रेंगती इमर्जेंसी के अंदेशे
रेंगती इमर्जेंसी के अंदेशे
सावधान! इस बार शायद इमर्जेंसी जैसी किसी नाटकीय घोषणा की, मीडिया पर सेंसरशिप लगाने आदि की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। इमर्जेंसी इस बार रेंगकर आ रही है।
इमर्जेंसी के चालीस साल पूरे होने की पूर्व-संध्या में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने, इमर्जेसी की वापसी का खतरा आज भी मौजूद होने की जो चेतावनी दी है, एक ऐसी सच्चाई बनती नजर आती है, जो अपने सच होने में खुद मदद कर रही होगी। पुरानी कहावत है कि जो इतिहास को भूल जाते हैं, उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। आडवाणी की चेतावनी के सच-झूठ से अलग, कम से कम इतना तो सभी मानेंगे कि इस चेतावनी के बाद से सत्ताधारी भाजपा ही नहीं, आम तौर पर मौजूदा सरकार के तमाम राजनीतिक तथा विचारधारात्मक समर्थक, इमर्जेंसी की चर्चा से ही कतरा रहे हैं। उन्हें इसका बखूबी एहसास है कि अब इमर्जेंसी के संदर्भ में कांग्रेस पर या किसी पर भी पत्थर फैंकना, उनके लिए उल्टा पड़ऩे की ही पूरी-पूरी संभावनाएं हैं। वास्तव में उनका बस चले तो वे इमर्जेंसी याद ही न आने दें। न होगा इमर्जेंसी का जिक्र, न उठेगी मौजूदा शासकों की ओर उंगली!
तात्पर्य यह कि आज के सत्ताधारी हलकों से कम से कम आडवाणी की चेतावनी के बाद इसकी कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि वे गंभीरता से इमर्जेंसी की याद दिलाकर, जनता को ऐसी किसी भी संभावना के खिलाफ जागरूक करने में मदद करेंगे। और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस तो इमर्जेंसी लगाने के अपने पाप को याद भी क्यों करना चाहेगी? ऐसे में इमर्जेंसी जैसे खतरे के खिलाफ आज जनता को जागरूक करने में किसी सक्रिय भूमिका की उम्मीद मुख्यधारा से बाहर की राजनीतिक-सामाजिक ताकतों, मीडिया और बुद्धिजीवियों से ही की जा सकती है। जाहिर है कि यह स्थिति, जैसा आडवाणी जी ने अपने बयान में कहा था, यह भरोसा करने का कारण नहीं देती है कि इमर्जेंसी जैसी चीज अब दोहरायी नहीं जा सकती है!
खैर! आडवाणी की टिप्पणी पर लौटें। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि इमर्जेंसी के सिलसिले में आडवाणी की टिप्पणियां, सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत असुविधाजनक साबित हुई हैं। विपक्ष तो विपक्ष, सत्ताधारी एनडीए में शामिल शिव सेना तक ने इसमें मौजूदा सरकार और खासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध इशारे खोजने की कोशिश की है। उसके दैनिक सामना ने तो बाकायदा संपादकीय लिखकर पूछा है कि आडवाणी का इशारा किस की ओर है? दूसरी ओर केंद्र सरकार में मंत्री, साध्वी निरंजन ज्योति ने, जो पहले भी अपने बड़बोलेपन से केंद्र सरकार को शर्मिंदा कर चुकी हैं, बाकायदा सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया कि आडवाणी का इमर्जेंसी संबंधी बयान उनके अपने मन की बात नहीं है। जरूर वह किसी और की भाषा बो ल रहे हैं! यहां तक कि बाद में आडवाणी को खुद यह सफाई देनी पड़ी कि इमर्जेंसी को लेकर उनकी चिंता का एक कारण, उसे लेकर कांग्रेस पार्टी का 'रात गयी, बात गयी’ का रुख भी है। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद आडवाणी की टिप्पणी ........जारी आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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से कम से कम इतना तो स्पष्ट ही था कि वह मौजूदा भाजपा शासन को, इमर्जेसी दुहराए जाने के खतरे के खिलाफ कम से कम किसी तरह की गारंटी हर्गिज नहीं मानते हैं। उल्टे बाद में अपनी बात की सफाई देते-देते आडवाणी ने 'एक नेता केंद्रितता’ से अपनी दुश्चिंताओं को जोड़ऩे के जरिए, शक की सुई एक बार फिर मौजूदा सरकार के नेता की ओर मोड़ दी है।
