प्रति,
राष्ट्रीय अध्यक्ष/महासचिव
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विषय- सोलहवीं लोकसभा चुनाव हेतु रिहाई मंच का राजनीतिक दलों को मांग पत्र व सुझाव।
प्रिय अध्यक्ष जी/महासचिव जी,
हमारे देश में कई धर्मों, जातियों, समुदायों के लोग रहते आ रहे हैं। मुल्क तभी नहीं बंटता है जब उसके दो तीन नाम हो जाएं। हम पिछले साठ सालों से देख रहे हैं कि हमारे बीच भाई चारे में कमी आई है। एक दूसरे के दुश्मन के रूप में धर्म और जातियों के लोग समझे जाने लगे हैं। नीचा दिखाने और दबाकर रखने की विचारधारा को धर्म और जाति के बहाने बढ़ाया जा रहा है। दूसरी भाषा में, इस बात को इस तरह कह सकते हैं कि हमने विभिन्न समुदायों एवं वर्गो की सामाजिक एंव राजनीतिक समस्याओं का राष्ट्रीय अखण्डता, लोकतंत्र के भविष्य और सामाजिक समरसता पर पड़ने वाले प्रभावों का गहन अध्ययन किया।
हमने पाया कि देश के कई भागों में होने वाले साम्प्रदायिक दंगों में प्रशासन की भूमिका और सरकारों की संवेदनहीनता के कारण निराशा और आक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा है। साम्प्रदायिक तत्वों के हौसले बढ़े हैं। साम्प्रदायिक हिंसा में लगातार बढ़ोत्तरी इसके प्रमाण हैं। आतंकवाद, देश के खिलाफ युद्व, गैर कानूनी गतिविधियों में संलिप्तता आदि के नाम पर बेगुनाह नौजवानों को जेल में डाला गया है। खासतौर से, वंचित वर्गों के नौजवानों को निशाना बनाया गया है। मुसलमान युवकों का तो कई वर्षों से मनोबल तोड़ने की लगातार कोशिशें की जा रही हैं। कई बड़ी आतंकवादी घटनाओं की पुनर्विवेचना में यह बात सिद्ध भी हो चुकी है कि मुसलमान युवकों को जान बूझकर फंसाया गया है।
सामाजिक ताने-बाने और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक बड़ा खतरा दिख रहा है, जिससे नीतिगत स्तर पर निपटा जाना आवश्यक हो गया है। देश की संप्रभुता व स्वायत्ता को चुनौती बाहरी ताकतों से नही, बल्कि अंदरूनी ताकतों से ज्यादा दिखती है। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अब जरूरी है कि खुफिया एजेंसियों की जनता के सर्वोच्च सदन, संसद के प्रति जवाबदेही तय की जाए।

हम देश में बन रहे हालात में सुधार के लिए अपनी भूमिका इस रूप में देख रहे है कि हम राजनीतिक पार्टियों के सामने एक सुझाव और सहमति पत्र पेश करें। देश के बहुसंख्यक वंचित तबके से जुड़ी समस्याओं का निदान बहुत हद तक संसद द्वारा कानूनी प्रावधानों और संविधान संशोधन के जरिए ही संभव है। जिसकी तरफ कोई सार्थक पहल करने में हमारी संसद विफल रही है। रिहाई मंच द्वारा ये मांग पत्र के रूप में आपको भेजा जा रहा है। आपसे आग्रह है कि आगामी लोकसभा चुनावों में इन मांगों को आप अपने घोषणा पत्र में शामिल करें ताकि यह स्पष्ट हो कि आप केवल चुनाव कराने को ही लोकतंत्र नहीं समझते हैं, बल्कि जिंदा कौम के लिए लोकतांत्रिक वसूलों व सिद्धातों के प्रति भी निष्ठा रखते हैं।
1- आतंकवाद की तमाम घटनाओं का सच जानने के लिए जांच की जानी चाहिए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ... ?
