रेल मंत्रालय लालू प्रसाद और ममता बनर्जी के सौजन्य से संकट .....
रेल मंत्रालय लालू प्रसाद और ममता बनर्जी के सौजन्य से संकट .....
जुगनू शारदेय
रेल मंत्रालय लालू प्रसाद और ममता बनर्जी के सौजन्य से बहुत संकट में है । यह भी कह सकते हैं कि यह रेल मंत्रालय की नकली समाजकल्याण प्रवृति से
परेशान है । अब जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मंत्रालय के प्रभार में हैं तो लोगों को , हमेशा की तरह प्रधानमंत्री से जो नकली उम्मीद बनती है
, वैसी ही नकली उम्मीद बन रही है । रेल मंत्रालय या रेल गाड़ियां देश भर में आंदोलनकारियों का सबसे बड़ा सॉफ्ट टारगेट होती हैं । इससे लड़ना बहुत
आसान होता है । अकसर इसमें राज्य की ही हार होती है । रेल मंत्रालय 68 हजार रुट किलोमीटर में फैला हुआ राज्य है ।
कहा जाता है कि राज्य से लड़ना असंभव सा होता है । यह भी माना जाता है कि राज्य को सबक सिखाना या पंगु बनाना बड़ा आसान काम होता है । भारतीय राज्य या राष्ट्र , कहना चाहें तो राष्ट्र में आवाजाही को बंद करना या अपनी शर्तों पर राज्य की आवाजाही हांकना बहुत ही आसान है । आपने एक दो दिन का
बंद सुना या देखा होगा अथवा उसमें फंसे होंगे । एक जमाना होता था जब पश्चिम बंगाल में बंद राज्य यानी पश्चिम बंगाल की उस वक्त की वामपंथी
सरकार कराती थी । समय समय पर अनेक राज्यों या नगरों में अथवा कहीं भी बंद हो जाता है । यह भी माना जाता है कि बंद के आज के चेहरे के खोजकर्ता या इस्तेमाल करता जॉर्ज फर्नांडीस हैं । अब तो जीवित होते हुए भी उनकी चेतना बंद हो चुकी है । वरना उनसे पूछता कि अब बंद के बारे में वह क्या सोचते
हैं । कभी मराठी में उन्हें संप ( हड़ताल ) सम्राट कहा जाता था । उनके बंद में सबसे जरूरी होता था रेल बंद । आखिर तब भी यानी बीसवीं सदी के छठे दशक
में भी और आज भी मुंबई बंद करना हो तो रेल बंद करना सबसे आसान होता है ।
किसे याद रहता है आंकड़ा कि बंद से किसे कितना नुकसान हुआ । यह भी आज तक नहीं पता चला है कि बंद से सरकार कितना झुकी है । सरकार ने तो यह भी साबित कर दिया है कि 1974 के रेल बंद या हड़ताल को दमन से काबू कर सकती है । यह भी संप सम्राट की ही पहल थी ।
बंद की पहल चाहे जिसकी हो इतना सच जरूर सामने आ गया है कि बंद से नागरिक परेशान हुआ है । बंद से सरकार भी नहीं डरी है । डरती होती तो बंद के पहले दिन ही उसे नाकायमाब करने की कोशिश करती । राजस्थान में जब चाहें तब गुजर बंद कर सकते हैं । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट बंद कर सकते हैं । बंद में सबसे आसान होता है रेल बंद करना । दो आदमी भी चाहें तो रेल बंद कर सकते हैं । पर आपने कभी यह सुना है कि रेल भी अपनी तरफ से बिना एलान के एलानिया बंद करती है । यूं तो रेलगाड़ियों का समय से न चलना भी एक प्रकार का बंद ही है । आम तौर पर यह माना जाता है कि सुबह से शुरु हुआ बंद शाम को 5 बजे तक खत्म हो जाता है । पर क्या आपने साल भर से ज्यादा समय से चल रहे शाम को 6 बजे से से सुबह के 6 बजे तक के बंद के बारे में सुना है ? कहने को यह रेल बंद होता है – पर होता है हर प्रकार की आवाजाही बंद ।
राज्य – राष्ट्र इसके सामने बेबस है । जब ताकतवर राष्ट्र – राज्य असहाय है तो हम यार का गुस्सा भतार पर निकालने वाले लोग क्या कर सकते हैं ।
जिन्हें इस बंद की जानकारी है , उन्होने अपनी आवाजाही इस बंद के हिसाब से बना ली है । जिन्हें पता ही नहीं है , वह इस बंद का बंद झेलते रहते हैं ।
