शेष नारायण सिंह
शिक्षक दिवस पर मुझे अपने केवल एक शिक्षक की याद आती है। बी ए में उन्होंने मुझे दर्शन शास्त्र पढ़ाया था। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के तिलकधारी पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में आज से ४५ साल पहले मैंने बी ए के पहले साल में नाम लिखाया था। वहाँ दर्शनशास्त्र के लेक्चरर डॉ अरुण कुमार सिंह थे। दो साल पहले ही उनकी नियुक्ति हुई थी। इंटरमीडियेट में मैंने तर्कशास्त्र की पढाई की थी लिहाजा प्रवेश के फ़ार्म में दर्शनशास्त्र भी एक विषय के रूप में भर दिया। तिलकधारी कालेज उन दिनों उस इलाके का सबसे अच्छा कालेज माना जाता था। आसपास के कई जिलों के बच्चे वहाँ पढ़ने आते थे। हम लोगों का जलवा थोड़ा ज्यादा था क्योंकि हमने तिलकधारी सिंह इंटरमीडियेट कालेज से बारहवीं पास किया था। तब तक शिक्षक के बारे में हमारी राय बहुत अच्छी नहीं होती थी। हाँ, तिलकधारी सिंह इंटरमीडियेट कालेज के हमारे प्रिंसिपल बाबू प्रेम बहादुर सिंह एक भले इंसान थे। खेलकूद, वादविवाद और नाटक का बहुत अच्छा माहौल बना रखा था।उनकी प्रेरणा से ही इंटरमीडियेट कालेज सेक्शन के छात्रों और शिक्षकों ने मिलकर जयशंकर प्रसाद का नाटक स्कंदगुप्त खेला था जो बाद के कई वर्षों तक चर्चा में बना रहा था। वे ही शिक्षकों को आदेश देते थे कि बच्चों को वादविवाद प्रतियोगिताओं में ले जाओ। जिसके चलते मुझे बहुत दूर दूर तक के कालेजों में डिबेट में शामिल होने का मौक़ा मिला था। लेकिन वे प्रिंसिपल थे, शिक्षक नहीं। बहरहाल जब हम मुकामी छात्र डिग्री कालेज में जाते थे तो थोड़ा ठसका रहता था। उसी ठसके के चक्कर में मैंने दर्शनशास्त्र के शिक्षक से सवाल पूछ दिया। मैंने पूछा था कि दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की ज़रूरत क्या है। सवाल तफरीहन पूछा गया था लेकिन डॉ अरुण कुमार सिंह ने जिस गंभीरता से जवाब दिया, उस से मैं बहुत ही असहज हो गया। वहीं पर पहली बार सुना कि हर विषय अंत में जाकर दर्शनशास्त्र हो जाता है। सारे धर्म, सारा विज्ञान, सारी कायनात एक फिलासफी की बुनियाद पर बनी है। बहुत देर तक बात करते रहे। उन्होंने बताया कि फिजिक्स और गणित भी अंत में दर्शनशास्त्र हो जाते हैं। बहरहाल जब क्लास खत्म हुई तो साथियों ने मेरी खासी धुलाई की कि बेवकूफ ने ऐसा सवाल पूछ दिया कि उसका जवाब ही नहीं खत्म होने वाला है। लेकिन जब अगले दिन की क्लास में भी उन्होंने अपने पिछले लेक्चर से ही शुरू किया और दर्शनशास्त्र की महत्ता पर चर्चा करते रहे तो हमें लग गया कि शिक्षकों की किसी नई प्रजाति से आमना सामना हो गया है।
स्कालरशिप की जो शुरुआत 1969 की जुलाई में उनकी इस क्लास में हुई थी वह आज तक कायम है और आज भी पढाई लिखाई की किसी बात को समझने के लिए उन्हीं डॉ. अरुण कुमार सिंह की याद करता हूँ। कालेज की नौकरी करते हुए उन्होंने बहुत सम्मानित जीवन बिताया, कालेज के प्रिंसिपल बने और अब वहीं जौनपुर में रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं। मैंने जो कुछ भी पढ़ा है या पढ़ता हूँ, उनको ज़रूर बताता हूँ। जब हम बी ए में भर्ती हुए थे तो जितना भी प्रेमचंद मैंने पढ़ा है, एक बार पढ़ चुका था। मैंने ताराशंकर बंद्योपाध्याय का भारतीय ज्ञानपीठ से विभूषित उपन्यास गणदेवता पढ़ रखा था। डॉ. धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, वृंदावनलाल वर्मा की मृगनयनी,जयशंकर प्रसाद,निराला, आदि हिंदी के बहुत सारे साहित्य में चंचुप्रवेश था। कबीर, रहीम, मीरा, रसखान आदि को भी थोड़ा बहुत पढ़ रखा था। किसी भी सामान्य शिक्षक को घुमा देने भर की शेखी अपने पास थी लेकिन अब हमें साफ़ अंदाज़ लग गया था कि अरुण कुमार सिंह जैसे जिज्ञासु से, सीखने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। धीरे-धीरे मेरी