आतंकवाद के नाम पर देश में घटित घटनाओं में से अधिकतर घटनाएं बेहद संदेहास्पद लगती रही हैं। इन घटनाओं के लिए जिस तरह के संगठनों व लोगों की भूमिका बतायी गई उसे लेकर भी संदेह होता रहा है। मसलन हाल ही में दिल्ली पुलिस ने 14 अप्रैल 2006 को जामा मस्जिद के पास हुए दो विस्फोटों को आतंकवादी कार्रवाई से जोड़ा था। इसी तरह 2006 में मैहरोली में सीरियल विस्फोट की घटनाओं को भी आतंकवादी कार्रवाई के रूप में मीडिया में प्रचार कराया गया। लेकिन उन दोनों ही मामलों में दिल्ली पुलिस ने यह कहकर मामले की जांच को बंद कर दिया कि उन घटनाओं के दोषियों का पता नहीं चल पाया है।
इस तरह की बहुत सारी घटनाएं देश में हुई हैं जिन्हें आतंकवाद की कार्रवाई बताया गया और उसी के साथ उन घटनाओं के लिए गैर हिन्दू नामों व सीमा पार के संगठनों के नाम को प्रचारित किया गया। मसलन रामपुर सीआरपीएफ कैम्प पर 31 दिसम्बर 2007 को हुए कथित आतंकी हमला मामले में कई स्वतंत्र जांच संगठनों ने अपनी जांच में पाया कि यह कोई आतंकी घटना थी ही नहीं। सीआरपीएफ के जवानों ने नए साल के जश्न में शराब के नशे में आपस में ही गोलीबारी कर ली थी। जिसे सरकार ने आतंकी घटना के बतौर प्रचारित करके और बेगुनाहों को इसके आरोप में गिरफ्तार कर के सच्चाई को छुपाने की कोशिश की।
जिसे हम इस तथ्य से भी समझ सकते हैं कि जब कानपुर में अगस्त 2008 में बजरंग दल के कार्यकर्ता बम बनाते समय हुये विस्फोट में मारे गए तब तत्कालीन गृहराज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने मुख्यमंत्री मायावती से कहा था कि वह चाहें तो केंद्र सरकार इसकी जांच सीबीआई से करा सकती है तब मायावती ने कहा था कि पहले केंद्र सरकार नवम्बर 2007 में हुए कचहरी धमाकों और रामपुर में हुए सीआरपीएफ कैम्प पर हमले की जांच करा ले।
इसी तरह दिसम्बर 2007 में तत्कालीन एडीजी बृजलाल ने नवम्बर 2007 यूपी के कचहरियों में हुए विस्फोटों और हैदराबाद के मक्का मस्जिद में हुए विस्फोटों के ‘मॉडस ऑपरेंडी’ के एकरूपता की बात कही थी, जिसमें बाद में मक्का मस्जिद में हिंदुत्ववादी समूहों के नाम आने के बाद भी इन बड़ी आतंकी घटनाओं की जांच से सरकारें लगातार भागती रही हैं। इसी तरह अप्रैल 2010 में चिन्नास्वामी स्टेडियम, बैंगलोर में हुये कथित आतंकी हमले पर कर्नाटक के तत्कालीन गृहमंत्री वीएस आचार्या ने बैंगलोर में प्रेस कांफ्रेंस में और कांग्रेस सांसद जयंती नटराजन ने संसद में कहा था कि यह आतंकी हमला नहीं था बल्कि आईपीएल मैचों में सट्टेबाजी करने वाले गिरोह ने इसे कराया था ताकि वहां होने वाले मैच को मुम्बई स्थानांतरित कराया जा सके।
इस तरह की घटनाओं व उसके प्रचार से जिन्हें राजनीतिक और प्रशासनिक लाभ उठाना रहा है वे इसमें कामयाब होते रहे हैं। जैसे अहमदाबाद और बैंगलोर में हुए आतंकी विस्फोटों पर वरिष्ठ भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने जुलाई 2008 में दिए अपने बयान में आरोप लगाया था कि ये विस्फोट कांग्र्रेस सरकार ने संसद में वोट के बदले नोट पर हो रही अपनी किरकिरी से जनता का ध्यान हटाने के लिए करवाया है। तो वहीं 23 दिसम्बर 2007 को तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को मारने की साजिश के तहत दो कश्मीरी युवकों का लखनऊ, चिनहट में कथित एंकाउंटर के बाद मायावती ने आरोप लगाया कि ‘कुछ कांग्रेसी पड़े हैं मेरी जान के पीछे’। ठीक इसी तरह मोदी की पटना रैली अक्टूबर 2013 में हुये कथित धमाकों के बाद कई राजनीतिक दलों ने खुलेआम मीडिया में टिप्पणी की थी कि ये विस्फोट संघ परिवार और भाजपा ने करवाया है।
आतंकवादी घटनाओं और उस पर होने वाली इस तरह की राजनीति से समाज में विभिन्न मजहबों को मानने वालों के बीच दूरियां ही पैदा नहीं की गई बल्कि एक दूसरे के खिलाफ दहशतजदा माहौल पैदा किया गया। इससे हमारे समाज की गंगा युमनी संस्कृति को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई आने वाले सैकड़ों वर्षों में भी शायद हम नहीं कर सकते हैं। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के नाम पर देश में खंडित व विभाजन करने वाला दिमाग तैयार करने की साजिश लगातार की जाती रही है। इसीलिए हम आतंकवाद के नाम पर होने वाली इन घटनाओं के पूरे सच को सामने लाना जरूरी समझते हैं ताकि इसके पीछे जो मंशा और राजनीतिक इरादे काम करते रहे हैं, उन्हें समझा जा सके और उसके खिलाफ लोगों को लामबंद किया जा सके।
2- आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को विवेचना के दौरान जमानत पर रिहा किया जाए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ... ?