यह बंद है खड़गपुर से राउरकेला तक का रेल और सड़क यातयात का बंद । यही वह इलाका है जिसमें झाड़ग्राम भी है और पुरुलिया भी । झाड़खंड का सिंहभूम भी बुनियादी तौर पर माओवादी नियंत्रण का ही क्षेत्र है । हमारे सामने छतीसगढ़ के बस्तर या महाराष्ट्र के गढ़चिरोली का बहुत जिक्र होता है । पर प.बंगाल या बिहार या झाड़खंड में माओवादी संगठन के विस्तार या प्रभाव पर बहुत कम चर्चा होती है । अकसर तो इन राज्यों में हम इसी बात से खुश हो जाते हैं कि उनके बंद का कोइ असर नहीं पवा । लेकिन साल भर से चल रहे रेल का रात्रि बंद है माओवादी संगठन से राष्ट्र – राज्य का भय । इस भय का आरंभ हुआ साल भर पहले हावड़ा ( कलकत्ता ) – मुंबई रेल मार्ग पर 28 मई 2010 को हुए रेल हादसा का । इस हादसे में लगभग 150 यात्री मारे गए थे । रेल में हादसे होते रहते हैं । इस हादसे में रेल का कोई दोष नहीं था । और अगर उसका गुनाह था तो बस इतना कि उसने माओवादियों के उस घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया था जिसमें उन्होने उस समय चार दिनों के बंद की चेतावनी दे दी थी । ऐसा भी नहीं है कि माओवादी बंद में रेल को माफ किया जाता है । पश्चिम बंगाल – बिहार – झारखंड में कई दफा माओवादी ने पूरी रेल को या उसके कर्मीदल को अपने कब्जे में ले लिया है । माओवादी ज्ञानेश्वरी के
पहले भी बिहार के रफीगंज में 10 सितंबर 2002 को माओवादी रेल पटरी को उखाड़ कर हावड़ा – राजधानी एक्सप्रेस को पटरी से पलट चुके थे । उस वक्त भी लगभग 130 यात्री मरे थे । हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि मरने वालों की संख्या 200 से ज्यादा थी । तब बिहार के मौजूदा मुख्य मंत्री रेल मंत्री
हुआ करते थे । ज्ञानेश्वरी हादसे के समय पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी रेल मंत्री हुआ करतीं थीं । यह एक दिलचस्प तथ्य है कि दोनों
रेल मंत्रियों का अपने राज्य सरकार से बड़े बुरे संबंध हुआ करते थे ।
ज्ञानेश्वरी दुर्घटना के बाद भी यही हुआ । हादसे के सप्ताह भर पहले ममता दीदी ने तो यहां तक कहा था कि नक्सलवादी हमलों से रेल मंत्रालय को लगभग
500 करोड़ का नुकसान हो चुका है । इस बयान के पीछे का असली मकसद यह था कि प.बंगाल की वामपंथी सरकार माओवादी या नक्सलवादियों को काबू करने में असमर्थ है । बंगाल में उस समय नगरपालिकाओं के चुनाव होने वाले थे । इस हादसे को उस चुनाव से भी जोड़ा गया । बंगाल की राजनीति की परंपरा में वाममोर्चा बनाम ममता बनर्जी बोली युद्ध भी हो गया । कुछ दिनों के बाद कुछ माओवादियों / नक्सलवादियों की गिरफ्तारी भी हुई । लेकिन इससे रेल का अपना बंद नहीं रुका और चलना भी नहीं बंद हुआ ।
आज हावड़ा से नागपुर होते हुए या बरास्ता झाड़ग्राम चलने वाली रेल गाड़ियां शाम को नहीं चलतीं । कुछ गाड़ियां टाटानगर रेल स्टेशन या उसके पहले रोक दी जाती हैं तो कुछ खड़गपुर के पहले । लोगों को उम्मीद बनी थीं कि ममता बनर्जी के मुख्य मंत्री बनने के बाद रेल गाड़ियां चलने लगेंगी । लेकिन यह
उम्मीद बस उम्मीद ही बनी रहीं । मजे की बात है कि रात में इस रेल मार्ग पर मालगाड़ियां चलती रहती हैं – पर यात्री गाड़ियां नहीं चलतीं । इस बंद को
कौन बंद करेगा । रेल मंत्रालय एक काम ही कर सकता है कि यात्री गाड़ियों का समय बदल दे या अपना रात्रि बंद का बंद बंद कर दे ।