क्लास के कुछ बच्चे उनके साथ किताबों पर चर्चा करने लगे थे। इस बीच कोर्स में बौद्ध दर्शन का अध्ययन शुरू हो चुका था। उसका कार्य कारण सिद्धांत बिलकुल वैज्ञानिक तरीके से हम समझ रहे थे। कोर्स के अलावा किसी भी विषय पर उनसे बात की जा सकती थी और अगर किसी विषय पर उनकी जानकारी ऐसी होती थी जिसपर उनको भरोसा न हो तो बेलौस कहते थे कि भाई कल बतायेंगे, पढ़कर आयेंगे तब बात होगी। अंग्रेज़ी, समाजशास्त्र, इतिहास, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान सभी विषयों के वे विद्यार्थी थे और जो भी पढ़ते थे, उसकी चर्चा की परम्परा मेरे इसी शिक्षक ने शुरू कर दी। हम नियमित रूप से उनके स्टूडेंट केवल दो साल रहे लेकिन उनके शिक्षकपन के इतने मुरीद हो गए कि आज भी मैं उनको शिक्षक मानता हूँ। उन्होंने मुझे कई बार बताया है कि कुछ विषयों में मेरी जानकारी उनसे ज़्यादा है लेकिन आज तक मैंने अपनी हर नई जानकारी को तभी पब्लिक डोमेन में डाला है जब अपने गुरु से उसकी तस्दीक करने के बाद संतुष्ट हो गया हूँ।
पिछले चालीस वर्षों में मैंने बहुत किताबें पढ़ी हैं, बहुत सारी विचारधाराओं पर चर्चा की है। लेकिन अपने इकलौते शिक्षक के हवाले के बिना मैंने किसी भी विचार को फाइनल नहीं किया, उस पर बहस नहीं की। उनकी कृपा से ही मैंने सार्त्र को पढ़ने की कोशिश की, अस्तित्ववाद के दर्शन को समझने की कोशिश की, अरविंद को पढ़ा, बर्गसां को पढ़ा, सारे दार्शानिक उनकी वजह से ही पढ़ा। बर्ट्रेंड रसेल की शिक्षा, विवाह और नैतिकता को झकझोर देने वाली मान्यताएं मैंने बी ए के छात्र के रूप में पढ़ लिया था। Will Durant की किताब स्टोरी आफ फिलासफी मैंने बी ए पास करने के बाद उनकी निजी लाइब्रेरी से लेकर पढ़ा था। दर्शनशास्त्र को इतने बेहतरीन गद्य में मैंने और कहीं नहीं पढ़ा है। बाद में उनको सीरीज़ स्टोरी आफ सिविलाइजेशन को पूरी के पूरी खरीद लिया था। चंद्रधर शर्मा की पाश्चात्य दर्शन की हिंदी किताब को भी इसी श्रेणी में रखना चाहता हूँ। उन्होंने ही सिखाया था कि अच्छे शिक्षक का मिशन अपने छात्रों में सही सवाल पूछने की कला को सिखाना होना चाहिए। अगर सवाल सही है तो जवाब तो कहीं भी मिल जाएगा। स्पिरिट आफ इन्क्वायरी को जगाना अच्छे शिक्षक की सबसे महत्वपूर्ण खासियत होनी चाहिए। किसी भी मान्यता को चुनौती देकर,अगर कहीं गलती हो रही है तो अपनी गलती स्वीकार करने की तमीज डॉ. अरुण कुमार सिंह ने ही मुझको सिखाया था। उस वक़्त जो सीखा था, वह आदत बन गयी, जो आज तक बनी हुई है। उसका लाभ यह है कि कभी खिसियाना नहीं पड़ता।
पाश्चात्य दर्शन के पर्चे में देकार्त के बारे में जो जानकारी उन्होने दी, वह उस पर्चे को पढ़ने वाले सभी छात्रों को हर कालेज में मिलती होगी लेकिन अपनी बात कुछ अलाग थी। हमने देकार्त के तर्क “काजिटो अर्गो सम“ को बौद्धिक इन्क्वायारी के एक हथियार के रूप में अपनाने की प्रेरणा पाई और आजतक उसका प्रयोग करके ज्ञान के सूत्र तक पंहुंचने की कोशिश करते हैं। उनकी कृपा से ही मैंने किताबें खरीदने की आदत डाली। मेरे घर में कई बार बुनियादी ज़रूरतों की भी किल्लत रहती थी लेकिन पढ़ने के प्रति जो उत्सुकता मन में है उसके चलते किताबें खरीदने से बाज़ नहीं आते थे।
मैंने अपने जीवन के साथ बहुत सारे प्रयोग किये हैं लेकिन इस गुरु का ही जलवा है कि आज पूरे विश्व में कोई एक इंसान नहीं मिलेगा जो कह सके कि शेष नारायण सिंह नाम के आदमी ने उसके साथ अन्याय किया है या धोखा दिया है। मेरा गुरु ऐसा है कि आज भी मुझे कुछ न कुछ सिखाता है। जब मैं कुछ लिखता हूँ तो उसकी समीक्षा करता है, टेलीविज़न पर अगर कोई बात ऐसी कह दी जो मूर्खतापूर्ण है तो आज भी फोन आ जाता है और मैं भी अगले अवसर पर उसको सुधार लेता हूँ। आज मैं भी पूरे देश के विद्यार्थियों के साथ अपने शिक्षक को बारम्बार प्रणाम करता हूँ।