यह तथ्य भी सामने आ चुका है कि आतंकवाद की घटनाओं की साजिश कोई रचता है और पकड़ा कोई और जाता है। देश की विभिन्न अदालतों ने अपने कई फैसलों में उन लोगों को रिहा करने का आदेश दिया है जिन्हें बेवजह जेलों में डाला गया था। इसका मतलब यह भी है कि उन घटनाओं में गुनाहगारों को पकड़ने की कोशिश भी नहीं की गई। हम तो ये मानते हैं कि वैसी घटनाओं में गुनाहगारों को बचाने के लिए ही बेगुनाहों को पकड़ा गया ताकि लोगों का घ्यान असल मुजरिमों की तरफ से हट जाए।
जमानत देने का मतलब आरोप से मुक्त कर देना नहीं होता है। अब जबकि बहुत सारी घटनाओं में ये बात सामने आ चुकी है कि बड़े पैमाने पर बेगुनाहों को फंसाया गया है तब जो लोग जेलों में वर्षो से बंद है उन्हें जमानत पर रिहा करना चाहिए। ताकि वे अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर अपनी जिंदगी ठीक तरीके से गुजार सकें। जमानत नहीं दिया जाना संवैधानिक व्यवस्थाओं और उसकी भावना के खिलाफ है। नागरिक अधिकारों का हनन हैं। जमानत न्यायिक अधिकार है और संविधान और लोकतंत्र में जेल भेजने के फैसले को अपवादमूलक श्रेणी में रखा जाता है।
3- बेगुनाह व्यक्तियों को क्षतिपूर्ति अदा की जाए और उनके सम्मान की बहाली के लिए नीति तैयार की जाए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ...?
बेगुनाहों की रिहाई के बाद उसकी क्षतिपूर्ति किसी भी तरह नहीं की जा सकती है। आम नागरिक अधिकार का हनन जब सरकार, उसकी मशीनरी के पूर्वाग्रहों व लालच के दबाव में हुआ हो तो वह एक शर्मनाक बात समझी जाती है। हमारे मुल्क में बेगुनाहों के प्रति शर्म और माफी का भाव नहीं है। चूंकि बेगुनाह गरीब और वंचित वर्ग व उसकी राजनीति करने वाले विचारों व संगठनों से जुड़ा होता है, इसीलिए उसके सम्मान और गरिमा को बेहद हल्के में लिया जाता है। उनके भविष्य के सवाल को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन जिस तरह से राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ है वैसी स्थिति में यह नाकाबिले बर्दाश्त होता जा रहा है।
सरकार और उसकी मशीनरी को चाहिए कि बेगुनाही की स्थिति में वह न केवल माफी मांगे बल्कि उन तमाम परिस्थितियों को दूर करने की कोशिश करे जिन परिस्थितियों के कारण बेगुनाह को जेल में डाला गया और उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गई। जैसा कि भारतीय मूल के डॉ. हनीफ की आष्टेªलिया में गिरफ्तारी के मामले में उनके बेगुनाह पाए जाने पर वहां की सरकार ने किया था। एक नागरिक जीवन जीने की स्थितियां बनाने के लिए हम इस मुद्दे पर आपकी सहमति चाहते हैं।
4- जिन व्यक्तियों को निर्दोष पाया जाए उनके विरुद्ध सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के साथ आपराधिक भूमिका निभाने वाले पुलिस कर्मियों तथा खुफिया एजेंसियों के कर्मिर्यों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाई हेतु कानून बनाया जाए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ... ?
इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामले में तो खुफिया एजेसियों के अधिकारियों की मिलीभगत सामने आ चुकी है। ऐसी कई घटनाएं उत्तर प्रदेश में भी चर्चा में रही हैं। आखिर कोई पुलिस वाला, खुफिया विभागों का कोई अधिकारी बेगुनाहों को फंसाने व मुठभेड़ के नाम पर हत्या करने के षडयंत्र में क्यों शामिल होता है। क्या उसे पैसे का लालच होता है, क्या उसे प्रमोशन का लालच होता है, क्या उसे मेडल का लालच होता है, क्या वह नीची कही जाने वाली जातियों से घृणा करता है, क्या उसके दिमाग में ’मलेच्छ’ से घृणा करने वाली भाषा चलती रहती है, क्या उसका संबंध किसी ऐसे राजनीतिक संगठन व विचार से होता है जिसके वैचारिक प्रभाव में वह इस तरह की संविधान व मानव विरोधी कार्रवाई करता है?