फिर भी, आडवाणी की इमर्जेंसी संबंधी टिप्पणी से उठने वाले सवाल कहीं गहरे हैं। आडवाणी, सिर्फ एक वरिष्ठ तथा अनुभवी राजनीतिक नेता ही नहीं हैं, वह खुद इमर्जेंसी के भुक्तभोगी भी रहे हैं। अब जबकि उन्हें चाहे-अनचाहे सत्ताधारी पार्टी के नेतृत्व की रोजमर्रा की जिम्मेदारियों तथा तकाजों से मुक्ति मिल गयी है, इमर्जेंसी के बाद गुजरे चालीस साल के काल खंड में आए बदलावों का उनका आकलन, कम से कम गंभीरता से विचार किए जाने की मांग जरूर करता है। जाहिर है कि उनका यह आकलन इमर्जेंसी में जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था समेत, तमाम नागरिक अधिकारों व स्वाधीनताओं पर अभूतपूर्व हमले और उसके खिलाफ उन्मुक्त हुई प्रतिक्रिया को बखूबी हिसाब में लेता है। वास्तव में इमर्जेंसी के खिलाफ जनता की जबर्दस्त प्रतिक्रिया में ही, जिसकी अभिव्यक्ति इमर्जेसी में ढील देने के बाद कराए गए 1977 के चुनाव में, इमर्जेसी लगाने वाली कांग्रेसी सरकार और उसकी नेता इंदिरा गांधी की भी अकल्पनीय हार में हुई थी, उन्हें इमर्जेसी के दुहराए जाने के खिलाफ सबसे बड़ा आश्वासन भी दिखाई देता है।
फिर भी, अन्य सहारों के अभाव में वह बहुत आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं। आडवाणी की नजर में इस सिलसिले में दो कमजोरियां खासतौर पर महत्वपूर्ण हैं। पहली कमजोरी है, राजनीतिक नेतृत्व में जनतंत्र के प्रति गहरी प्रतिबद्धता का अभाव। यह महत्वपूर्ण है कि आडवाणी ने इसे स्पष्ट रूप से मौजूदा नेतृत्व की परिपक्वता-अपरिपक्वता के सवाल से ऊपर माना है। और दूसरी, इसी से निकली कमजोरी है, ऐसे व्यवस्थाएं खड़ी न कर पाना, जो इमर्जेंसी जैसी किसी भी स्थिति के लिए रास्ता बंद करती हों। आडवाणी इमर्जेसी के बाद की गयी व्यवस्थाओं को साफ तौर पर अपर्याप्त मानते हैं। यह भी गौरतलब है कि इस सिलसिले में मीडिया की बढ़ती भूमिका को रेखांकित करते हुए ........जारी आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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भी आडवाणी, इसे नाकाफी बचाव मानते हैं। न्यायपालिका में जरूर उन्हें आशा दिखाई देती है। लेकिन, हालांकि उन्होंने ऐसा कहा नहीं है, उच्च न्यायपालिका के लिए नियुक्तियों की प्रक्रिया में लाए जा रहे बदलाव को देखते हुए, यह उम्मीद भी कमजोर पड़ जाती है।
फिर भी इमर्जेंसी के खतरे की आडवाणी की इस चेतावनी की चुप्पियां भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। मिसाल के तौर पर इसी पर उनकी चुप्पी कि इमर्जेंसी के बाद के गुजरे चालीस साल में मीडिया की असाधारण रूप से बढ़ी हुई ताकत पर भी, इमर्जेसी जैसी किसी भी स्थिति से बचाने के लिए पूरा भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता है? पिछले आम चुनाव में मीडिया का जैसा इकतरफा झुकाव देखने को मिला था, वह आडवाणी जैसे नेता की नजर से छुपा तो नहीं रहा होगा, जबकि इस सिलसिले में कई अध्ययन भी सामने आ चुके हैं। यह इकतरफा झुकाव, एक और बड़ी प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर सामने आया था। इस प्रक्रिया को संक्षेप में चुनाव के अमरीकी मॉडल रोपा जाना कहा जा सकता है, जिसमें चुनाव को ज्यादा से ज्यादा दो उम्मीदवारों के बीच 'छवियों’ के द्वंद्व में बदल दिया जाता है। इन छवियों को गढ़ऩे तथा बेचने में मीडिया तथा उससे जुड़े छवि-निर्माण, प्रचार उद्यम की सबसे केंद्रीय भूमिका होती है। यही वह जगह है जहां सिर्फ और सिर्फ 'एक नेता केंद्रितता’ पनप सकती है, जिससे आडवाणी की आशंकाएं निराधार नहीं हैं। ऐसे छवि युद्ध के विजेता को चुनाव के बाद अपनी शक्तियों पर कोई भी जनतांत्रिक अंकुश बाहरी नजर आएगा और इसलिए मुश्किल से ही मंजूर होगा। पिछले एक साल में कम से कम संसदीय व्यवस्था में कतरब्यौंत खुलकर सामने आयी है। ऐसा ही किस्सा दूसरी तमाम संस्थाओं का है, जिनमें निस्संकोच एक खास सोच के लोगों को ........जारी आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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भरा जा रहा है और जनतांत्रिक संरचनाओं को कमजोर किया जा रहा है। लेकिन मीडिया, जो एक तेजी से बढ़ते कारोबार के नाते इस समूची प्रक्रिया का एक तरह से वाहन ही बना हुआ है, इस खतरे को कैसे देख और दिखा सकता है?
जाहिर है कि मीडिया को अगर इस प्रक्रिया में जोता जा सका है तो इसीलिए कि इमर्जेंसी के बाद गुजरे चालीस साल में मीडिया की पहुंच तथा प्रभाव का जितना ज्यादा विस्तार हुआ है, उतना ही ज्यादा उसके स्वामित्व या नियंत्रण का केंद्रीयकरण भी हुआ है।
यह सब कुल मिलाकर, तंत्र को जन दूर जाने ही नहीं बल्कि उसके ज्यादा से ज्यादा खिलाफ जाने का भी मौका देता है।
सावधान! इस बार शायद इमर्जेंसी जैसी किसी नाटकीय घोषणा की, मीडिया पर सेंसरशिप लगाने आदि की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। इमर्जेंसी इस बार रेंगकर आ रही है।
0 राजेंद्र शर्मा


