतीय की आवाज में बदलने की गुहार लगा रहे हैं।
हम सिनेमा में भी ऐसे प्रयोग के पक्ष में हैं और हमने इस सिलसिले में लिखा भी है।
प्रतिरोध का सिनेमा आंदोलन में जसम के हमारे भाई ऐसा करिश्मा करने का करिश्मा कर दिखाने का जज्बा रखते हैं, उनका भी आभार।
मुश्किल यह है कि देश भर के बड़े नगरों के प्रेक्षागृहों से बाहर न कविता कहीं पहुंच रही है और न सिनेमा का पर्दा कहीं लग रहा है।
व्यापक जनता की भागेदारी नहीं हो तो जनांदोलन नहीं बनता। सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन तो हरगिज नहीं।
हमें इसका ख्याल करना चाहिए कि कैसे हिंदू साम्राज्यवाद को आत्मघाती जनांदोलन बनाकर सारे जनांदोलनों को खत्म करके इस देश को शत प्रतिशत हिंदुओं का देश बनाने का अश्वमेध शुरु किया है।
इसीलिए मैं बार-बार विधाओं, माध्यमों और भाषाओं के दायरों को तहस-नहस करने की बात कर रहा हूं और बार-बार, बार-बार नवारुण दा को कोट कर रहा हूं कि हमें मुकम्मल गुरिल्ला युद्ध रचना होगा तभी हम इस अनंत गैस चैंबर, इस अनंत तिलिस्म की दीवारों और किलेबंदियों को तोड़ने का ख्वाब रच सकते हैं।
सामाजिक यथार्थ परशुराम, शिवराम और सुकुमार राय की तरह शीर्षेंदु के रचना संसार में भयंकर व्यंग्य के रूप में बहुत महीन है, भाषा के शब्द दर शब्द में है, जिसे पकड़ने की दृष्टि होनी चाहिए।
दरअसल वे बगांल में सत्यजीत रे के पिता सुकुमार राय और मशहूर कथाकारों परशुराम और शिवराम चक्रवर्ती की विरासत के धारक वाहक हैं।
उनकी लोकप्रियता का राज भी यही है।
भूत प्रेत पात्रों के साथ जीते जागते पात्रों की असलियत खोलना शीर्षेंदु की खासियत है और जादुई माहौल रचने में वे विज्ञान कथा की तकनीक भी खूब आजमाते हैं। उनकी कथाओं पर बांग्ला में नाटक और फिल्में भी लोकप्रिय हैं।
O- पलाश विश्वास