इस तरह के तमाम सवाल हमारे जेहन में उठते हैं। कोई न कोई तो वजह होती है। तो वह क्या वजहें है, इसकी पड़ताल के साथ ये भी जरूरी है कि वैसे अधिकारियों के खिलाफ तत्काल और सख्त कार्रवाई की जाए। उनकी काली कमाई को जब्त किया जाए, लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखा जाए कि उनके परिवार के सदस्यों के नागरिक व मानव अधिकारों का हनन न हो। क्योंकि हम चाहते है कि मानव अधिकार के सम्मान की भावना वाला समाज व सरकारी मशीनरी तैयार हो।
5. आतंकवाद से संबन्धित मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों का गठन कर जेल परिसर से बाहर दिन प्रतिदिन सुनवाई की व्यवस्था की जाए तथा प्रत्येक स्थिति में मुकदमें की सुनवाई एक साल के अन्दर पूरी की जाए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ... ?
आतंकवाद को हम अपराध की सबसे उपर की श्रेणी में रखते हैं। आतंकवाद को हम सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। जाहिर सी बात है कि हम इस तरह के अपराध के लिए उस न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं जो कि छोटे मोटे अपराधों के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है। यदि आतंकवाद को हम राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हित साधने के लिए एक आड़ की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं, तो हमें इस तरह के अपराध के रोकथाम के लिए तत्काल ठोस उपाय करने होगें। जिन घटनाओं को आतंकवाद की श्रेणी में सरकार और उसकी मशीनरी रखती है, उससे जुड़ी न्यायिक प्रक्रिया को एक निश्चित अवधि के अंदर पूरा किया जाना चाहिए।
उपरोक्त सुझाव पर आपकी सहमति इसीलिए जरूरी है ताकि हम आतंकवाद की समस्या और उससे निपटने की अपनी गहरी चिंता को स्पष्ट कर सकें। साथ ही हम यह भी स्पष्ट कर सकें कि आतंकवाद की आड़ में मानवाधिकार व नागरिक अधिकारों पर हमले की छूट नहीं दी जा सकती है।
6- आतंकवाद के नाम पर कायम मुकदमों में पारित फैसलों की समीक्षा के लिए न्यायिक आयोग बनाया जाए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ... ?
आतंकवाद की घटनाओं के नाम से चर्चित घटनाओं को लेकर न्यायिक फैसले आते रहते हैं। इन फैसलों के बारे में ये दावा किया जाता है कि ये जांच एजेंसियों की गहन जांच के बाद न्यायिक फैसले आए हैं। क्या उन न्यायिक फैसलों में एकरूपता है, क्या वे एक न्यायिक कसौटी पर खरे उतरते हैं, किन परिस्थितियों में कौन से न्यायिक फैसले आए हैं ? इसका बाकायदा एक अध्ययन किया जाना चाहिए। यह हमारी संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत करने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए जरूरी है।
कई न्यायिक फैसलों को लेकर लोगों के भीतर संदेह की गुंजाइश बनी रहती है। यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि वह फैसला किसी न्यायाधीश का फैसला है या फिर न्यायिक संस्था का फैसला है। जब न्यायाधीश संस्था की भावनाओं व उसकी कसौटी से दूर जाकर फैसला करता है तो वह किसी न्यायाधीश का अपना फैसला होता है और उस पर संदेह और अविश्वास की स्थिति स्वाभाविक है। हम चाहते हैं कि एक न्यायिक आयोग का गठन कर उन तमाम फैसलों की समीक्षा की जाए, ताकि भविष्य के लिए हम एक भरोसेमंद न्यायिक रास्ता तैयार कर सकें।
7- देश में आतंकवाद से संबन्धित अनेक मामलों में खुफिया एजेसियों की भूमिका संदिग्ध पाई गई है तथा यह भी पाया गया है कि उनकी कार्य प्रणाली और स्वायत्ता हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए, संसद की संप्रभुता के लिए और आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बन गई है। आवश्यक हो गया है कि खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए तथा इंडियन मुजाहिदीन, जिसे समाज का बड़ा हिस्सा आईबी द्वारा निर्मित/संचालित कागजी संगठन मानता है के आईबी के साथ संबन्धों पर श्वेत पत्र संसद में लाया जाए।
हम यह सुझाव क्यों दे रहे हैं और सहमति की अपेक्षा कर रहे हैं ... ?
खुफिया एजेंसियां देश के संभवतः एक मात्र ऐसे संगठन हैं जो कि किसी के प्रति भी सीधे तौर पर जवाबदेह नहीं हैं। यहां तक कि संसद के प्रति भी नहीं, जो मतदाताओं के प्रति जवाबदेह है। देश की खुफिया एजेंसियों का सीधे तौर पर जवाबदेह नहीं होने के कारण उसके भीतर की विकृतियों को शह मिलता है।
आतंकवाद और आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार किए गए बेगुनाहों के कई मामलों में हम उसकी भूमिका को संदिग्ध रूप में देख रहे ह